“बहुत हो गया। हर बार मैं ही समझौता करूं? नहीं अब ये नहीं होगा।” मंगला ने अपनी सास जानकी देवी से कहा।
” क्या फर्क पड़ता थोडा तुम समझौता कर लेती बडी? छोटी नई नवेली है। थोडे दिनों में हमारे रंग में रंग जायेगी। थोडा समय तो लगेगा ही।”
” माँ जी, जब से इस घर में आयी हूं, मैं ही अपने मन को मारकर सबकी इच्छानुसार चल रही हूं। मैं ने मेरी सरकारी नौकरी तक छोड दी।”
“लेकिन सब मुझे ही कोसते है।”
“क्या ही कर लेती तुम?” दिन रात सब ताना मारते है।”
” अरी बडी, कोई ताना नहीं मारता। तुम्हारे बगैर तो इस घर का पत्ता भी नहीं हिलता। मानती हूं, सीधे तुम्हें नहीं पुछते, पर जब तक तुम्हारी मौन स्वीकृति न मिले, कोई काम होता है भला?”
“सो तो ठीक है, पर…”
” तुम्हारी पसंद की है देवरानी भी। फिर ये भेद कैसा? छोटी बहन सा प्यार करोगी, सखी सा व्यवहार करोगी, वह सहज ही यहां रम जायेगी। अभी अगर रिश्तें में दरार पड गयी तो कभी नहीं पाट पाओगी।”
मंजुला उसकी सहेली की नणंद थी। बहुत ही प्यारी। मंगला को उसकी मीठी बोली, उसकी मधुर मुस्कुराहट बहुत भाती थी। उसने ही यह रिश्ता पक्का किया था।
लेकिन अपने घर में आते ही वह जेठानी सा रौब झाड़ने लगी थी। अपनी इच्छा अनजाने में ही उस पर लादने जा रही थी।
अपनी गलती का एहसास उसे हो गया था। छोटी सी जिद के कारण घर परिवार बिखर जाता। उसे बगीचे की तरफ वाली रूम पसंद है। शौक है उसे हवादार कमरे का। फूल पौधे निहारने का। दिल बडा रखुंगी तो क्या हो जायेगा? उसने मन ही मन सोचा।
“आप सही कह रही हो माँ जी।”
उसे पता है, मंजुला को पाव भाजी बहुत पसंद है। और मूवी देखना भी पसंद है।
” मंजुला, बहुत भूख लगी है। हम सब साथ साथ खाना खायेंगे, और फिर मूवी चलेंगे।”
मंजुला खिल-खिलाकर हंस पडी। प्यार से जेठानी के गले लग गयी।
” मेरी प्यारी दीदी…”
प्रेम रस धार झरझर बहने लगी।
प्यार से उसने मंजुला को पुकारा। देखकर
जानकी देवी की आँखे नम हो रही थी।
स्वरचित मौलिक कहानी
चंचल जैन
मुंबई, महाराष्ट्र