समर्पण – विजय शर्मा

रात के साढ़े दस बज रहे थे, स्कूटर स्टेण्ड से उतारकर जैसे ही राजेश ने सामने देखा तो एक बड़ी फोर्ड आइकान  गाड़ी उसके पूरे रेम्प को घेरे खड़ी थी।

राजेश ने पास ही बनी पान की दुकान पर जाकर खड़े दो तीन व्यक्तियों से मुखातिब होते हुए कहा “आप में से जिसकी भी यह कार हो हटा लीजिये।”

उनमे से एक व्यक्ति लगभग झूमता हुआ बोला “क्या दिक्कत है बे!?”

इतने में उसका दूसरा साथी जो कि नशे में ही लग रहा था चिल्लाया, “नहीं हटाएँ तो क्या कर लेगा बे तू? हमे जानता नहीं क्या?”

राजेश ने भी स्थिति के अनुरूप जवाब दिया “अबे कोई भी हो तुम! गाडी हटाते हो या नहीं!”

ये सुनते ही दोनों सकपका गए।  उनमें से पहला व्यक्ति उसे गले लगाते हुए बोला-  “भाई तू तो यूँ ही नाराज हो गया, तेरे लिये जान हाजिर है। दूसरा व्यक्ति बिल्कुल पास आकर बोला,  “भाई तू इतनी रात को कहाँ जा रहा है, वो भी इतनी जल्दी में?”


“शीला फार्मेसी में, सुपरवाइजर हूँ वहाँ। मैं समय का पाबंद हूँ।”  राजेश ने उबलते हुए कहा।

यह सुनकर दूसरा व्यक्ति बोला, “अभी जिन्होंने तुम्हें गले लगाया वो शीला फार्मेसी  के मालिक है।”

सुनकर राजेश बगले झांकने लगा। पहले व्यक्ति ने अकड़ते हुए राजेश को देखा और उसे अपना विजिटिंग कार्ड थमाते हुए सुबह 11 बजे हेड ऑफिस आने के लिए बोला। राजेश को लगा अब तो नौकरी गई ।

अगले दिन राजेश विचारों के भंवर में फँसा सुबह 11 बजे हेड ऑफिस पहुँचा। अंदर पहुँचते ही मालिक से सामना हो गया। कुछ देर खामोशी छायी रही। एक झटके से वह व्यक्ति कुर्सी से उठा और राजेश के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला,

“तुम्हारी हिम्मत और काम के प्रति समर्पण की दाद देता हूँ। आज से तुम इस फैक्ट्री के चीफ सिक्योरिटी ऑफिसर हो। ओके?”


विजय शर्मा

कोटा, राजस्थान

स्वरचित अप्रकाशित

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