सफरी –   अरुण कुमार अविनाश

हम व्ययाम कर ही रहें थे कि राय साहब का मोबाइल गुनगुनाया। एक बार तो उन्होंने फोन को इग्नोर किया –  आधे मिनट के बाद , जब दोबारा मोबाइल गुनगुनाने लगा तो राय साहब फोन की उपेक्षा न कर सकें।

स्टेशन इंचार्ज होने के नाते उन्हें कभी भी – किसी का भी फोन आ सकता था और जैसी ज़रूरत हो वैसा जबाब देना पड़ता था – कार्यवाही करनी होती थी।

एक छोटे से बैग में जिसमें टॉवल और पानी की बोतल रखी रहती थी के साइड पॉकेट में से उन्होंने फोन निकाला – आ रही घण्टी बंद हो चुकी थी – इसलियें खुद फ़्लेश हो रहें नम्बर पर डायल किया – कुछ देर बातें करते रहें फिर – “आता हूँ ।” – कह कर फोन काट दिया।

” कथाकार घर पर गेस्ट आये हुए है मुझें जाना होगा।” – राय साहब ने मोबाइल जेब में रखते हुए कहा।

” कौन आया है ?” – मेरा स्वभाविक प्रश्न।

” सनावद से सिंह साहब आयें है।”

” सिंह साहब! वो स्टेशन मास्टर !”

” हाँ वही – तुम जानतें हो उन्हें ?”

” हाँ खूब अच्छी तरह से – मुमकिन है वे मुझें न जानतें हो – पर सनावद का बच्चा-बच्चा उन्हें जानता है – पब्लिक डिलिंग में है – हँसोड़ , मिलनसार , हास्यकवि व व्यंग्यकार।”

” ऐसा है तो चलों फिर – न जानतें होंगें तो जान लेंगे – जानतें होंगें तो मिल लेंगें।”

राय साहब के बिना एक्सरसाइज में मेरा भी मन नहीं लगना था – इसलियें मैंने भी मेरा सामान समेटा और हम अपनी-अपनी बाइक से राय साहब के बंगले की ओर चल पड़े।


सिंह साहब , राय साहब के बंगले के कोर्टयार्ड में एक कुर्सी पर बैठे हुए – राय साहब के लड़के से बातचीत कर रहें थे।

हमनें एक दूसरे का अभिवादन किया – दोनों स्टेशन मास्टर्स ने गले मिल कर अपनत्व जताया – फिर जब हम कुर्सियों पर बैठ गये तब सिंह साहब मुझसे मुखातिब हुए  – ” और भाई लेखक – क्या चल रहा है ?  आज कल।”

” सर, आप मुझें पहचानते है ?” – मैं विस्मित स्वर में बोला ।

” नाम तो नहीं मालूम –  पर,  राय साहब आपको कथाकार कहते है इतना जानता हूँ।”

”  फिर तो , आपको ये भी मालूम होगा कि इन दिनों मैं स्टेशन मास्टर के संस्मरण पर कुछ सत्य-कथाएं लिख रहा हूँ – अगर आपकी नज़रें इनायत हो जायें तो मुझ गरीब का भला हो जाये।”

” इरादा क्या है आपका ?” – वे मुस्कुराये।

” दरअसल, पुलिस इंस्पेक्टर , एडवोकेट,  डॉक्टर्स,  आर्मी ऑफिसर को नायक बना कर बहुत कुछ लिखा गया है – पर आपकी बिरादरी पर बहुत कम फिल्में बनी है – लगभग न के बराबर कहानियाँ लिखीं गयी है– जबकि आपलोग भी जनसेवा से सीधे-सीधे जुड़े हुए है – मेरा बस चलें तो स्टेशन मास्टर पर पूरे बावन एपिसोड की सीरियल मार्का बावन कहानियाँ लिख दूँ।”

“अरे भाई , मुझसे क्या चाहतें हो ?”

” आप भी कुछ संस्मरण सुनायें – मुमकिन है कि कहानी लायक मटेरियल हो तो मेरी एक कहानी बन जायें।”

सिंह साहब कुछ कहते उससे पहले चाय आ गयी। हम चाय पीने लगें  –  इस दौरान सिंह साहब की पेशानी पर कुछ लकीरें बनने-बिगड़ने लगी थी – प्रत्यक्षतः वे ज़ेहन पर ज़ोर दे रहे थे।”

मैं उम्मीद भरी नज़रों से उनकी ओर देख रहा था।

सिंह साहब ने चाय का खाली कप रखा – राय साहब की ओर इस तरह देखें मानों इज़ाज़त मांग रहे हो – फिर उनके होंठो से गंगोत्री बह निकली।

” पक्का याद नहीं , मगर पन्द्रह साल तो हो ही गयें होंगें – सनावद की ही घटना है – सुबह के पौने पाँच बजे रहे होंगे – अजमेर से चल कर वाया चितौड़ रतलाम महू – एक गाड़ी अभी दस मिनट पहले सनावद से गुजरी थी – जो खण्डवा होते हुए अकोला जाती थी। मैं इंतज़ार कर रहा था कि ये गाड़ी बगल के स्टेशन – निमारखेड़ी – पहुँच जायें तो मैं नित्यकर्म से निवृत होने के लिये वाशरूम जाऊँ। तभी एक युवक ऑफिस के दरवाज़ें पर आया – उसके हाथ में एक भारी अटैची थी। मुझसे अनुमति लेकर वह ऑफिस के अंदर आया और आते ही बोला कि मैं उस भारी अटैची को ऑफिस में रख लूँ।”


सनावद स्टेशन पर अमानती घर की सुविधा नहीं थी – आतंकवादी घटनाओं के मद्देनजर किसी अजनबी का लगेज रखना वैसे भी उचित नहीं था – साथ ही ये रेलवे के नियमानुसार भी अनुचित था। मैंने विनम्रतापूर्वक उसे अमानती घर न होने की सूचना दी और अटैची रखने से मना कर दिया।

” सर ,जो पैसे लेने हो ले लेना – पर, थोड़ी देर के लिये —!”

” फालतू बात नहीं – एक बार कह दिया नहीं – तो नहीं।”– मैं कठोर स्वर में बोला।

फिर, उस युवक ने भी मुझसे कुछ और न कहा और चुपचाप वापस प्लेटफॉर्म पर एक ओर चला गया।

मैं उसे थोड़ी देर तक जाता देखता रहा – फिर, जब गाड़ी अगले स्टेशन निमारखेड़ी पहुँच गयी तो अधीनस्थ स्टॉफ को – ” फ्रेश होने जा रहा हूँ।” – कह कर मैं ऑफिस से बाहर निकल गया।

आधे घँटे के बाद मैं वापस ऑफिस में आया और रोज की तरह प्लेटफॉर्म पर इंस्पेक्शन करने के लिये निकला – इसके दो फायदे थे – एक तो रात भर प्लेटफॉर्म पर क्या हुआ !  कहीं गन्दगी या कोई टूटफूट तो नहीं हुई ! जैसी अनियमिततायें पकड़ में आती थी – दूसरा ,  मेरा खुद का मॉर्निंग वॉक हो जाता था।

स्टेशन पर दो प्लेटफॉर्म थे – एक तरफ से देखता हुआ – प्लेटफॉर्म के अंतिम छोर तक जाता था – फिर , पटरी पार कर – दूसरे प्लेटफॉर्म के एक छोर से दूसरे छोर तक देखता हुआ – उसके दूसरे छोर तक जाता था – फिर पुनः पटरी पार कर – वापस पहले प्लेटफॉर्म पर निगाह मारता हुआ अपने ऑफिस में – लगभग बारह सौ मीटर की चहलकदमी हो जाती थी।

मैं प्लेटफॉर्म नम्बर एक पर – मुश्किल से सौ मीटर ही गया होऊँगा कि सिमेंट के बेंच पर एक युवक और एक महिला दिखी – महिला बेंच पर शॉल ओढ़े लेटी हुई थी और उसका सिर युवक की गोद में था।

घड़ी की सुइयां  साढ़े पाँच बजा रही थी I ठंढ का मौसम था – सूर्योदय होने में अभी भी वक़्त था। प्लेटफॉर्म पर रोशनी का साधन खम्भे पर लगा टयूब लाइट था – उन दिनों मैं युवा था – गर्म खून – मन में सरकारी तंत्र का पुर्जा होने के कारण दम्भ भी था – पॉवर दिखाने का जज़्बा – मैं लगभग लपकता हुआ वहाँ पहुँचा ।

“क्या हो रहा है यहाँ ?”– मैं तीखें स्वर में बोला।

युवक उसी मुद्रा में बैठा रहा – जो कि मुझें उसकी घृष्टता लगी – मेरे सवाल का जबाब तक नहीं दिया उसने।


एक तो रात भर का जगा हुआ था मैं  – मन वैसे ही चिड़चिड़ा हो रहा था – ऊपर से उसके द्वारा अनदेखा करना मुझें गुस्सा भी दिला रहा था – तभी महिला ने अपने चेहरे से शॉल हटाया – वह बहुत ही सुंदर युवती थी उम्र भी बीस-बाइस से ज़्यादा नहीं होगी – उसके चेहरे पर वेदना के भाव थे। युवक तो नहीं, युवती ही बोली – ” सर, हमलोग चित्तौड़गढ़ से अकोला जा रहें थे – पौने पाँच वाली गाड़ी – जो थोड़ी देर पहले यहाँ से गयी थी – उसमें हमारा रिज़र्वेशन था – मेरा मायका अकोला में है – मैं डिलीवरी के लिये माँ के घर जा रही थी पर, एकाएक मुझें दर्द होने लगा तो सहयात्रियों ने सलाह दी कि सनावद बड़ी जगह है यहीं उतर जाओ – आगे जैसा डॉक्टर बोले वैसा करना।”– बोलते-बोलते युवती की सांसें फूलने लगी।

“अरे, तो डॉक्टर के पास जाना था न ! यहाँ प्लेटफॉर्म पर डॉक्टर थोड़े ही आयेगा!”

” मैं गया तो था आपके पास !”

” कब !”

” वो अटैची रखनें !”

अब मुझें ध्यान आया कि ये अटैची वाला युवक है।

” अरे भाई , मैंने अटेची रखने से मना किया था – वो तो अब भी नहीं रखूँगा – पर तुमनें मेडिकल इमरजेंसी है! ये क्यों नहीं कहा ?”

वह खामोश रहा।

मूर्ख से बहस करने से कोई फायदा नहीं था – मैं युवती से – जो अभी भी युवक की गोद में सिर रख कर लेटी हुई थी – से मुखातिब हुआ – ” सिस्टर, आप लोगों ने वेवजह देर कर दी – मैं तुरन्त इंतज़ाम करता हूँ – आप सिर्फ इतना बताइये कि सरकारी अस्पताल में जाना चाहोगी या प्राइवेट हॉस्पिटल में ? “

” कहीं भी , पैसों की समस्या नही है।

“ओके! मुझें सिर्फ दस मिनट दो, मैं तुरन्त सब इंतज़ाम करवाता हूँ।” – मैंने कहा – फिर,  लगभग दौड़ता हुआ ऑफिस में पहुँचा – ऑफिस में दो स्टॉफ बैठें थे – मैंने एक स्टाफ से बोला – ” दादा, तुरन्त मेरे और पानी वाली के घर जाओं – मेरी वाईफ से और पानी वाली से बोलों कि पांच मिनट में ऑफिस पहुँचे – पुण्य का काम है देरी नहीं होनी चाहियें – रोड़-साइड छोटे स्टेशनों पर रेलवे आवास – रेलवे स्टेशन के बिल्कुल करीब होतें है – इसलियें महिलायें दो मिनट में स्टेशन आ सकतीं थी –  फिर, मैंने हर स्टेशन पर उपलब्ध – महत्वपूर्ण टेलीफोन नम्बर की लिस्ट से नम्बर देखकर – डॉक्टर वंदना अधिकारी जो शहर की अति प्रतिष्ठित गायनोक्लोजिस्ट थी और जिनका खुद का अस्पताल था और जो अस्पताल के ही सबसे ऊपरी माले पर निवास करती थी – को फोन कर सोते से जगाया – अपना परिचय दिया और इमरजेंसी बताई – एम्बुलेंस की मांग की – उधर से बताया गया कि एम्बुलेंस के इंतज़ार में और भी देर हो सकती है – इसलियें , मैं किसी भी और साधन से महिला को अस्पताल पहुँचवा दूँ। मैंने दूसरे स्टॉफ को व्हील चेयर ले कर महिला के पास जाने को कहा और खुद एक ऑटो वाले को फोन कर फ़ौरन स्टेशन पहुँचने के लिये कहा – छोटे शहरों में चूंकि स्टेशन मास्टर एक महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है – अगर वह किसी की सहायता करने को कहता है तो लोग अपनी क्षमता का पूर्णतः प्रदर्शन करतें है – अगले आठ मिनट में मेरी पत्नी और पानी वाली के साथ युवक-युवती ऑटो में बैठ कर – डॉक्टर वंदना अधिकारी के अस्पताल की ओर जा चुके थे – युवक की अटैची भी ऑटो में उनके साथ था।

इच्छा तो हो रही थी कि मैं भी अस्पताल जाऊँ – पर , मैं चाह कर भी डयूटी छोड़ कर नहीं जा सकता था। एक गाड़ी सात बजे आने वाली थी और दूसरी गाड़ी साढ़े आठ बजे सनावद आती।

नियमानुसार मैंने मेरे खण्ड नियंत्रक को सारी बातें नोट करवायी – पैसेंजर की टिकट नम्बर फ्रॉम एंड टू जैसी सूचनायें दर्ज करवायी और रिलीवर का इंतज़ार करने लगा।

ठीक आठ बजे रिलीवर आया – फिर कायदे से उसे चार्ज दिया – जरूरी बातें समझायी और रिलीवर की ही बाइक लेकर – मैं सीधें डॉक्टर वंदना अधिकारी के अस्पताल में पहुँचा।

वहाँ जातें ही मुझें खुशखबरी मिली – अस्पताल पहुँचने के दस मिनट के अंदर युवती ने एक सुंदर बालिका को जन्म दिया था। मेरा प्रयास सार्थक रहा था – अगर प्रसव प्लेटफॉर्म पर हुआ होता तो हमें बहुत परेशान होना पड़ता –’ हमें ‘ इसलियें कह रहा हूँ – क्योंकि,  बीइंग स्टेशन मास्टर – व्यवस्था तो मुझें ही सम्भालनी होती।

” पगले !” – मैंने युवक से कहा – ” कुछ अंदाज़ा भी है तुम्हें ! कि, कैसी मुसीबत से बचे हो तुम?”


“हाँ सर ,  सहयोग के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद।”

” एक बात बताओं ।”

” क्या?”

” जब वाईफ को इतनी तकलीफ थी तो प्लेटफॉर्म पर इंतज़ार किसका कर रहे थे ?”

” जब आपने अटैची रखने से मना कर दिया था – तो , मैंने आपको बहुत ही रूखा आदमी समझा था – मुझें आपसे किसी भी प्रकार की सहयोग की उम्मीद नहीं थी – फिर मैं सूरज उगने का इंतज़ार कर रहा था – सवेरा होता तो कोई न कोई आदमी दिखता – फिर, उसी से यहाँ के किसी अस्पताल का पता पूछता।”

“तुम्हारें कथन के पहले भाग का उत्तर ये है कि हर काम का अपना कायदा होता है – लगेज नहीं रखना है तो नहीं रख सकतें – ये नियम विरुद्ध है । अब रही बात मेडिकल इमरजेंसी की – तो, उसके लिये किसी भी हद तक जा कर मदद कर सकता हूँ। इस बात को यूँ समझों कि मैं मेरी शर्ट से बहुत प्यार करता हूँ – बहुत सम्भाल कर रखता हूँ – पर, किसी का खून बह रहा हो – खून बहने से उसकी जान जा सकती हो – तो , मैं मेरी शर्ट फाड़ कर उसकी पट्टी कर सकता हूँ।”

मैंने युवक को स्टेशन और मेरे घर का नम्बर दिया – परेशान न होने की हिदायत दी और चाय-दूध-खाने के लिये बेफिक्र होने के लिये कहा – फिर दोनों महिलाओं – मेरी पत्नी और पानी वाली को बाइक पर बिठा कर वापस घर लौट आया।

मैं रात भर की डयूटी के कारण बुरी तरह थका हुआ था – नाश्ता करने के बाद मुझसे बैठा भी न गया – पलँग पर लेटते ही मुझें नींद आ गयी थी। जैसा कि मैंने मेरी पत्नी को निर्देश दिया था – वह युवक-युवती के लिये चाय-नाश्ता – बच्चें के लिये दूध टॉवल जैसी चीजें लेकर अस्पताल गयी थी – बाद में किसी रेलवे स्टाफ के हाथों – दोनों के लिये लंच भी भिजवा दिया था। हमारी कोशिश थी कि वे अजनबी जगह पर खुद को बेयारोमददगार – हेल्पलेस – न  समझें।

अगले ही दिन युवक के घर एवम ससुराल वाले सनावद आ गये थे। उन्होंने मेरी मदद के लिये मेरा आभार प्रकट किया। अस्पताल के पास ही – एक खाली मकान में उनके रहने-खाने की व्यवस्था अस्पताल वालों ने करवा दी थी।

अब मैं उनकी तरफ से निश्चिन्त था।

पाँचवे दिन मेरे घर नवजात के नाना-नानी,  दादा-दादी और युवक बिना कोई पूर्व सूचना के आ गये – शाम का वक़्त था – मैं दस मिनट पहले ही सो कर उठा था और नहा धोकर फ्रेश होकर मार्किट जाने की सोच रहा था।

उनके हाथों में एक बड़ा-सा गिफ्ट पैकेट और मिठाई का डब्बा था।

बच्चें की दादी ने गिफ्ट पैकेट और मिठाई का डब्बा मेरी पत्नी को सौपा – हमनें मिठाई तो कबूल कर ली पर गिफ्ट पैकेट लेने से इंकार कर दिया – ” बहूँरानी ये तो नेग है – आपने बिटियां की बुआ का रोल अदा किया था – इसलियें मना मत करना ।” – वृद्धा अनुरागपूर्वक बोली।

” साहेब , बिटियां का पहला नामकरण करने का अधिकार आपको है। ” – बच्ची के दादा जी बोलें।

” मैंने कुछ पल सोचा फिर बोला – ” अंकल जी , बिटियां सफर के दौरान जन्म ली है – इसलियें , इसका नाम सफरी रखा जायें तो कैसा रहें!”

” बाद में नाम भले जो भी रखा जायेगा – पर, जिंदगी भर – घर में पुकार का नाम सफरी ही रहेगा। “– दादा जी निर्णायक स्वर में बोलें।

उनके जाने के बाद हमनें वह गिफ्ट पैकेट खोला – उसमें सुहागन की श्रृंगार की चीजों से भरी एक बाक्स और एक कीमती साड़ी पैक था।

” सिंह साहब, अब तो वो गुड़िया बड़ी हो गयी होगी –अभी कहाँ है कुछ पता है ? “– मैं दखलन्दाज़ हुआ।

” देखो भाई, उन दिनों उन लोगों ने अपना टेलीफोन नम्बर दिया भी था और मुझसे मेरा नम्बर लिया भी था – पर न उन लोगों ने मुझें कॉल किया न मैंने उन्हें – अब तो जब से मोबाइल फोन का प्रचलन हुआ है – लैंडलाइन वाला फोन – जिसका मैंने उन्हें नम्बर दिया था – वो तो मैंने कभी का सरेंडर कर दिया है ।  वैसे भी , आपने एक संस्मरण सुनाने को कहा तो एकबारगी मुझें वो वाकया याद आ गया – जिंदगी में बहुत लोगों की मदद की है – अगर हर मदद लेने वालें का हिसाब रखूं तो रिकार्ड रखने के लियें – मुझें खुद किसी की मदद लेनी पड़ जाये – इस बात को यूँ समझों कि :–

हुज़ूर हमारी हर रात के अफसाने हुआ करतें है।

हम स्टेशन मास्टर है, हम सबकी मदद करतें है।

” बिल्कुल-बिल्कुल , मेरी भी मदद कीजियेगा – बल्की करते रहियेगा – मुझें आपसे बहुत सी कहानियाँ सुननी है।” – मैं कृतज्ञ भाव से बोला।

” ज़रूर।”

फिर मैं सिंह साहब से उनका मोबाइल नम्बर लेने लगा।

                                           अरुण कुमार अविनाश

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