घर के आँगन में अदरक वाली चाय की सोंधी खुशबू के साथ अजीब सी खामोशी घुली हुई थी। लीला जी खामोश थीं, उनकी आँखों की थकान उम्र की नहीं आत्मा व मन की ,अनकहे जज़्बातों के उपेक्षा की थी।
उनका बेटा विवेक, हमेशा से, ऑफिस से लौटते ही लैपटॉप में घुस जाता। घर को आफिस बना लेना उसकी आदत बन चुकी थी।
रिंकी, बेहद आत्मविश्वास से सब पर नियंत्रण बनाए हुए थी। मीठी बातें, तीखे बर्ताव—उसकी दोहरी शख्सियत साफ नजर आ रही थी , पर विवेक समझ नहीं पा रहा था।
उसी वक्त दरवाज़े पर दस्तक हुई।
“अरे! कृष्णा काकी!”
लीला जी की बुझी आँखों में अचानक एक उम्मीद की चमक आ गई। अस्सी साल की उम्र में भी उनकी आँखों में सच्चाई को पहचानने की क्षमता थी। दो दिन में ही काकी ने घर की हवा को पढ़, सब कुछ उनके अनुभवी दिल ने भाँप लिया।
चाय बनाते वक़्त रिंकी की चुभती आवाज़ें, लीला जी की खामोशी और विवेक के काम की व्यस्तता या रिंकी पर आंख बंद कर भरोसा।।
तीसरे दिन, जब सब साथ बैठे, काकी ने अपनी आवाज़ में वही स्थिर दृढ़ता लाते हुए कहा,
“रिंकी बहू, बहुत मीठा बोल लिया अब तक तुमने … लेकिन अब वक्त है तुम्हारा कच्चा चिट्ठा खोलने का।”
विवेक भी अब तक घर आ चुका था
रिंकी का चेहरा पीला पड़ने लगा । विवेक की उंगलियाँ कप पर थम गईं। विवेक को भी अब अपनी गलती समझ आ चुकी थी कि उसने माँ को रिंकी के भरोसे छोड़ कितना अकेला कर दिया था उनका ध्यान उसे खुद रखना चाहिए था ।
काकी ने पारखी नजर से आईना दिखाया था, जिसमें हर रिश्ते की असलियत साफ दिखने लगी थी
“रिश्तों में सच्चाई का आईना देर से ही सही, पर सब कुछ साफ हो चुका था ।”
स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी
‘अनाम अपराजिता’
दिनांक**3/5/2025
मुहावरा # कच्चा चिट्ठा खोलना (भेद खोलना)