“रक्षक या भक्षक” – ॠतु अग्रवाल

आज मन बहुत उदास था रम्या का। पता नहीं, कभी-कभी मन क्यों उन गलियारों में खो जाता है, जहाँ बचपन की एक कच्ची,कड़वी सी याद उसके अंतस के घाव को कुरेद देती है। कितना ही उस नासूर को भरने की कोशिश की, उसने,उसके पापा मम्मी ने। पर जब तब उससे रिसता मवाद अपनी सड़ांध से उसका तन मन बदबूदार कर देता।

        यही कोई 12-13 वर्ष की रही होगी रम्या। बड़ी बहन के बोर्ड के एग्जाम थे। रम्या और उसके छोटे भाई के पेपर खत्म हो चुके थे। मार्च के महीने में जब ना तो अगले साल की पढ़ाई शुरू होती है और ना ही कोई हॉलीडे होमवर्क होता है तो दोनों ने घर में धमाचौकड़ी मचाई हुई थी। दीदी बार-बार गुस्सा होकर कहती,”इन के पेपर खत्म हो गए हैं और इन दोनों बंदरों ने मेरा पढ़ना मुश्किल कर दिया है। अगर मैं फेल हो गई तो यह दोनों जिम्मेदार होंगे।”

       जब मम्मी ने यह बात मौसी को बताई तो मौसी आकर उन दोनों को अपने घर ले गई।वहां मौसी के दोनों बच्चों के साथ इतनी मौज मस्ती की कि रात को थक कर चारों बच्चे घोड़े बेच कर सोते। ऐसे ही तीन-चार दिन बीत गए। एक दिन अचानक रम्या को लगा कि कोई उसके शरीर पर हाथ फिरा रहा है पर फिर वहम समझ कर टाल दिया। पर ऐसा अगले 2 दिन तक लगातार हुआ तो रमिया को कुछ शंका हुई। चौथे दिन जब वही एहसास उसे फिर हुआ तो वह उठ कर बैठ गई। सामने देखा तो मौसा जी के छोटे भाई जिन्हें सब बच्चे चाचा जी कहते थे, उसके पास बैठे थे और उनकी आँखों में अजीब सी वहशियत तैर रही थी। रम्या काँप उठी।

         अगले दिन से तो मानो चाचा जी की हिम्मत बढ़ गई। आते जाते रमिया को छू लेते,कभी गोद में बिठा लेते तो कभी गाल पर चुंबन देते हुए कहते कि यह बच्ची बड़ी प्यारी है। सब उसे उनका बच्चों के प्रति प्यार समझते। पर उनके भद्दे स्पर्श को रम्या समझने लगी थी और वह मौसी से बार-बार अपने घर वापस जाने के लिए कहती। वह समझ ही नहीं पा रही थी कि मौसी को कैसे बताए इस बारे में।

      आखिरकार रम्या वापस अपने घर आ गई पर एक नटखट बच्ची गुमसुम हो चुकी थी। माँ के बार बार पूछने पर रम्या ने जब उन्हें सब बताया तो माँ उसे सीने से भींच कर रो पड़ी और उन्होंने पापा से कहा कि आज के बाद में चाहे जो हो ,मैं अपने बच्चों को कभी किसी के घर अकेले नहीं भेजूँगी। पापा- मम्मी के बार-बार समझाने और हौंसला देने पर रम्या सँभलने लगी।

        पर यदा कदा जब कभी किसी समारोह में मौसी जी के देवर से सामना होता तो वह सिहर जाती और उनके प्रति घृणा से भर जाती। आज उन्हीं चाचाजी के बेटे का जन्मदिन है और रम्या को परिवार के साथ वहाँ जाना है।पर वह घृणा, उदासी और सोच के सागर में डूब उतरा रही है कि जिन रिश्तों को हमारा रक्षक होना चाहिए वही अक्सर हमारे भक्षक क्यों बन जाते हैं?

यह कहानी पूर्णतया मौलिक है।

स्वरचित

ॠतु अग्रवाल

मेरठ

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