पुरूष – विनय कुमार मिश्रा

“तुम्हारा नियुक्ति पत्र आया है कुसुम! तुम्हारा प्राइमरी स्कूल में चयन हो गया है “

मैं स्तब्ध थी मगर इन्हें विश्वास था।अपने चश्मे के पीछे अपनी खुशियों और संघर्ष को छुपाते हुए इन्होंने नियुक्ति पत्र मेरे हाथों में रख दिया। मेरी आंखों में भी दो बूंद खुशी के आ गए।

मैं कोई ज्यादा पढ़ी लिखी महिला नहीं थी। बल्कि गाँव की आठवीं फेल लड़की थी, जिसकी शादी मेरे ताऊ जी ने एक शिक्षित परिवार में धोखे से कर दी थी। ये भी पढ़े लिखे और नौकरी में थे। मेरे ताऊ जी का ये धोखा मुझे रोज ही इस घर में ज़लील करता। मेरी बोली, मेरी अशिक्षा का रोज ही मज़ाक उड़ाया जाता। पढ़ीलिखी छोटी बहू के आने के बाद और भी ज्यादा।

“विमल! तुम इस अनपढ़ को इसके ताऊ जी के यहाँ छोड़ आओ या दो दिनों के लिए गाँव लेकर चले जाओ। कल छोटी बहू के मायके से कुछ लोग आ रहे हैं, तुम्हारे भले के लिए ही कह रही हूँ। बस दो दिनों की बात है, तुम्हारा मज़ाक बनने से रह जायेगा”

ऐसी बातें इनपर क्या असर करतीं थीं मैं नहीं जानती पर उस वक़्त मुझे इनसे आँख मिलाने में भी शर्म आती थी। पूरे घरवालों के सामने जब इन्हें मेरी वजह से बेबस देखती तो अंदर से रो पड़ती थी। मैंने इस अशिक्षा के अभिशाप को अपनी किस्मत मान लिया था पर इन्होंने शायद कुछ और।

इन्हें धोखा मिला था ताऊ जी से। मुझे इनसे प्यार पाने का भी हक़ नहीं था। मगर बदले में इन्होंने मुझे प्यार के साथ सम्मान भी दिया।आज मेरे इस नियुक्ति पत्र के पीछे इनके बारह साल का संघर्ष और परिश्रम है। मैं भरी आँखों से इनके गले लग नियुक्ति पत्र पर लिखे नाम को गौर से देख रही थी

“कुसुम विमल त्यागी” जो सिर्फ कहने और लिखने के लिए नहीं है

एक सफल पुरूष के पीछे एक स्त्री का हाथ कहते बहुतों को सुना है पर आज एक स्त्री की  सफलता में एक पुरूष का हाथ है..!




समाप्त 

दूसरी कहानी – बैसाखी

“देखिये अनंत मैं घुमा कर बात नहीं करती। मुझे इसमें कोई एतराज नहीं कि आप मुझसे नौ साल बड़े हैं। आपके एक पैर में पोलियो का असर है, बावजूद इसके मैं आपकी सरकारी नौकरी के कारण, इस रिश्ते के लिए हां कर रही हूँ मगर!”

मीरा की इन बातों से मैं परेशान नहीं हुआ। मुझे ऐसी बातें सुनने की आदत थी।

“जी शुक्रिया! आप कुछ कह रही थीं”

“हां यही कि मैं आज के ख़यालात की लड़की हूँ। छोटे और शिक्षित परिवार में पली बढ़ी हूँ। गवार लोग मुझे पसंद नहीं, नाहीं मैं अपने लाइफ में किसी की दखलंदाजी पसंद करती हूँ”

मीरा मेरी कमियों का पूरा फायदा उठा अपनी मर्जी रिश्ते से पहले ही थोप देना चाहती थी।

“जी मैं कुछ समझा नहीं”

“यही कि शादी के बाद मैं आपके साथ आपके माँ बाप का बोझ नहीं उठा सकती,”

उसकी इस बात से उस माँ बाप का चेहरा आँखों में नाच गया जिसने मुझे छतीस साल तक कभी बोझ नहीं समझा।

“मीरा जी मुझे आपके बैसाखी की जरूरत नहीं। मैं लंगड़ा हूँ  मगर उतना भी अपाहिज नहीं कि खुद के माँ बाप को हीं अपाहिज कर दूं।”

उसने अपनी आंखों से, मुझपर लानत का बोझ डालना चाहा,मगर मैंने अपना बोझ, अपनी बैसाखी पर डाल, अपने माँ बाप की तरफ बढ़ गया..!

विनय कुमार मिश्रा।

 

 

 

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