प्रायश्चित – डाॅ संजु झा : Moral Stories in Hindi

 कभी-कभी जीवन की सच्चाईयाॅं  वर्षों के प्यार को पल भर में क्षत-विक्षत कर देती हैं।मेरी (आनंद) ज़िन्दगी बड़ी ही सुंदर और सुव्यवस्थित ढंग से चल रही थी । उसमें माॅं की यादों का  अनमोल पिटारा, बड़ी बहन का स्नेह -दुलार और छोटे भाई के प्यार की खुशबू बसी हुई थी।  पिता भी मुझे प्यार करते थे, परन्तु कभी-कभी पिता का उपेक्षित व्यवहार मेरे अंतर्मन  को बेध जाता ,

परन्तु  फिर भी ज़िन्दगी से कोई शिकवा -शिकायत नहीं थी।मात्र दस वर्ष की आयु में मेरी माॅं की मृत्यु हो गई।माॅं की मृत्यु से मैं पूरी तरह टूट चुका था।माॅं की  असामयिक मृत्यु से  घर का कोना-कोना मर्माहत था।पिता भी एक तरह से विक्षिप्त से हो गए थे।उनका गुस्सा दोनों भाई -बहनों के अलावा मुझ पर ही ज्यादा बरस पड़ता, परन्तु बड़ी बहन की बाहों ने अपने ममत्व और दुलार से दोनों भाईयों को समेट लिया।

दस वर्ष में माॅं  ने अपनी ममता का समंदर मुझ पर उड़ेल दिया।माॅं के गुजरने के बाद भी मैं ममता की छाॅंव पाने को विकल हो उठता।मुझे इस हालत में देखकर पिता अपना आपा खो बैठते।माॅं का मुझे अपने ऑंचल में समेटना,पिता की डाॅंट से बचाना,सब कुछ मेरी स्मृति -पटल में अनमोल खजाने की तरह सुरक्षित था।

पिता की डाॅंट पर मायूस होने पर मेरी दीदी अपनी स्नेहिल आवाज में सांत्वना देती हुई कहती -“आनंद! पिताजी की बातों को दिल पर मत लो।माॅं की मौत से वे भी काफी दुखी हैं।”

मैं कहता -“दीदी!पिताजी आप दोनों को कम,मुझे ज्यादा क्यों डाॅंटते हैं?”

दीदी मुझे समझाते हुए कहती -” बचपन में  माॅं का गुजरना किसी भी बच्चे की जिंदगी की सबसे बड़ी त्रासदी  है, परन्तु प्रकृति  का नियम है  कि किसी की जिंदगी में कितना भी बड़ा भूचाल क्यों न आ जाऍं, ज़िन्दगी  रुकती नहीं  है।माॅं के जाने से मैं कम दुखी हूॅं?अपने छोटे भाई को देखो आनंद!उसने भी तो माॅं के बिना जीना सीख लिया है!तुम भी सॅंभलकर पढ़ाई में ध्यान लगाओ।”

मेरे प्रति पिता का तटस्थ व्यवहार ही रहता,जो मेरे मन को कचोटता रहता।ऐसी स्थिति में दीदी का  स्नेहिल स्पर्श मेरे हृदय को रससिक्त कर जाता और मैं अपना ध्यान पढ़ाई पर लगाता।छोटा भाई गगन भी मुझसे बहुत प्यार करता। कभी-कभी मुझे छोटे भाई से ईर्ष्या होती कि पिता मेरे हिस्से का प्यार-दुलार छोटे भाई पर क्यों लुटा देते हैं? परिस्थितियों से जूझते हुए  भले ही मेरी जिंदगी हिचकोले खाते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी, परन्तु वक्त पंख लगाकर तेजी गति से आगे बढ़ रहा था। दीदी की शादी हो चुकी थी।पिताजी की इच्छा के विपरीत गगन नौकरी करने दूसरे शहर जा चुका था।गिरते स्वास्थ्य के कारण मजबूरी में पिताजी को व्यवसाय की डोर मेरे हाथों में देनी पड़ी। धीरे-धीरे मैंने व्यवसाय को काफी आगे बढ़ा दिया, फिर भी मुझे उत्साहित  करने की बजाय महाभारत युद्ध में कर्ण के सारथी शाल्व   की भाॅंति हतोत्साहित करते हुए कहते -“अगर गगन ने बिजनेस सॅंभाली होती ,तो व्यापार और आगे बढ़ता!”

दुखी होने पर मैं दीदी के पास चला जाता, परन्तु दीदी अब अपने बच्चों और परिवार में व्यस्त हो चुकी थी।कुछ ही घंटों में मैं वहाॅं से वापस लौट आता। बीमारी और अकेलेपन के कारण पिताजी काफी चिड़चिड़े हो गए थे।हर वक्त मुझपर शादी करने के लिए दबाव बनाते। मैं अभी शादी नहीं करना चाहता था, क्योंकि व्यवसाय को मुझे बुलंदियों पर पहुॅंचाना था।

आज दफ्तर में मेरे विदेशी क्लाइंट आनेवाले थे। बिजनेस से सम्बन्धित आवश्यक मीटिंग थी।मेरे हाथ बहुत बड़ा प्रोजेक्ट हाथ आनेवाला था,जिससे मेरी कंपनी को बहुत फायदा होनेवाला था। दफ्तर के कर्मचारी कई दिनों से इसमें व्यस्त थे।इस प्रोजेक्ट के कारण कई दिनों से मेरे घर आने-जाने का समय निश्चित नहीं था।देरी से आने के कारण रोज पिताजी से बक-झक हो जाती।

आज मेरा प्रोजेक्ट पास हो गया था। दफ्तर के सारे लोग काफी खुश थे।देर रात तक पार्टी चलती रही,जिस कारण मुझे घर लौटने में काफी देरी हो गई। बहुत थका हुआ था,अभी कपड़े बदलने जा ही रहा था कि पिताजी की दहाड़ जोर से गूॅंजी-“मैं शादी करने कह रहा हूॅं,तो सुनता नहीं है।आधी रात तक गुलछर्रें उड़ाते रहता है। परिणामस्वरुप तुम्हारे जैसा बच्चा जन्म लेगा,जिसे उसकी माॅं कहीं झाड़ियों में फेंक देगी!”

पिता की बातों से मैं तिलमिला उठा। मैंने भी तैश में आकर पूछा -“पिताजी! तुम्हारे  जैसा कहने का आपका आशय क्या है?”

पिताजी भी उस दिन अकेलेपन से ऊब चुके थे, उन्होंने चिल्लाते हुए कहा -“सुन लो!जो तुम्हें दस वर्ष की उम्र में छोड़कर गई,वह तुम्हारी माॅं नहीं थी और न ही मैं तुम्हारा पिता हूॅं।”

पिता के कहे हुए  कटु सत्य से पलभर में मेरी दुनियाॅं उथल-पुथल हो गई।मुझे सारी सृष्टि घूमती हुई नजर आ रही थी।पिता के कहे हुए शब्द मेरे कानों में पिघले हुए शीशे के समान उतर रहे थे। मेरा सर्वांग सवालों  के घेरे में जल उठा।सीने में  उबलते  जज्बात  चक्षु से भाप बनकर निकलने लगें।मन के भीतर अजीब -सा सूनापन था ।एक अलग-सी वीरानी छा गई। ऑंखों की दोनों कोर नम थीं। विश्वास  नहीं हो रहा था कि जिस माॅं ने दस वर्ष तक मुझे अपनी छत्रछाया में महफूज रखा।अपने ममत्व की रसधारा से मुझे सींचती रहीं,वह मेरी माॅं नहीं थी!

पिता जी भी अपने कहे हुए शब्दों पर मन-ही-मन पश्चाताप कर रहे थे।ज़बान से निकले हुए शब्दों को वापस तो नहीं कर रहे थे, परन्तु मन-ही-मन पश्चाताप की अग्नि में जल रहे थे। उन्हें  मेरे घर छोड़कर जाने की आशंका होने लगी थी।अगले दिन से मेरी दुनियाॅं बदल चुकी थी मन में सवालों का तीव्र तूफान उठ रहा था,जो सारी सीमाऍं तोड़कर सारे तटबंध तोड़ने पर आतुर था।

अगले दिन मैं दफ्तर न जाकर दीदी के घर पहुॅंचा।रात के झगड़े की खबर पिता द्वारा दीदी तक पहुॅंच चुकी थी। मैंने सीधे-सीधे सवाल किया -” दीदी! सच-सच बताओ कि मेरे असली माता-पिता कौन हैं?’

दीदी ने मेरे सिर को सहलाते हुए कहा -“भाई!इस बारे में मुझे कुछ नहीं पता है! परन्तु तुमने कभी माॅं या हमारे प्यार में कभी कोई कमी पाई है?पिताजी भी तुम्हें बहुत प्यार करते हैं,बस इजहार नहीं कर पाते हैं। तुम्हें बताने के बाद से ही पश्चाताप की अग्नि में जल रहें हैं।हर एक पल तुम्हें खोने का डर उन्हें सता रहा है!गड़े मुर्दे मत उखाड़ो भाई।”

उस समय मेरी मनःस्थिति ऐसी थी कि मैं किसी की बात नहीं सुनना चाहता था,केवल अपने जन्मदाता के बारे में जानना चाहता था। मैंने एकाएक दीदी का हाथ अपने सर पर रखकर पूछा-“क्या सचमुच तुम्हें पता नहीं है?”

दीदी ने साफ शब्दों में इंकार कर दिया।दीदी द्वारा नाश्ता करने को कहने पर भी मैं रूका नहीं,सीधा दफ्तर आ गया। वहाॅं ऊपर से सामान्य बनने की कोशिश कर रहा था, परन्तु मेरे अंतर्मन में बवंडर उठ रहे थे,जो सच्चाई जानने को तड़प रहे थे।

अब मेरी ज़िन्दगी पूरी तरह से अलग दिशा में मुड़ चुकी थी।एक दो बार पिताजी से सच्चाई जानने की कोशिश भी की, परन्तु वे बताने से साफ मुकर गए। अब पिताजी हमेशा खामोश और सहमे से रहते,मानो मुझे सच्चाई बताकर उन्होंने बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो।अब मेरे प्रति उनका व्यवहार  नरम हो चला था।ऐसा महसूस हो रहा था मानो अपनी गलती का मन-ही-मन प्रायश्चित कर रहें हों। मैं उनकी ओर से बिल्कुल बेपरवाह हो गया था।मुझे अपना वजूद खोखला लग रहा था। मैं पहचानविहीन महसूस कर रहा था।मेरे दिलो-दिमाग में शून्यता भरती जा रही थी।पिताजी मूकदर्शक की भाॅंति मुझे मायूस देख रहे थे। मुझमें बदलाव की हवा देखकर उन्हें मुझे खोने का डर सता रहा था।मुझे उनकी कोई परवाह नहीं थी।एक दिन गुस्से में मैं घर छोड़कर जाने लगा। आखिरकार पिताजी ने हाथ पकड़कर मुझे रोक लिया और आत्मीयता के शीतल जल से मेरे अंदर की धधकती ज्वाला को शांत करने लगें। उन्होंने मेरे जन्म की सच्चाई बताते हुए कहा -” बेटा!तुम्हारी माॅं सुबह-सुबह टहलने जाती थी।एक दिन उसे झाड़ियों में तुम्हारे रोने की आवाज सुनाई दी। रोने की आवाज सुनकर बहुत लोग इकट्ठे हो गए, परन्तु किसी ने बच्चे की जिम्मेदारी नहीं ली, परन्तु तुम्हारी माॅं तुम्हें घर ले आई।इस बात पर आरंभ में मैं बहुत नाराज़ हुआ, परन्तु तुम्हारी मोहिनी सूरत देखकर मैं ज्यादा दिनों तक नाराज़ नहीं रह सका।हाॅं! कभी-कभी मैं तुझपर ज्यादा नाराज़ हो जाता था,जो नहीं होना चाहिए। मैंने तुम्हारे साथ जो कुछ ग़लत किया है,उसका मैं प्रायश्चित करुॅंगा।कृपया बेटा!इस उम्र में मुझे छोड़कर मत जाओ।मुझे प्रायश्चित का मौका दो।”

मैं भी पिताजी की बातों से विह्वल हो उठा।जन्म से तो यही मेरा घर है, अन्यत्र कहाॅं जाऊॅंगा? आखिरकार मेरे नंद और यशोदा का घर तो यही है! मैं भी पिता के प्रति किए हुए  दुर्व्यवहार के कारण उनके गले लग विलख उठा और कहा -“पिताजी!आपको छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊॅंगा।”

प्रायश्चित स्वरूप पिताजी की ऑंखों से ऑंसू की बूॅंदें ढ़ुलक पड़ी।

समाप्त।

लेखिका -डाॅ संजु झा (स्वरचित)

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