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प्रसाद –  जयसिंह भारद्वाज

स्वरचित: जयसिंह भारद्वाज, फतेहपुर (उ.प्र.)

फूलमती ताई कल शाम को ही लौटी हैं चारधाम की यात्रा करके। सुबह होते ही वे अड़ोस पड़ोस के घरों में प्रसाद भेजने के लिए पैकेट बनाने लगीं। पास ही नौ साल की छुटकी भी अपनी दादी अम्मा की सहायता कर रही थी।

– ए छुटकी! वो सफेद बैग तो उठा ला यहाँ पर।

– इसमें क्या है दादी जी?

बैग उठा कर दादीजी को देते हुए छुटकी ने पूछा।

– इसमें बादाम, अखरोट, पिस्ता और काजू हैं जो मैंने लौटते समय कानपुर से खरीदे थे।

– कानपुर से! पर मम्मी तो कह रही थीं कि आप चारधाम की यात्रा पर गयी हैं। क्या कानपुर में चारधाम है दादी जी?

बाल सुलभ जिज्ञासा सुनकर दादीजी अपना इक्कादुक्का दाँतों वाला पोपला मुँह खोल कर ठहाका लगाकर हँस पड़ी और बोली – “ना छुटकी। कानपुर में कोई तीर्थ नहीं है। लेकिन मन्दिरों-तीर्थों के पास से कौन लइया, खील, बताशे, फल आदि खरीद कर भार-स्वरूप लाये। इसलिए कानपुर में जब कुछ देर के लिए बस रुकी तो मैं झट से पड़ोस की पंसारी की दुकान से कुछ मेवे के पैकेट और मौली(कलावा) के छोटे छोटे बण्डल खरीद लायी। इन्हें ही तीर्थों का प्रसाद बताकर दे दूँगी सब घरों में। और सुन! मेवे का प्रसाद बाँटने से अड़ोस पड़ोस में मेरा बहुत मान भी बढ़ जाएगा। है न!”

-लेकिन दादीजी, लड्डूगोपाल जी के सामने तो आपके #दोहरे_चेहरे की पोल खुल चुकी है। क्या आपके ऐसा करने से भगवान जी की दृष्टि में भी आपका मान बढ़ेगा?

नन्हीं छुटकी की बात सुनकर प्रसाद के पैकेट बनाते बनाते फूलमती ताई के हाथ रुक गए। कुछ पल ठहर कर वे घर के मंदिर में जाकर बांकेबिहारी जी के सामने हाथ जोड़कर फूट फूट कर रोने लगीं।

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