शादी की तैयारियों से शोभा जी का घर गुलजार था।रंगोली से सजे आंगन में हँसी-ठिठोली का रंग बिखरा था। सोना की शादी को बस एक हफ्ता बचा था। शोभा जी अपनी बेटी को —ससुराल के तौर-तरीके, रिश्तों की मर्यादा और व्यवहार की बारीकियां समझा रही थीं।
एक दोपहर, जब घर में सिर्फ मां-बेटी थीं, बहू रिया भी कुछ काम से बाजार गयी थी। शोभा जी फुसफुसाते हुए बोलीं,
“देख सोना, मुझे तुमसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं, कल से मेहमान आ जाएंगे, तो बात न हो पाएगी।”
“कहिए मम्मी जी…” सोना ने उत्सुकता से कहा।
“बिटिया, तुम्हारी ससुराल में देवर, ननद सब हैं, उनसे जरा संभल , बचके रहना। जमाई जी को धीरे-धीरे विश्वास में ले लेना। वहां मैं तो रहूंगी नहीं।
शोभा जी की बात अभी पूरी भी नहीं हुयी थी कि बड़ी बेटी रीना अंदर से आ गई उसकी आँखों में थोड़ी नाराज़गी व दर्द था ।
“मम्मी, ये कैसी बातें सिखा रही हैं?”
“रीमा, तुम नहीं समझोगी।”
“नहीं मां ,अच्छे से समझती हूं। आपने मुझे भी यही पट्टी पढ़ाई थी। लेकिन मेरी सासू मां ने अगर मुझे धैर्य से न समझाया होता कि अपने विवेक को पहरेदार बनाकर चलो, तो मेरा जीवन कटुता से भर जाता।”
शोभा जी चुप रहीं। रीमा फिर बोली—
“मां, सोना को सबके साथ मिलकर रहना सिखाइए। रिया भाभी की माँ ने भी यही सब सिखाया होता तो हम सब का क्या होता ?”
“एक बार कल्पना कर देखिए क्योंकि वे हम सब का कितना ख्याल रखतीं हैं और भैया??
अपने बेटे की कल्पना मात्र से वे सिहर गयीं
“ठीक ही कहा रीना ने , सोना!अपने विवेक से चलना—समझदारी और प्रेम से। यही असली पट्टी है।”
और उस दिन ‘पट्टी पढ़ानी’ को एक नया अर्थ मिला— डर से नहीं, प्रेम और विवेक से जीने की सीख।
स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी
‘अनाम अपराजिता’
अहमदाबाद
कहानी प्रतियोगिता मुहावरा #पट्टी पढ़ाना (बुरी राय देना)