पत्नी तो में पहले ही बन गई थी पर बहु ओर भाभी आज बनी हूँ – दीपा माथुर : Moral Stories in Hindi

प्रेशर कुकर की सीटी लगातार बज रही थी… 1…2…3…5… फिर अचानक दो बार और…

जैसे बिन मतलब की हड़बड़ी हो, बेमन की दिनचर्या।

रसोई में हल्की-सी हल्दी और धनिया की खुशबू तैर रही थी, पर मनाली की आँखें रसोई की खिड़की से बाहर, सूनी सी सड़कों पर अटकी थीं।

उसकी उँगलियाँ आटे से लथपथ थीं, पर मन कहीं और उलझा हुआ था।

“क्या सोच रही है मनाली?”

पीछे से मम्मी जी की आवाज़ आई।

मनाली ने बिना पलटे जवाब दिया —

“कुछ नहीं… बस, थोड़ा सिर दर्द है।”

झूठ था।

सिर नहीं, दिल भारी था।

उसके भीतर ग्लानि की चुपचाप जलती आग थी।

“मैं कैसे माँ-पापा और दी… नहीं, भाभी जी… से नज़रें मिलाऊँगी?”

शादी को तीन साल हो चुके थे।

वैभव, उसका पति — समझदार, स्नेही — उसके लिए सब कुछ था।

फिर पीयूष की गोद में आने से उसकी दुनिया और सिमट गई।

पर शायद उसी के साथ उसका मन भी संकीर्ण हो गया।

सास-ससुर से वह तटस्थ थी। ननद से तो जैसे दिखावटी हँसी तक नहीं होती।

सीधे मुंह बात भी नहीं करती थी।

“कौन सुनेगा मेरी बात? किसे परवाह है मेरी?” — ये सोच हर रिश्ते के बीच दीवार बन गई थी।

उसकी माँ और भाभियों ने शादी से पहले ही तैयार किया था —

“सास-ननद के साथ दूरी बनाकर चलना। बहुत घुल-मिल गई तो चढ़ जाएंगी सिर पर।”

मनाली ने यही किया।

हर काम किया, लेकिन चेहरे पर तटस्थता रही — न मुस्कान, न अपनापन।

पर फिर वो दिन आया…

पूर्णिमा की सुबह थी।

अन्वी — उसकी ननद — हर माह की तरह वृद्धाश्रम गई थी।

घर लौटी तो चेहरे पर एक स्याह सन्नाटा था।

आँखों में आंसू छलक रहे थे, हाथ काँप रहे थे।

मनाली ने पूछा —

“क्या हुआ?”

अन्वी ने धीमे स्वर में जवाब दिया —

“भाभी… वहाँ… वहाँ आपके मम्मी-पापा मिले…”

“क्या??”

मनाली के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।

“हाँ… आपके भाई उन्हें वहाँ छोड़ आए हैं। बहुत दुखी थे… मम्मी रो रही थीं… पापा चुप थे लेकिन आँखें बोल रही थीं…”

अगले ही पल मनाली वृद्धाश्रम पहुँची।

वहाँ… बरामदे के एक कोने में, एक टूटी कुर्सी पर उसके पापा बैठे थे — ग़लत साइज की चप्पल पहने, सिर झुका हुआ।

माँ सामने ज़मीन पर बैठी, चुपचाप खिड़की से बाहर देख रही थीं।

“माँ…”

मनाली फूट पड़ी।

माँ ने उसकी तरफ देखा, पर चौंकी नहीं।

सिर्फ एक लंबी साँस ली।

“बेटी…”

पापा की आवाज़ में कंपन था।

“तू खुश है न?”

मनाली बस माँ के पास जाकर ज़मीन पर बैठ गई।

माँ का हाथ अपने माथे से लगाया और फफक पड़ी।

उस रात घर लौटकर उसने खुद को आईने में देखा।

आँखें सूजी हुई थीं, लेकिन कुछ और भी दिख रहा था — एक बोझ, जो अब उतर चुका था…

उसने फैसला लिया — माँ-पापा को पास ही एक अच्छा कमरा दिलवाया जाएगा।

वो अकेले नहीं रहेंगे।

अन्वी ने भी मदद की —

“भाभी, मुझे गर्व है कि आप आज भी बेटी हो… सिर्फ बहु नहीं।”

अब हर हफ्ते, मनाली माँ-पापा से मिलने जाती।

पीयूष को गोद में उठाकर कहानियाँ सुनाती, माँ के लिए चूड़ी लाती, पापा के लिए गर्म टोपी बुनती।

धीरे-धीरे, उसका दिल भी बुनता गया — एक नया रिश्ता… स्नेह से।

एक दिन रसोई में सासू माँ मुस्कराते हुए बोलीं —

“आजकल तेरी सब्ज़ी में प्यार आ गया है…”

मनाली हँसी —

“शायद इसीलिए कुकर अब पाँच के बाद छठी सीटी भी बजाने लगा है।”

पापा जी बोले —

“बिटिया अब इस घर की रौनक लगती है।”

मनाली ने मुस्कराकर कहा —

“पत्नी तो बन गई थी शादी के दिन… पर बहु और भाभी बनने का अर्थ अब समझ में आया है। और बेटी? वो तो कभी गई ही नहीं थी।”

फिर धीमे से बोली —

“मैंने ‘The Secret’ में पढ़ा था — ‘हम जैसा सोचते हैं, वैसी ही हमारी दुनिया बनती है।’

मैंने सोच बदली, तो दुनिया भी बदलने लगी।”

दीपा माथुर

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