पत्नी से बहू तक का सफर – डा० विजय लक्ष्मी : Moral Stories in Hindi

शालिनी के हाथ की थाली का , आरती का जलता दिया ,आंखों की अश्रु बूंद से धुंधला हो रहा था। घर में रौनक भरी हँसी-ठिठोली गूंज रही थी, आज छोटे बेटे अर्जन की दुल्हन ब्याह कर आ रही थी। हर चेहरे से खुशी छलक रही थी, पर शालिनी का मन भीतर  सिसक रहा था।

उसका मन अतीत की यादों में भटकने लगा जहाँ उसकी विदाई के समय कोई खुशी नहीं थी, कोई दरवाज़े पर आरती लेकर परछन को नहीं खड़ा था। उसकी शादी पाँच साल पहले इसी घर के बड़े बेटे अमन से हुई थी—अमन और शालिनी एक-दूसरे को पसंद करते थे, और दोनों परिवारों की स्वीकृति से हुयी थी। पर शादी होते ही शालिनी ने महसूस किया कि इस घर में उसकी पहचान केवल अमन की पत्नी तक सीमित है।

सासू माँ को उसका नौकरी करना कभी पसंद नहीं आया। उन्हें लगता था बहू को  —शांत, घरेलू, और परंपराओं से बंधी होना चाहिए। शालिनी की आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास उन्हें खटकते थे।

शालिनी अब तक अपनी गलती समझ नहीं सकी थी।

“शादी तो सबकी स्वीकृति से हुयी थी फिर भी मेरे लिए अपनापन क्यों नहीं?”

  “बहू” और भाभी का सम्बोधन सुनने को उसके कान तरस गये । देवर अर्जन भी उससे कुछ दूर-दूर ही रहते थे—जैसे  रिश्तों के बीच दीवार हो।

शालिनी ने हार नहीं मानी। वे सुबह सबसे पहले उठ, सासू माँ की दवा देती, ससुर जी की चाय बनाती, रसोई का पूरा काम अकेले संभालती। त्योहारों पर घर को सजाती, और शाम को अमन के साथ बाहर निकलने से पहले सासू माँ की आज्ञा भी लेती—भले ही अमन के पूंछने पर ही परमीशन मिलती। 

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वक्त बीतता गया, 

आज स्वरा के आने पर, सासू माँ की बात बार-बार कानों में गूंज रही थी,…“पाँच साल पहले जब तू आई थी, वे वक़्त अलग था …शालिनी, तुम स्वरा की आरती उतार अंदर ले आओ, और स्वरा को रसोई भी समझा देना। हां थक गयी होगी उसका ध्यान रखना।अब तुम घर की बड़ी बहू हो। 

शालिनी की आँखें कुछ पल के लिए भर आईं।  बहू माना किसने उसे? जो सालों से सिर्फ एक एहसास था इस घर के बेटे की पत्नी होने का ?

शालिनी ठिठक गई। पाँच सालों में पहली बार उसे “बड़ी बहू” कहा गया था। 

“भाभी…?”

एक मधुर आवाज़ ने शालिनी की सोच की डोर तोड़ी।

नई दुल्हन स्वरा, लाल जोड़े में लिपटी, मुस्कुराती उसे देख रही थी।

“आपसे बहुत कुछ सीख, आप जैसी बहू बन सकूं, यही कोशिश रहेगी । घर के सभी आपकी बहुत प्रशंसा करते हैं । ये तो आपके फैन हैं “।  

शालिनी भरे गले से उसके सिर पर हाथ रख मुस्कुरा दी।

“बहू बनना सीखने की नहीं, निभाने की बात है। 

उस दिन शालिनी को पहली बार  बहू होने का एहसास हुआ था—क्योंकि अब वे सिर्फ दीवारों से नहीं , रिश्तों से जुड़ी थी। 

उस दिन शालिनी ने महसूस किया कि पत्नी तो वह शादी के दिन ही बन गई थी, लेकिन बहू और भाभी उसकी सालों की मेहनत और सहनशीलता ने उसे आज बनाया।

                          स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी

                               ‘अनाम अपराजिता’

                               ‌‌‌‌    अहमदाबाद

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