परिवार का महत्व  – पुष्पा जोशी

घर की बालकनी में बैठी दीपा जी अपनी सूनी उदास धंसी हुई ऑंखों से कभी आसमान की ओर देख रही है, तो कभी उनके नये आए किराएदार के परिवार को देख रही है.ऑंखों के नीचे स्याह झाई पढ़़  गई है,चेहरे और हाथ पैर पर झुर्रियाँ, बालों की सफेदी उम्र को दर्शा रही है, चेहरे की भाव भंगिमा अपनी अलग ही कहानी कह रही है.जीवन की सांध्य बेला में वे एकाकी है और सोच रही है कि मैंने अपने  व्यवहार से जीवन में क्या खोया? और क्या पाया?हर बार खोने वाला पलड़ा भारी हो जाता ऑंखें छल-छला जाती .वे कभी अपनी गलतियों पर पछताती तो कभी आसमान की ओर देखकर हाथ जोड़कर ऑंखें मूंद लेती, इसमें उस परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना का भाव होता.पड़ोस में से आती आवाजें उनका ध्यान खींचती और वे उस ओर देखने लगती.

     दो दिन बाद दीपावली थी, बहू द्वार पर रंगोली बना रही थी और सासू माँ पास में बैठी देख रही थी, कभी  कोई रंग उन्हें अच्छा नहीं लगता तो बहू से कहती, मीना इसकी जगह वो रंग भर कर देख, मीना भी सासूजी की बात का मान रखती. रंगोली बनाने के बाद बहू ने सासू जी से कहा ‘मम्मी जी मैंने पूजा के सामान की सूची बनाई है, एकबार देखकर बताना कहीं कुछ रह तो नहीं गया.’  ‘क्या बहू तू भी, इतने साल हो गए अब तो तू सब सीख  गई है,मुझे तुझपर विश्वास है मुझे नहीं देखना.’  ‘फिर  भी मम्मी जी एक बार देखलो मुझे अच्छा लगता है’. ‘तू बहुत जिद्दी है ला बता.’




बहू अन्दर  सूची लेने गई और कुछ याद कर दीपा जी की ऑंखें फिर नम हो गई. ऐसी ही तो थी उसकी सास, बहुत प्यार भी करती थी.बस थोड़ा सा सम्मान चाहती थी, कभी-कभी अपनी राय देती थी और मुझे वो नश्तर की तरह चुभती थी, मेरा क्या बिगड़ जाता अगर मैंने उनकी बातों का मान रख लिया होता? उन्हें हर समय जली कटि सुनाने के बजाय उनका आदर किया होता. मैंने अपने स्वभाव से हरे-भरे वृक्ष की डाली को काट दिया.और वह डाली आज मैं ही  हूँ.कोई नहीं है मेरे साथ.सास ससुर का स्वामित्व, उनकी टोकाटोकी मुझे पसंद नहीं आती और लड़ झगड़ कर उनसे अलग हो गई. महेन्द्र ने कभी नहीं चाहा था माँ-पापा  से अलग हो, मगर रोज रोज के कलह से परेशान हो, सास ससुर ने महेन्द्र से कहा कि ‘बेटा बहू को लेकर तुम अलग चले जाओ.बच्चे छोटे थे दादा दादी को छोड़कर जाना नहीं चाहते थे. मगर मेरी जिद….. महेन्द्र और बच्चे अपने घर जाते आते रहते.महेन्द्र अपने माता पिता का पूरा ध्यान रखते मगर मैं न जाने किस मिट्टी की बनी थी.

सास ससुर का देहांत हो गया. कहते हैं ना  कि माता कभी कुमाता नहीं होती मुझ दुष्टा को उन्होंने बेटी माना था, और अच्छे आशीर्वाद ही दिए.एक बार फिर पूरा परिवार बना.बेटे की शादी हो गई, बहू भी बहुत संस्कारी मिली.बहू रूही के आने से घर में रौनक आ गई. मगर मेरी आदतों के कारण घर फिर बिखर गया, मैं बात-बात पर बहू को टोकती मगर वह हॅंसकर टाल देती.घर में नन्हें पोते की किलकारी भी गूंजी.और घर में किसी तरह की कमी नहीं थी.वह दीपावली के चार पॉंच दिन पहले की ही बात है बहू घर की साफ सफाई में व्यस्त थी और नन्हा मोनू जो ३ साल का था  खेलते-खेलते सीढ़ियों पर से गिर गया.मै समय की नजाकत को नहीं समझी और बहू पर बरस पढ़ी.बहू अपने बेटे मोनू के गिरने से पहले ही परेशान थी, माँ थी उसकी . गुस्से और परेशानी में उसने भी मुझे कुछ कह दिया और मुझ अहंकार की मूरत में सहनशक्ति तो थी नहीं, मैंने न समय विचारा और न परिस्थिति उन्हें घर से निकल जाने के लिए कह दिया.मोनू को डॉक्टर को दिखाया चोट गहरी नहीं थी वह जल्दी ही अच्छा हो गया.उसके घर आने पर बहू ने माफी मांगी.मगर मैंने जिद पकड़ ली थी और दीपावली के दो दिन पहले बेटा बहू को घर छोड़कर जाना पड़ा.उनके जाने से महेन्द्र अन्दर से बिल्कुल टूट चुके थे, वे उनसे मिलने जाते, बच्चे उन्हें पूरा सम्मान देते.पिछले वर्ष जब महेन्द्र बिमार पढ़े तो बेटा बहू दोनों ने अस्पताल में उनकी पूरी देखभाल की और आठ दिन बाद जब वे स्वस्थ हो गए. तब उन्हें घर पर छोड़कर गए. अब तो पति का साथ भी छूट गया पिछले वर्ष उनका देहांत हो गया.अकेली रह गई .जीवन में महेन्द्र ने मेरे कारण कितने दु:ख के थपेड़े खाए, मगर मेरा साथ नहीं छोड़ा, संस्कारी थे . विवाह के समय जो वचन दिए उन्होंने उसे निभाया.साथ ही और सारे रिश्ते भी बहुत अच्छी तरह निभाए.आज वे नहीं हैं मगर मेरी सुख सुविधा के सारे सामान जुटाकर, मेरी देखरेख के लिए एक सेविका की व्यवस्था भी करके गए. मैं ही अभागी थी जो उनकी भावनाओं को समझ ही नहीं पाई.मैंने अपने सुन्दर संसार में स्वयं आग लगाई है, किसे दोष दूं? आज उनका मन बहुत भारी हो गया था,ऑंसू रूकने का नाम नहीं ले रहै थे.उनका सारा अहंकार चूर-चूर होकर ऑंखों के रास्ते बह गया था.आज उन्हें अगर किसी से शिकायत थी तो अपने आप से, आज उन्हें परिवार का महत्व समझ में आ रहा था.कहीं रेडियो में विविध भारती पर यह गाना बज रहा था सबकुछ लुटा के रोशनी आए तो क्या किया…..ऑंसुओं के बहने से मन कुछ हल्का हुआ.उनका ध्यान टूटा जब बहू मीना ने आकर उनके पैर छूए और कहा -‘ अम्माजी  आज शाम को घर पर कथा है आप जरूर आना.’




पता नहीं कैसे दीपा जी के मुख से निकला ‘बेटा मैं जरूर आती मगर आज मुझे अपने बेटे के यहाँ जाना है’ मीना उसके घर चली गई, और अपने मुंह से अनायास निकले इन शब्दों को दीपा जी ने ईश्वर का संकेत समझा.बस उन्होंने मन बना लिया कि वे अपने बेटे के यहाँ जाकर दोनों से मॉफी मांगेगी.अगर उन्होंने मन से अपनाया तो साथ रहेगी, नहीं अपनाया तो……. तो भी मन से कुछ बोझ तो कम होगा.उन्होंने रिक्षा मंगाया और चल दी अपने बेटे के घर की ओर

क्या बेटे बहू को अपनी माँ की गलती भुलाकर उन्हें अपना लेना चाहिए? या फिर…

मुझे तो लगता है जब माँ अपने अहं को भुलाकर बेटे बहू के पास गई है तो उन्हें जीवन की सांद्य बेला में परिवार का सुख मिलना चाहिए.

निर्णय आप सब पर छोड़ती हूँ, कृपया मेरा मार्गदर्शन करे आपकी प्रतिक्रिया का इन्तजार है.

 #परिवार

प्रेषक-

पुष्पा जोशी

स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

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