निर्णय – निभा राजीव”निर्वी” : Moral Stories in Hindi

श्रद्धा दृष्टि झुकाए मेज पर पड़े प्लेट में खाने से चम्मच से जैसे खेल भर रही थी। वह ऊपर से शांत थी परंतु अंतस में जैसे कोलाहल मचा हुआ था। झुकी दृष्टि से भी सम्मुख बैठे अजय की गहरी दृष्टि जैसे उसे अंतर को भेदती हुई प्रतीत हो रही थी।

 अजय ने फिर एक-एक शब्द पर बल देते हुए पूछा, -“तो यह तुम्हारा अंतिम निर्णय है श्रद्धा??”

     श्रद्धा ने बड़ी कठिनता से अपनी दृष्टि उठाकर अजय की ओर देखा फिर जैसे अंदर की पूरी शक्ति समेट कर दृढ़ता से कहा, -” हां अजय, यह मेरा अंतिम निर्णय है। मैं यह विवाह नहीं कर सकती। मुझे भी बुरा लग रहा है यह निर्णय लेते हुए परंतु अभी की परिस्थिति में यह आवश्यक है।मां पापा के जाने के बाद नितिन का दायित्व अब मुझ पर है। आपको मुझसे भी अच्छी बहुत सारी लड़कियां मिल जाएंगी।”

अजय की दृष्टि अचानक कातर हो उठी, -“लेकिन तुम तो जानती हो न श्रद्धा, कि मैं कितना प्रेम करता हूं तुमसे! हम विवाह कर लेते हैं तुम उसके बाद भी चाहो तो नितिन हमारे साथ रहेगा और तुम उसकी देखभाल करती रहना।”

श्रद्धा ने रूंधते जा रहे गले को साफ किया और बोली, -“मुझे मालूम है अजय कि बहुत प्रेम करते हैं मुझसे आप और शायद आपके जितना प्रेम मुझे कोई और कर भी नहीं सकता। और मेरा भी हृदय आपका था और सदैव आपका ही रहेगा ।परंतु फिर भी यही कहूंगी कि मैं यह विवाह नहीं करना चाहती क्योंकि यह मेरे स्वाभिमान और आत्मसम्मान का भी प्रश्न है। मैं सहज नहीं रह पाऊंगी। आशा करती हूं कि आप मेरी बात को समझेंगे।मुझे मेरा कर्तव्य निभाने में सहयोग करें।… अब चलें??” श्रद्धा ने जैसे एक तरह से बात को समाप्त करने का संकेत दे दिया।

“हम्म”.. कहते हुए अजय भी उठ हारा हुआ सा खड़ा हुआ। और दोनों रेस्तरां से बाहर आ गए।

              श्रद्धा और उसे 8 वर्ष छोटा भाई नितिन और उनके मां पापा का छोटा हंसता खेलता हुआ था परिवार था। श्रद्धा की पढ़ाई समाप्त होने के बाद अभी-अभी उसकी एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी लगी थी। कॉलेज के समय से ही वह अजय को पसंद करती थी जो की उससे 2 वर्ष सीनियर था। एक वाद विवाद प्रतियोगिता के दौरान दोनों कोई दूसरे से मिलने का अवसर मिला और दोनों ही एक दूसरे के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और धीरे-धीरे एक दूसरे को पसंद करते-करते कब एक दूसरे के प्रेम में आकंठ डूब गए, दोनों को पता भी नहीं चला। पढ़ाई समाप्त होने के बाद अजय भी एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर आसीन हो गया। और जब श्रद्धा की भी नौकरी लग गई तब अजय सम्मानपूर्वक अपने माता-पिता के साथ श्रद्धा के घर उसका हाथ मांगने आया श्रद्धा के माता-पिता भी अजय के माता-पिता और अजय के सुसंस्कृत और सभ्य व्यवहार से बहुत प्रभावित हुए। अच्छा सुखी संपन्न परिवार था अजय का। अजय के माता-पिता को भी श्रद्धा पहले ही दृष्टि में भा गई और इस तरह से उन दोनों का संबंध पक्का हो गया। 

            विवाह की तैयारियां दोनों ओर से प्रारंभ हो गईं। परंतु अचानक इस हंसी खुशी के वातावरण पर काल की ऐसी कुदृष्टि पड़ी कि सब कुछ तहस-नहस हो गया। एक सड़क दुर्घटना में श्रद्धा के माता-पिता का अकस्मात निधन हो गया। एक क्षण में जैसे पूरी दुनिया बदल गई। श्रद्धा और नितिन के ऊपर विपदाओं का जैसे पहाड़ टूट पड़ा। क्रिया कर्म के बाद शीघ्र ही सभी रिश्तेदार भी चले गए। नितिन का दायित्व पूर्णत: श्रद्धा के ऊपर आ गया। नितिन की विद्यालयीन शिक्षा अभी समाप्त नहीं हुई थी। परिस्थितियों को देखते हुए श्रद्धा ने कठोर निर्णय लिया कि वह अपना पूरा ध्यान नितिन के ऊपर देगी। उसे पढ़ा लिखा कर एक योग्य व्यक्तित्व बनाएगी। और अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने के लिए वह अजय से अपना संबंध तोड़ देगी। 

                  इसीलिए आज उसने अजय को रेस्तरां में बुलाया था और अपनी सारी परिस्थितियां समझाते हुए अपनी बात भी उसके समक्ष रख दी। उसकी बात सुनकर अजय बिल्कुल टूट सा गया परंतु फिर भी उसने श्रद्धा की भावनाओं का सम्मान किया और दोनों अपनी-अपनी राह पर पृथक हो गए। अजय इन स्मृतियों से विमुख होने के लिए स्थानांतरण लेकर यह शहर ही छोड़कर कहीं और चला गया। जीवन की नैया आगे की ओर बढ़ चली। श्रद्धा अपनी नौकरी के साथ-साथ नितिन की सभी आवश्यकताओं और पढ़ाई लिखाई का भी पूरा ध्यान रखती। कहते हैं बड़ी बहन मां के समान हो जाती है।श्रद्धा ने मातृवत स्नेह रखते हुए नितिन का पालन पोषण किया।

                उस दिन श्रद्धा के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा जिस दिन अजय के उच्च पदाधिकारी बनने का नियुक्ति पत्र आया। जैसे लगा कि अब दुखों के बादल छंट गए और अब खुशियां ही खुशियां बिखर गईं चारों ओर। नितिन ने श्रद्धा से कहा कि अब वह अपनी नौकरी छोड़ दे और अब घर में आराम करे। परंतु श्रद्धा ने हंसकर मना कर दिया।

,-“अरे तू भी ऑफिस चला जाएगा फिर मैं क्या करती रहूंगी! थोड़ा मेरा भी तो मन लगना चाहिए! मैं नहीं छोड़ने वाली यह नौकरी! जब सेवानिवृत हो जाऊंगी ना, तो तू खिलाता रहना बैठा कर!” श्रद्धा आह्लाद से हंस पड़ी।

               शीघ्र ही नितिन एक दिन अपने साथ अपनी सहकर्मी स्वाति को उससे मिलने घर लाया। उन दोनों की दृष्टि से ही श्रद्धा समझ गई कि यह दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं दोनों परिवारों के बीच बातचीत हुई और शीघ्र ही धूमधाम से नितिन का विवाह स्वाति से संपन्न हो गया। 

                 स्वाति दुल्हन बनाकर घर आ गई और जीवन पुनः व्यवस्थित सा होने लगा। लेकिन धीरे-धीरे श्रद्धा को थोड़ा-थोड़ा अनुभव होने लगा, जैसे उसकी उपस्थिति से स्वाति असहज रहती है। और उसका यह व्यवहार धीरे-धीरे उपेक्षा में परिणत होने लगा। श्रद्धा सब कुछ देख समझ रही थी परंतु चुप ही रहती थी ताकि घर की शांति बनी रहे। धीरे धीरे नितिन भी खिंचा खिंचा रहने लगा।

श्रद्धा समझ रही थी कि स्वाति ही नितिन के दिमाग में उल्टी सीधी बातें भर रही है लेकिन फिर भी उसने कभी कुछ नहीं कहा।  

            स्वाति हर बात पर उससे झिड़क कर बात करने लगी। बात-बात पर नीचा दिखाती और एहसान जताती। यहां तक कि अब उसे चाय नाश्ता भी समय पर नहीं मिल पाता। यदि कभी स्वयं रसोई में जाने का प्रयास भी करती तो स्वाति तुरंत वहां पहुंच जाती , -“दीदी, आप रसोई में मत आया करो। जो भी चाहिए मुझे मांग लिया करो। पूरी रसोई बिखर सी जाती है। और नितिन को भी मेरे हाथ का ही खाने की आदत है तो आप इन सब से दूर ही रहो। आप भी आराम से रहो और हमें भी रहने दो।” श्रद्धा की आंखें भर आतीं …कल तक तो नितिन उसके ही हाथ का खाना खाकर निहाल रहता था। पता ही नहीं चला कि कब उसकी पसंद इतनी बदल गई कि उसकी उपस्थिति से उसकी गृहस्थी बिखरने लगी है। 

             आए दिन दोनों घूमने चले जाते और स्वाति कुछ रुखा सूखा सा बनाकर उसके लिए रख जाती। श्रद्धा स्वयं को बहुत ही उपेक्षित और तिरस्कृत अनुभव करती.. किंतु चुपचाप सब सहन कर रही थी। उसका वेतन आते ही स्वाति घर खर्च के नाम पर ले लेती थी, वह भी एक कटु ताने के साथ कि -“आप तो भाई के घर में रह ही रही हो… सौ तरह के खर्च हो रहे हैं…” और नितिन के वेतन का बड़ा हिस्सा वह स्वयं के मौज मस्ती में उड़ा लेते।

              मन बहुत दुखी हो जाता तो अपनी सहकर्मी सहेली मंजुला से कुछ बातें साझा कर लेती। उसकी बातें सुन सुन कर कभी-कभी मंजुला क्रोधित हो जाती,-” तू क्यों यह सब बर्दाश्त करती है?? क्यों सहती है उसकी धौंस?? छोड़कर निकल जा वह घर.. बहुत जी लिया दूसरों के लिए अब अपने लिए भी जीना सीख….”

       “कैसे निकल जाऊं मंजुला! नितिन का मोह मेरे पैर बांध लेता है और फिर अकेली रहना भी इतना सरल नहीं है..” श्रद्धा कातर हो उठती। 

           श्रद्धा का जन्मदिन आने वाला था तो मंजुला उसके लिए एक बहुत प्यारा सा प्याजी रंग का बनारसी दुपट्टा लेकर आई। 

वह कहती रह गई कि वह यह सब नहीं पहनेगी, उसे सादगी से रहना पसंद है परंतु मंजुला ने हठ करके उसे थमा ही दिया।

               इस बार उसका जन्म दिवस संयोग से रविवार के दिन था। वह सुबह से प्रतीक्षा में थी कि नितिन कम से कम आज तो उसके पास आएगा और दो प्यार के बोल बोलेगा परंतु सब आशाएं धरी की धरी रह गईं। किसी को उसका जन्मदिन याद ही नहीं रहा। सुबह से दोपहर हो गई। सुबह स्वाति एक बार आकर थोड़े से मुरमुरे, दो बिस्कुट और चाय देकर गई थी नाश्ते के लिए। उसके बाद से दोनों आपस में ही मगन थे और छुट्टियों में घूमने जाने की तैयारी कर रहे थे, जिसमें स्पष्ट रूप से श्रद्धा के लिए कोई स्थान नहीं था। आज श्रद्धा को मां पापा की बहुत याद आई वह अपना कमरा बंद किया बहुत देर तक रोती रही। फिर अचानक मंजुला का फोन आया वैसे तो उसने पहले ही शुभकामनाएं दे दी थी परंतु अभी उसने पुन: कॉल किया। श्रद्धा को हो या ना हो मंजुला को अंदाज़ा था कि ऐसा ही कुछ होने वाला है घर में।… फोन उठाते ही उधर से मंजुला की चहकती हुई आवाज़ आई,-” क्या कर रही है ?”

“कुछ नहीं… अभी थोड़ी देर में शायद कुछ हो..” श्रद्धा ने अपना स्वर यथासंभव संयत रखते हुए कहा।

” किसे धोखा दे रही है तू श्रद्धा! वह “थोड़ी देर बाद” कभी नहीं आने वाला है। चल जल्दी से तैयार हो जा और गैलेक्सी मॉल पहुंच। दोनों घूमने चलेंगे, मूवी देखेंगे और फिर कुछ खा पीकर ही लौटेंगे। और सुन नया वाला दुपट्टा ओढ़ कर आना..” मंजुला ने आदेशात्मक स्वर में कह कर फोन काट दिया।

           श्रद्धा को मंजुला से बात करके थोड़ा अच्छा लगा। उसे भी लगा कि थोड़ा बाहर घूम आएगी तो शायद अच्छा लगे।

वह जैसे ही तैयार होकर बैठक में पहुंची, कि अचानक स्वाति और नितिन की दृष्टि उसकी ओर उठ गई। स्वाति की दृष्टि में व्यंग्य उभर आया, -” यह क्या हो गया आपको दीदी! इस उम्र में इतना चटक दुपट्टा! अरे अपना नहीं तो भाई की प्रतिष्ठा का तो ध्यान रखिए! कुछ तो सोचिए …”

              अचानक श्रद्धा ने दृढ़ स्वर में कहा, – “सब कुछ सोच भी रही हूं और सब कुछ समझ भी रही हूं स्वाति !मैं बाहर जा रही हूं तुमलोग दरवाज़ा बंद कर लो। “

“ये कैसी बातें कर रही हो दीदी! स्वाति ठीक तो कह रही है!” नितिन ने भी तिलमिलाकर कहा।

              लेकिन तब तक श्रद्धा बाहर निकल चुकी थी। मॉल में मंजुला पहले से ही उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। दोनों काफी देर घूमते रहे छोटी-मोटी शॉपिंग भी की। एक अच्छी सी मूवी देखी और फिर खाना खाने एक रेस्तरां में प्रवेश कर गए। दोनों एक खाली मेज देखकर बैठ गईं और खाना ऑर्डर करने के बाद यूं ही बातें करने लगीं ।

         तभी किसी ने पीछे से पुकारा , -“श्रद्धा!”

           स्वर सुनते ही श्रद्धा स्तब्ध रह गई। यह स्वर कैसे विस्मृत हो सकता है! यही स्वर सुनकर तो कभी उसके हृदय में सैकड़ो घंटियां बजने लगती थीं। आज अजय यहां कैसे???

वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी बैठी रह गई। अजय अचानक सामने आकर खड़ा हो गया। उन दोनों का चेहरा देखकर ही मंजुला समझ गई कि यही अजय है। श्रद्धा ने उसे अजय के विषय में भी सब कुछ बता रखा था। 

       श्रद्धा ने अस्फुट स्वर में कहा, – “अरे अजय आप!”

मंजुला ने मुस्कुरा कर अजय का अभिवादन किया और चहकते हुए अपना परिचय स्वयं देते हुए उसकी और एक कुर्सी खिसकाई, -“मैं मंजुला! श्रद्धा की प्राण प्रिय सखी!”

       अजय के गंभीर चेहरे पर भी मुस्कुराहट आ गई। उसने भी उसका अभिवादन किया और कुर्सी पर बैठ गया। 

        अचानक मंजुला ने कहा, -” अरे मुझे अचानक याद आया! मुझे एक बहुत ही जरूरी कॉल करना है।आप दोनों बातें करें, मैं तुरंत आती हूं!”

           श्रद्धा समझ गई कि वह उसे अजय के साथ अकेला छोड़ने के लिए बहाना बनाकर निकल रही है लेकिन इससे पहले कि वह उसे रोकती, वह तीर की तरह उठकर विदा हो गई।

कुछ देर श्रद्धा और अजय के मध्य असहज सी शांति बनी रही, फिर गला साफ करते हुए अजय ने पूछा, -“कैसी हो श्रद्धा?”

-“ठीक हूं! आप यहां कैसे ??” बढ़ती धड़कनों पर नियंत्रण पाने का प्रयास करते हुए श्रद्धा ने उत्तर दिया और साथ ही हिचकिचाते हुए एक प्रश्न भी उनकी तरफ उछाल दिया,

-” आपकी पत्नी और बच्चे?”

कुछ पलों के लिए अजय बिल्कुल शांत रह गया। फिर उसकी आंखों में झांकते हुए गंभीर स्वर में कहा, – एक सेमिनार के सिलसिले में यहां आया था । 

    रही बात पत्नी और बच्चों की तो ..विवाह नहीं किया है मैंने! किसी की प्रतीक्षा में आज भी अकेला हूं!”

असहज हो उठी श्रद्धा! 

-” ऐसा क्यों किया अजय? क्यों अपने जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हो?”

  “मैं बातों को घुमा फिरा कर कहने में आज भी विश्वास नहीं रखता श्रद्धा! आज पुनः तुम्हारे समक्ष प्रस्ताव रख रहा हूं यदि तुम्हारा कर्तव्य पूरे हो गए हों तो मेरे हृदय का द्वार आज भी तुम्हारे लिए खुला है।”

श्रद्धा अन्यमनस्क हो उठी,-“कैसी बातें करते हैं अजय! अब इन बातों का समय बीत चुका है। अब हमारी उम्र नहीं रही इन सब बातों के लिए। इस आयु में यह सब शोभा नहीं देता।”

-“आयु मात्र एक अंक है श्रद्धा! प्रेम कभी वृद्ध नहीं होता। उसमें सदैव बचपन सी निश्छलता बनी रहती है। प्रेम के लिए कभी देर नहीं होती। मुझे कोई शीघ्रता नहीं है। तुम सोच समझ कर उत्तर देना। यह लो मेरा फोन नंबर!” अजय ने अपना नंबर लिखकर कागज का टुकड़ा उसकी और बढ़ाते हुए कहा।

           -” अजय जी बिल्कुल सही कह रहे हैं श्रद्धा! कब तक दूसरों के लिए जीती रहोगी… और दूसरों के लिए जी कर तुम्हें मिला ही क्या है अपमान और तिरस्कार के अतिरिक्त! अब सब कुछ भूल कर और सब कुछ पीछे छोड़कर अब स्वयं के लिए आगे बढ़ो श्रद्धा! और समाज के ठेकेदारों की तो बिल्कुल चिंता मत करो। यह होते ही है बातें बनाने के लिए। इन्होंने तुम्हारे लिए क्या किया जो तुम यह सोचो कि वो क्या सोचेंगे! यह जीवन तुम्हारा है और इसे अपने अनुसार जीने का अधिकार भी मात्र और मात्र तुम्हारा है। अजय जी को हां कर दो।” अचानक मंजुला ने आकर कहा। पता नहीं कहां से खड़ी होकर सारी बातें सुन रही थी।

     श्रद्धा झटके से उठ खड़ी हुई,,-” तू पागल हो गई है मंजुला!” और मंजुला और अजय को वही हतप्रभ छोड़कर वह दौड़ते हुए बाहर आ गई। विचारों के उद्वेग से उसके मन में जैसे बवंडर छिड़ा हुआ था। वह जैसे तैसे घर पहुंची कि दरवाज़े पर ही उसके पैर ठिठक गए। अंदर से स्वाति का व्यंग्यात्मक स्वर उभर कर बाहर तक आ रहा था। वह नितिन को सुनाते हुए कह रही थी,-” देख लो अपनी बहन की करतूतें! महारानी जी सज धज कर बाहर गुलछर्रे उड़ाने गई है और पता नहीं किसके साथ बाहर खाना भी खाया जा रहा है। वह तो भला हो मेरी सहेली का जो उसने उन्हें वहां देख लिया और मुझे फोन करके बता दिया। अब यही दिन देखना बाकी रह गया था। बुढ़ापे में उनके पंख उग आए हैं। हम यहां मर रहे हैं और इन्हें रंगरलियां ही मनाने से फुर्सत नहीं है… जाने कैसी आग लगी हुई है जिसे बुझाने के लिए इधर-उधर मुंह मार रही है!”

-“सचमुच कितना नीचे गिर गई है दीदी! मेरा तो मन करता है कि इन्हें बालों से पकड़कर इस घर से निकल बाहर…..”

नितिन का रोषपूर्ण स्वर उभरा।

इससे आगे श्रद्धा से सुना नहीं गया। वह भड़ाक से दरवाजा खोलकर अंदर घुसी और चीख पड़ी,-” बस करो तुमलोग! तुम लोगों ने इतने दिनों तक जो भी कहा जो भी किया मैंने सब कुछ सहा! पर यह अपमान और तिरस्कार कब तक! अब मैं और सहन नहीं कर सकती! और स्वाति तुम्हें क्या कहूं, तुम तो बाहर से आई हो.. पर यह नितिन.. मेरा भाई.. यह तो मेरा अपना था.. मेरी पूरी दुनिया था.. और इसे ही आज मैं कांटों के जैसी चुभ रही हूं। जानना चाहते हो कि मैं कहां थी और किसके साथ थी.. तो सुनो..”

श्रद्धा ने आद्योपरांत पूरा विवरण उन दोनों को कह सुनाया, और साथ ही एक निर्णय भी!

-” यह वही अजय है जिसके साथ मैंने अपनी मंगनी तोड़ डाली थी सिर्फ तुम्हारे लिए नितिन! वह आज भी मेरी प्रतीक्षा कर रहा है लेकिन आज भी केवल तुम्हारे लिए मैं उसका प्रस्ताव ठुकरा आई थी। लेकिन अब अनुभव हो रहा है कि यह मेरी भूल थी। अरे मैं जिसके लिए जीती रही और जिसके लिए प्राण देने को तैयार रही, आज वही मुझ पर लांछन लगा रहा है।

            मैं अभी और इसी समय अजय को फोन करके हां कर दूंगी और अब जीवन अपने लिए जियूंगी और अपनी शर्तों पर! और यह भी सुन लो कि कानूनन यह घर जितना तुम्हारा है, उतना ही मेरा भी है! इसलिए मेरा इस घर से जाने का तो सवाल ही नहीं उठता! मैं इसके बंटवारे की प्रक्रिया भी कल से शुरू करवाती हूं। और आज से तुम्हारी दुनिया अलग और मेरी दुनिया अलग!”

                आज नितिन और स्वाति ने एक अलग रूप ही देखा श्रद्धा का! स्वाभिमानी और सशक्त श्रद्धा दृढ़ कदमों से अपने कमरे की ओर बढ़ चुकी थी और अपने जीवन के नए शुभारंभ की नई कथा लिखने वाली थी। 

              नितिन और स्वाति ठगे से खड़े रह गए जिन्हें शायद ग्लानि से अधिक इस बात का अफसोस हो रहा था कि घर का आधा हिस्सा भी गया और श्रद्धा का वेतन भी हाथों से निकल गया।

निभा राजीव”निर्वी”

स्वरचित और मौलिक रचना

मुंद्रा, गुजरात

# तिरस्कार_कब_तक

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