टवनटी टवनटी वाला साल तो शायद कभी नहीं भूलेगा। जब से नया साल शुरू हुआ है, सबके मन में नई उंमगें हैं।
पिछले साल ने जो दु:ख दिए, जो जो नुकसान हुए उन सबकी भरपाई होना इतना आसान नहीं है, और कुछ ज़ख़्म ऐसे
भी मिले जो कभी नहीं भरेंगे , फिर भी कहते है न कि उम्मीद पे दुनिया है। बस तो इसी उम्मीद से इस बार नए
साल का स्वागत कुछ ज्यादा ही उत्साह से हो रहा है, परतुं करोना कि तलवार तो सिर पर अभी तक लटकी हुई है,
इसलिए कुछ भी प्रोग्राम बनाने से पहले ' एतिहयात' जरूरी है। 'अभिलाषा' सोसायटी में हर त्यौहार बड़ें ही जोश से
मनाया जाता था, लेकिन पिछले साल होली के बाद तो सब घरों में ही दुबक गए। हर जगह वीरानी छा गई। लाक
डाऊन भले ही खुल गया, मगर जिंदगी पहले की तरह पटरी पर आने का अभी कुछ पता नहीं। वैक्सीनेशेन पर भी
बहुत से प्रशनचिन्ह लगे हुए है।
लेकिन जब जिदां है तो ज़िंदा दिखना भी चाहिए। सोसायटी में तय हुआ कि नए साल को
मनाएँगे लेकिन कुछ अलग तरीके से। अपने अपने ब्लाक में ही डिस्टैंस मैनटेन करके खुशी मनाई जाए। एक ब्लाक में
आठ घर थे। ब्लाक नं सात वालों ने मिलकर फैसला किया कि सभी मिलकर दस बारह किलोमीटर दूर एक झील
किनारे जाऐगें, बहुत ही अच्छी हरी भरी जगह है, साथ में एक छोटा सा पार्क भी है । तय हुआ कि सभी अपने अपने
घर से कुछ न कुछ बना कर लाऐगें। शर्मा जी के बेटे ने जब यह सुना तो उसने बुरा सा मुँह बनाया और साथ चलने
से इन्कार कर दिया। उधर गोयल साहब की बेटी को भी ये सब नहीं जँचा । साहनी साहब के बेटे ने तो मुहं पर ही
कह दिया कि उसे नहीं जाना बुढ्ढों के साथ। यूं समझो कि छोटे बच्चे ही खुश थे। बड़े कालिज पढ़ते बच्चे तो इस नए
साल की पिकनिक में चलने को क़तई राजी नहीं थे। वो नहीं चाहते थे कि बाहर जाकर भी वही घर की दाल, रोटी,
खीर खाई जाए। फ़ास्ट फ़ूड के जमाने में युवा लोग तो पास्ता, नूडल्स, मोमोज और न जाने क्या अजीब से नामों वाली
डिशिज खाना पंसद करते है।घर का हैल्दी खाना छोड़कर बाहर खाना ही भाता है आजकल के बच्चों को।
इस खुशी के मौक़े पर सबसे दु:खी थे शर्मा जी। इकलौता बेटा विभास, दिन बदिन हाथ से
निकलता ही जा रहा था। कुछ ज्यादा ही लाड़ प्यार मिला, उसका ही असर हुआ। पता नहीं क्यों उसका मिजाज ऐसा
हो गया जबकि शर्मा जी ने कभी भी उसकी नाजायज़ माँग को पूरा नहीं किया। उसे हर समय यही लगता कि घर वाले
बहुत टोकते है। ऐसे न करो, वहाँ न जाओ, रात देर तक बाहर नहीं रहना। पढाई में मन लगाओ, पाकिट मनी का
हिसाब माँगना, दोस्तों पर निगाह रखना। और भी बहुत सी बातें जो विभास को पंसद नहीं थी।जबकि सम्पन्न
परिवार और हर सुख सुविधा थी उसके पास, लेकिन बच्चे समझे, तब ना।
आख़िर मिसिज़ शर्मा ने किसी तरह बेटे को साथ चलने के लिए मना ही लिया। सभी के बच्चे
साथ जा रहे थे।सपरिवार जाने की ही बात हुई थी। तय हुआ था कि इस ब्लाक में रहने वाले आठों परिवार मिल कर
कुछ समय बिताएँगे तो जान पहचान भी बढ़ेगी। वरना तो इस भागमभाग में किसी के पास समय नहीं और उपर से
करोना। मिलना जुलना लगभग बंद ही था। कभी कोई सामने आ गया या लिफ़्ट में मिल गया तो हैलो- हाय हो गई
वरना किसी को किसी से मतलब नहीं । आपस में मिल बैठे भी काफी समय हो गया था। नए साल के साथ साथ
जनवरी में लोहड़ी , मकरसक्रांति, और छब्बीस जनवरी भी तो होती है। घरों में कैसे कैसे ड्रामे हुए किसी को पता नहीं,
लेकिन सभी परिवार नियत दिन और समय पर निशचित स्थान पर पहुँच गए। खाने पीने का सामान देख कर सब दंग
रह गए। चाय काफी से लेकर बर्गर , पिज़्ज़ा , नूडल्स । कई प्रकार की सबजियां, चावल, रायता, स्नैकस, डेज़र्ट , फल,
और बच्चों के मनपंसद चाकलेटस। सभी औरतों ने एक अलग से मीटिगं करके ही तो ये मेन्यू तैयार किया था, जिसमें
सब की पंसद का ध्यान रखा गया ।
सभी ने पहले मिलजुल कर नाश्ता किया, फिर गपशप शुरू हो गई। धूप भी
खूब निकली हुई थी। सर्दी के मौसम में सूर्य देवता मेहरबान हो जाए तो क्या कहने। सभी हमउमरों के अपने अपने
गरूप बन गए। शर्मा जी का बेटा विभास, और साहनी जी का बेटा साकेत लगभग एक ही उम्र के थे। गोयल साहब की
बेटी प्रीति अपने साथ अपनी सहेली रिया को ले आई थी ताकि कंपनी बनी रहे। बाकी बच्चे इनसे छोटे थे लेकिन सेठी
जी की भतीजी इरा लखनऊ से आई हुई थी, सो वो भी साथ आ गई। तय हुआ कि अभी बातें वातें करते है, लंच के
बाद कुछ नाचने गाने , मनोरंजन का प्रोग्राम होगा। बच्चों की अपनी टोली बन गई, औरतें अपनी बातों में मगन। तीन
चार पुरूष ताश लेकर बैठ गए तो बाकी आसपास घूमने निकल गए। सिरफ विभास,साकेत, प्रीति, रिया, इरा ही चुपचाप
बैठी थी। प्रीति और रिया तो पुरानी सहेलियाँ थी, उन्होनें इरा को भी ' हाय' बोल कर अपने पास बुला लिया। देखा
जाए तो इरा तो मेहमान थी, अब रह गए विभास और साकेत। एक सोसायटी तो क्या एक ब्लाक में रह कर भी वो
कभी नहीं मिले। दरअसल साकेत का परिवार कुछ महीने पहले ही आया था, तभी करोना का प्रकोप शुरू हो गया। नए
लोगो से मिलना तो दूर की बात,जानकारों में ही दूरियां आ गई।
वैसे भी इन दोनों का मूड तो घर से ही ठीक नहीं था, ख़ास तौर पर
विभास का।बोर होते हुए विभास को और कुछ नहीं सूझा तो वह अपना मोबाईल लेकर बैठ गया, लेकिन यह क्या,
बैटरी लगभग खत्म ही होने वाली थी, और चार्जर भी नहीं। अब माँगे भी किससे, अभी तक किसी से बात तक तो की
नहीं थी। साकेत देख रहा था, उसने पास आकर अपना पावरबैक आफर किया, इत्तिफ़ाक़ से वो उसी कंपनी का था।
विभास का चेहरा खिल उठा । पहले भी तो लोग रहते ही थे मगर आज कल तो ऐसा लगता है जैसे मोबाईल के बिना
सांसे ही थम जाएगी। खाने को भले कम हो, मगर मोबाईल तो बढ़िया कंम्पनी का ही होना चाहिए। मोबाईल के बहाने
से ही दोनों में बातचीत शुरू हो गई। वैसे तो आज के माडर्न समय में लड़के लडकियों में दोस्ती होते देर नहीं लगती,
लेकिन अभी तक इन सब की बात नहीं हुई थी। नाश्ता किए लगभग दो घंटे हो चुके थे तो एक बार चाय काफी का
दौर तो चलना ही था। तीनों लडकियों ने सबको थरमस में लाई हुई चाय, काफी सर्व करने का ज़िम्मा उठाया। सबको
देने के बाद उन्होनें विभास और साकेत को जब कप थमाए तो थैंक्स कहते हुए दोनों ने ले लिए। तीनों लडकियां भी
वही पास पड़े हुए बैंच पर अपना अपना कप लेकर बैठ गई।
थोड़ी सी जानपहचान के बाद बातचीत का जो दौर शुरू हुआ तो ठहाकों तक
पहुँच गया। कालिज की, फ़िल्मों की, फ़ैशन की हर तरह की बात हुई। एक घंटे में इन सबके चेहरे ऐसे खिल गए जैसे
सुहानी सुबह में ओस की बूँदें। बच्चों के चेहरे पर खुशी देखकर माँ बाप भी खुश थे। विभास को हंसते बोलते देखकर
शर्मा जी ने तो जैसे मन ही मन चैन की साँस ली । लंच का माहौल तो इतना खुशनुमा था कि पूछो मत। सभी आपस
में घुलमिल चुके थे। कुछ लोगों का मन अब थोड़ा सुस्ताने का था, क्योकिं काफी थकान हो चुकी थी। लेकिन उन पाँचों
की टोली फिर जम गई। टहलने के साथ साथ बातें भी हो रही थी। परिवार की बातें शुरू हो गई। नई पुरानी पीढ़ी के
अंतराल की बात हुई। सबसे पहले विभास का मुँह खुला, यार पुराने लोग टोकते बहुत है, हर बात में दख़लअंदाज़ी ।माँ-
बाप समझते नहीं कि अब हम बड़े हो गए है। अभी उसकी बात पूरी नहीं हुई थी कि साकेत ने भी अपने मन की
भड़ास निकाली।मेरा तो इन बुजुरगों की टोली में आने का बिलकुल मन नहीं था। पर चलो अच्छा हुआ, आप सबसे
दोस्ती हो गई। लड़का होकर भी मुझ पर हज़ारों बंदिशें है, रात को जल्दी घर आना, बाईक तेज़ ना चलाना। मेरी माँ
तो हर समय संस्कारों की दुहाई देती रहती है। यार, मैं तो रिशतेदारों के पैर छूता छूता ही थक जाता हूँ, साकेत इस
तरह दु:खी होकर बोल रहा था जैसे अभी तक उसकी कमर दु:ख रही हो।
लड़कियां भी कहाँ पीछे रहती। सबसे पहले प्रीति शुरू हुई। उसकी पढ़ाई से ज्यादा दिलचस्पी फ़ैशन में
थी। ' मेरी माँ तो हर समय मेरी पढ़ाई के पीछे पड़ी रहेगी। मेरे कपड़ो में मीनमेख निकालेगी। थोड़ा सा भी अंधेरा हो
जाए तो फ़ोन पर फ़ोन, दरवाज़े पर ही खड़ी रहेगी'। और भी बहुत कुछ कहा प्रीति ने।अब बारी थी रिया और इरा की।
रिया के ममी पापा डाक्टर थे। प्रीति ने कोहनी मार कर उसके भी विचार जानने चाहे। पहले तो वो चुप रही, लेकिन
फिर उदास सी बोली, मेरे माँ बाप को तो फ़ुरसत ही नहीं कि बच्चों से दो बात कर ले। मैं और मेरा भाई तो नौकरों के
हाथों पले है। दिन रात की डयूटी में उनकी शक्ल ही कम दिखती है। लेकिन साल में एक दो बार हम सभी घूमने
जरूर जाते है, यहाँ तक कि विदेश में भी। घूमने का ज़िक्र करने भर से ही उसके चेहरे पर चमक आ गई। दो मिंट
तक चुप्पी छाई रही, सब इरा का मुहँ देख रहे थे। उसकी आँखों के कोर गीले थे। ठडीं साँस लेकर वो बोली, काश कि
मेरे पापा आज जीवित होते,तो मेरी भी चिंता करते। हम दोनों बहने बहुत छोटी थी कि पापा चल बसे। मजबूरन ममी
को उनके स्थान पर नौकरी करनी पड़ी। बुज़ुर्ग दादा दादी ने पाला। अब तो वो भी नहीं रहे। ममी बहुत अच्छी है,
लेकिन घर, बाहर, नौकरी के इतने काम है कि हम समय से पहले ही बड़े हो गए। तुम सब किस्मत वाले हो जिनहें माँ
बाप दोनों का प्यार मिला है। काश कि मेरे पिताजी आज जीवित होते।एक बात और,कई बार माँ बाप की मजबूरियाँ भी
होती है, बस इतना समझो कि हर माँ बाप बच्चों का भला चाहते है। आज के जमाने में लड़के लड़की का अंतर
बेमानी है।मेरे विचार से तो बड़ों के पास अनुभव का अनमोल ख़ज़ाना होता है। वो तो हमारी जड़े है, उन्हें हमारी चिंता
होती है, वो हमारी केयर करके है, हमें असीमित प्यार करते है, हम कौनसा कमाई कर रहे है, हमारी हर इच्छा कौन
पूरी कर रहा है? भीगी आँखों से उसने और भी बहुत कुछ कहा। बाकी सब उसकी बातें सुनकर चुप हो गए। कुछ बचा
नहीं था बोलने को, लेकिन उनकी आँखे खुल चुकी थी।
अब तक शाम हो चुकी थी। गाने बजाने का दौर चला। अंताक्षरी में जहाँ बड़ो ने पुराने गाने गाए तो इन
बच्चों ने भी नए गानों से खूब रंग जमाया। बीच बीच में तालियाँ बजाते हुए नाचने भी लगते। खूब मस्ती हुई। सूर्य
छिपने को था,हँसते खेलते फिर मिलने का वादा करके गाड़ियो में सामान रखा । अपने पराए का, उम्र का भेद, सब
खत्म हो चुका था । प्रसन्न तो सभी थे लेकिन शर्मा जी को हैरानी तब हुई जब आते वक़्त विभास मुँह बना कर गाड़ी
में पीछे जाकर बैठ गया था और अब गुनगुनाते हुए स्टैंयरिग संभाले हुए बैठा था। शर्मा जी भी मुस्कुराते हुए उसके
बराबर आकर बैठ गए, और सीट बैल्ट लगाने लगे। बच्चों के बदले हुए व्यवहार के रूप में सबको जैसे नए साल की
सौग़ात मिली हो।
विमला गुगलानी