*नया सूरज* – बालेश्वर गुप्ता : Moral Stories in Hindi

     पापा, बस अब यह सब नही,बहुत हो चुका।अब मैं आपसे कुछ भी नही लूँगी।

      पर बेटा मेरा सबकुछ तेरा ही तो है, तू क्यो टेंसन लेती है।

      पापा, आप मेरे आत्मसम्मान के बारे में भी तो सोचो।सचिन से शादी का निर्णय मेरा था,यदि मेरा  निर्णय गलत सिद्ध हुआ है तो उसे मैं ही भुगतुंगी,आप नही।

           एक अच्छे खासे व्यापारी  शंकर दयाल जी को ईश्वर ने एक ही पुत्री उमा प्रदान की थी।शंकर दयाल जी और उनकी पत्नी सुमित्रा ने अपना सारा वात्सल्य अपनी एकमात्र पुत्री उमा पर लुटा दिया था।उनकी हार्दिक इच्छा थी कि दामाद कोई ऐसा मिल जाये जो उनके कारोबार को भी संभाल ले, आखिर उनके बाद वैसे भी सब उमा का ही तो था।

      पर सब कुछ मात्र सोचने से ही थोड़े हो जाता है।एक दिन उमा ने अपनी मां सुमित्रा से अपने सचिन से प्रेम करने की बात बताई तो वे धक से रह गयी,और बिटिया से भी कुछ बोल नही पायी।अकस्मात सामने आयी बात से वे हत प्रभ रह गयी थी।सुमित्रा जी ने जब ये बात अपने पति शंकर दयाल जी से बताई तो आश्चर्य चकित तो वे भी रह गये,

पर वे सुलझे विचारों के थे,वे जानते थे कि तरुणाई की अंगड़ाई उनके विरोध को नही सहेगी,सो उन्होंने सहमति में ही भलाई समझी।शुभ मुहूर्त में सचिन उमा की शादी करा दी गयी।एक मात्र बिटिया की शादी शिवशंकर जी ने खूब वैभवपूर्ण रूप से की।उनको अहसास था,सब उनकी बेटी का ही तो है।

      सचिन सामान्य परिवार से था,जॉब करता तो था,पर महत्वकांक्षा अधिक थी। धनी ससुराल मिल जाने से उसकी वैभवपूर्ण जीने की ललक भी बढ़ गयी थी।कार तो ससुर जी के यहां से आ गयी थी,पर उसमें पेट्रोल तो खुद ही डलवाना था,चांदी के बर्तन तो ससुराल से आ गये थे,पर उनमें खाने के लिये  तो खुद ही खर्च करना था।एक कुंठा सचिन में घर करती जा रही थी और वह हर समय इसी उधेड़बुन में लगा रहने लगा कि कैसे आय बढ़े।आय बढ़ने का मतलब था वेतन बढ़े,और वेतन वर्ष में एक बार प्रेजेंटेशन के आधार पर बढ़ता है।

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     एक दिन सचिन ने उमा से कहा कि वह कोई काम अतिरिक्त करना चाहता है,उसके लिये पांच लाख रुपयों की आवश्यकता होगी,उसकी व्यवस्था वह अपने पिता से करा दे। वह प्लास्टिक की फैक्ट्री में जो उसके मित्र की थी,उसमें साझीदारी करना चाहता था।उमा हक्की बक्की रह गयी।उसकी समझ नही आ रहा था कि कैसे वह अपनी शादी के बाद अपने पिता से रुपयों की मांग करे।उसने अपनी हिचक सचिन को बताई भी,पर सचिन ने उमा को समझा दिया कि उधार ही तो लेने है दो तीन महीनों में वापस कर देंगे।अनमनी सी उमा ने अपने पिता से उधार के तौर पर अपने पिता से पांच लाख रुपये मांग लिये।शंकर दयाल जी ने उमा को रुपये देते हुए कहा,बेटा यदि सचिन अन्य काम करना चाहता है तो हमारा ही बहुतेरा काम है, इसे ही संभाल ले।

     उमा ने सचिन को पांच लाख रुपये देते हुए पिता का प्रस्ताव भी बताया।इसको सचिन ने अपना अपमान मानते हुए सिरे से नकार दिया।उमा चुप कर गयी।चार पांच माह बीत गये, सचिन ने 5 लाख रुपये लौटाने का कोई उपक्रम नही किया,उलट उसने 2लाख रुपयों की मांग और कर दी।उमा ने कहा कि पहले ही पांच लाख वापस नही गये हैं, अब और रुपये कैसे मांगे जा सकते हैं।इस पर सचिन ने बड़ी ही ढिढता से कहा अरे वहां का सब तुम्हारा और मेरा ही तो है,वहां क्या फर्क पड़ने वाला है।

उमा सुनकर धक से रह गयी।सचिन का दूसरा चेहरा सामने आ रहा था।उसे लग रहा था,सचिन तो ऐसा नही था, या उससे ही पहचान में भूल हुई है।सचिन का प्रेसर रुपयों के लाने का था,उमा असमंजस में थी।शाम को संयोगवश शंकर दयाल जी अपनी बेटी से मिलने उमा के पास ही आ गये।उनके आने पर सचिन ने किचन में चाय बनाते हुई उमा से दो लाख रुपये के विषय मे जिक्र करने को बोला।उमा ने साफ कह दिया कि वह नही कह पायेगी। 

       ये सब बातें शंकर दयाल जी ने सुन ली,पर वे चुपचाप ड्राइंग रूम में आकर बैठ गये।कुछ समय बाद उमा की कुशल क्षेम पूछकर वे वापस आ गये।उनके जाने के बाद सचिन ने उमा से स्पष्ट कह दिया कि रुपये तो लाकर देने होंगे।उमा सचिन का विद्रूप चेहरा देख रही थी।सुबह सुबह उमा अपने पिता के घर आ गयी।शंकर दयाल जी समझ गये थे,सो उन्होंने खुद अपनी ओर से दो लाख रुपये उमा को देने चाहे तो उमा बिफर पड़ी,तभी उसने कहा,बहुत हो चुका,मेरा निर्णय गलत हुआ है तो उसे मैं ही भुगतुंगी।शंकर दयाल जी ने भरपूर समझाने का प्रयास किया पर उमा नही मानी,उसने स्पष्ट कर दिया कि अब समझौता नही।

        उमा ने सचिन के पास जाने का विचार त्याग कर खुद अपने पैरों पर खड़ा होने का निश्चय कर लिया।उमा के दृढ़ निश्चय को देखकर शंकर दयाल जी उमा को अपने प्रतिष्ठान में उसे साथ ले जाने लगे।जल्द ही उमा ने अपने पिता के कारोबार पर अपनी पकड़ बना ली।शंकर दयाल जी को भी अपनी बेटी का सहयोग व्यापार में एक विश्वसनीय सहयोगी के रूप में मिल गया था।

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     एक वर्ष यूँ ही बीत गया,इस बीच न सचिन आया और न ही उमा ने सचिन से मिलने का प्रयास किया।अचानक एक दिन उमा के सामने सचिन आ खड़ा हुआ,उसे देख उमा हिकारत और पुराने प्रेम के मिश्रित भाव मे आश्चर्य में पड़ गयी।सचिन बस इतना बोला,उमा कैसी हो? ठीक हूँ, उमा बोली।एक बार भी पलट कर नही देखा,उमा?कारण तुम जानते हों,सचिन।अब छोड़ो ये बातें, ये बताओ एक वर्ष बाद कैसे आये हो?

     उमा मैं तुम्हारे पिता द्वारा दिये गये पाँच लाख रुपये लौटाने आया हूँ।और तुम्हे ये भी बताने आया हूँ उमा जिस फैक्ट्री के लिये रुपये लिये थे,वह चल निकली है, और अच्छा मुनाफा देने लगी है।उमा अब हमें किसी से कुछ लेने की भी जरूरत नही रह गयी है।कहते कहते सचिन ने पांच लाख रुपयों का चेक उमा के सामने रख दिया।उस समय फैक्टरी की शुरुआत में पैसे की तंगी में और पैसे अपने पिता से मांगने के लिये परेशानी में मैंने तुमसे गलत रूप में कह दिया था।उमा मुझे माफ़ कर देना।

     उमा सचिन के इस नये रूप को देखती रह गयी,क्या फिर वह गलत आंकलन कर गयी थी,पशोपेश में पड़ गयी उमा।उसकी समझ मे ही नही आया कि वह क्या बोले?तभी सचिन की धीमे स्वर में आवाज आयी, उमा,क्या हम नयी शुरुआत नही कर सकते?मैं अब कोई अवसर शिकायत का तुम्हे नही दूंगा।उमा तुम बिन अधूरा हूँ मैं।

       खोयी खोयी सी उमा कब सचिन के साथ उसका हाथ पकड़ कर उसके साथ चली गयी,उसे भी पता नही चला।

 बालेश्वर गुप्ता, नोयडा

मौलिक एवम अप्रकाशित

*#समझौता अब नही* साप्ताहिक विषय पर आधारित कहानी:

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