संतोष और उनके पति कन्हैयालाल जी , आज बड़ी ही दयनीय हालत में, एक मंदिर के सहारे बैठे हुए थे। मन अत्यधिक दुःखी था। बेचारे ! विवश थे, क्या करें ? इस उम्र में कहां जाए ? कुछ समझ नहीं आ रहा था। जिस परिवार के लिए उन्होंने रात- दिन एक कर दिया। आज वही परिवार, उन्हें धोखा देकर, यहां छोड़कर चला गया। किसी अनजान शहर में भटक रहे हैं।
अब उम्र भी ऐसी नहीं रही कि कोई मजदूरी ही कर लें । वे बच्चों के विश्वासघात से ही नहीं उभर पाए हैं। दोनों मंदिर में बैठे, भगवान से पूछ रहे थे – ऐसी हमसे क्या गलती हो गई ? जो इस उम्र में हमें ये दिन देखने पड़ रहे हैं। ऐसे क्या जीवन में हमने, एक भी अच्छा कार्य नहीं किया ? कभी अपने आप से, तो कभी भगवान से प्रश्न पूछते।
उन्हें वहां रहते हुए , तीन दिन हो गए ,न ही नहाते , भीख में,कोई कुछ खाने को दे जाता, तो खा लेते। ”अपनों का दिया जख़्म बहुत गहरा होता है क्योंकि इंसान अपना सम्पूर्ण जीवन उन्हीं अपनों को समर्पित कर देता है।”
इस तरह वहां रहते उन्हें तीन दिन हो गए ,तीन दिनों पश्चात वहां एक इंसान आया और वहां बैठे भिखारियों को भिक्षा देने के साथ -साथ वह भोजन भी दे रहा था। जैसे ही वो संतोष और उनके पति के करीब आया बुरी तरह चौंक गया और बोला -आप लोग यहाँ !कैसे ?
बेटा !क्या तुम हमें जानते हो ? सोचकर मन ही मन शर्मिंदा भी हुए ,पता नहीं, ये हमें कैसे जानता है ?हमें ऐसी हालत में देखकर क्या सोचेगा ? तब कन्हैयालाल जी ने उससे पूछा -तुम कौन हो ?
सब बताता हूँ ,आप लोग मेरे साथ चलिए ! कहते हुए ,एक घर में ले गया ,वहां उन्हें नहलाया उनके कपड़े बदलवाए और बड़े प्रेम से भोजन करवाया ,तब बोला – साहब !आपने मुझे पहचाना नहीं ,मेरे कान्हा ने मुझे भेजा है ,कल स्वप्न में आये थे और कह रहे थे -रवि !अपने ”नमक का हक़ अदा नहीं करोगे।”मैं वही रवि हूँ ,जब आप मंदिर में आते थे और पैसा मंदिर में न चढ़ाकर ,
मुझे देकर जाते थे और कहते थे -‘मैं तुममें ही, अपने कान्हा को देखता हूँ और मेरे रहते मेरे कान्हा कैसे भूखे रह सकते हैं ? आज उन्हीं कान्हा ने मुझे स्वप्न में आदेश दिया -जाओ ! उन्हें यहां ले आओ ! वरना मुझे कैसे पता चलता ,आप लोग कहाँ हैं ?
स्वरचित – लक्ष्मी त्यागी