नकटौरा – सुनीता मिश्रा

बारात प्रस्थान कर चुकी थी ,अब घर में औरतें ही थीं। लगातार दो दिनों से विवाह की रस्मों में उलझी,तकरीबन सभी औरतों के चेहरे पर थकान की शिकन स्पष्ट थी। कुछ औरतें मंडप में बिछी जाजमों  पर पसर गईं,कुछ दोने में मोतोचूर के लड्डू और नमकीन सेव ले मंडप के पास बैठकर टूंगने लगीं ।बच्चें पूरे घर में उछल-कूद मचा रहे थे।

मर्द के नाम पर दो प्राणी थे।एक दीना काका,जो दिन भर नदी से घड़ा भर-भर कर पानी लाते और घिनौची के आले में रखते।कम से कम बीस आले की घिनौची थी। आखिर शादी का घर,मेहमानों से भरा।पानी तो चाहिये न।

दूसरा मर्द था जुगती। दो दिन हुये,लालपुर से लौटा था।

गोपीनाथ जी के बड़े भाई की बेवा,जिन्हें पूरा घर ताई बुलाता  था।(,गोपी नाथ और उनकी पत्नी को छोड़)उन्होनें जुगती को एक चिट्ठी देकर लालपुर भेजा था।

जुगती दुबला-पतला साधारण शक्लो-सूरत का ,निरीह सा प्राणी,जो दीक्षितपुरा के जमींदार गोपीनाथ जी के यहाँ खेत की रखवाली से लेकर घर के भी काम करता।

परिवार की बहुयें जुगती से परदा नहीं करतीं थीं।

कभी कभी तो जरूरत होने पर उससे  वे हाट-बाज़ार से बिन्दी,काजल,महावर,बालों के किलिप मँगवा लेतीं।

शाम गहराने लगी।लालटेनों का प्रकाश  फैल गया।तुलसी चौरा पर सँझा का दिया जल गया।दुछत्ती पर दीना काका ने अपना डेरा डाल लिया।जुगती भी वहीं आ गया।आज मचान पर नहीं गया।जमींदार मालिक का ऑर्डर रहा।ज़मीदारी चली गई तो क्या,रुतबा तो है।


चैत का महीना,रात की हवा में सुरसुराहट  है।हुक्का तो चाही।गर्माहट होय शरीर मा।गुड़गुड़ाहट से तनिक सुर- -सुराहट को आराम तो आये।दीना काका के लिये हुक्के का इन्तजाम किया गया।8

रसोइदारिन बुआ ने चूल्हा सुलगा लिया,कढ़ाई चढ़ी है।शुद्ध घी गरम हो रहा है,बिली हुई पूड़ीयाँ राह देख रहीं हैं ,घी में डूबने के लिये,सिकने के लिये।जेवनार तैयार।

पत्तल में पूड़ी,दोने में आलू की रसीली सब्जी,रायता बूंदी का,और बालूशाही। जो महक फैली,कि औरतों का आलस टूट गया।

“अरे उठो भई सब लोग।नकटौरा न होई का।समधियानें के दरवज्जे बारात पहुँच गई होयेगी।अब देर न करो।खाव पियो औ तैय्यार हो जाव ।”ताई की अवाज ने सजग कर दिया औरतों को।

जालौन,उरई ,कन्नौज,उन्नाव,ओरैय्या,एटा सभी जगह से आईं,छोटी,बड़ी-चाची,मामी,बुआ,मौसी,बहिनें झटपट उठ बैठीं।

पंगत बैठी।हँसी-ठठ्ठा के बीच ज्योनार हुआ।

दुछत्ती पर भी पत्तल पहुँचा दी गई।

जेवनार खत्म हुई।अब नकटौरा की तैयारी।कौन क्या बनेगा।ताई तो तैयार हो के आ गईं।धोती-कुर्ता ,कन्धे पर पंचा,सिर पर टोपी,माथे पर तिलक,बन गई पंडित।

एटा वाली भाभी ने पहिना सूट,बूट,बाँधा सेहरा ,कन्धे पे डाली कटार,जँच गईँ,बन के दुल्हा।

बँट गईं दो हिस्से में औरतें ।आधी वर पक्ष,आधी कन्या पक्ष की ओर से।


अब दुलहिन कौन बने।ताई ने निर्णय सुना दिया।

“दुलहिन बनेगी कुसुम।गोपी लाला की दुलहिन,कुसुम के गहने ले आव ,औ उसे पहना देव।”उन्होनें अपनी देवरानी को हुक्म दिया।

कुसुम,—-गोपीनाथ की पत्नी और ताई की साझा बिटिया।पिछले साल इन्हीं दिनों,इसी जगह मंडप बना था, कुसुम के विवाह का।कन्या दान ,गोपीनाथ और उनकी पत्नी ने किया।फेरे हुए।विदा की बेला आई।

अचानक कुसुम के श्वसुर  तारक चंद, गोपीनाथ से प्रश्न कर बैठे -“समधी जी ,जरा कन्या का कुल गोत्र तो बतायें?”

चौंक गये गोपीनाथ।किस दुश्मन ने विष बीज बो दिये ,तारक चंद  के कान में।

संभल कर बोले”कैसी बात कर रहें हैं तारक जी।जो हमारा कुल गोत्र वही बिटिया का।”

“गोपीनाथ,आप हमें भरमाय रहे।कन्या आपके कुल की नहीं है।और हम बेनाम कुल की कन्या को अपनी कुल वधू नहीं बना सकते।”

ताई पर जैसे काली माई का क्रोध उतर आया-बोलीं “तारक चंद,अरे अधर्मी!कन्यायें, शक्ति स्वरूपा होतीं हैं ।उनके कुल-गोत्र नहीं होते।वे तो कुल-गोत्र अपनी कोख में पालतीं  हैं,उन्हें जनमतीं  हैं।”

“ताई ,जो मर्जी आये कह लो,मैं अपने  वंश से खिलवाड़ नहीं कर सकता।अच्छा हुआ भेद खुला।गोपीनाथ तो सब छुपा गये थे हमसे।”

“बहुत अज्ञानी हो तारक चंद।भाँवर पड़ी कन्या को इस तरह उसके मायके में छोड़ जाना ठीक नहीं।बहुत कलपोगे।”ताई का सुर थोड़ा भीगा,और दृढ़ अधिक था।


“जो कह दिया सो कह दिया।उठोकमल—-चलो।”

तारक चंद ने दुल्हा बने बेटे को आदेश दिया।

कमल ने पिता के आदेश का विरोध करने का प्रयास किया।पर सफल न हो पाया।

कमल लालपुर में नौकरी करता,बी ए पास,एकलौता बेटा था तारक चंद का।

अज्ञानी रहे तारकचंद।नहीं समझ पाये कुल गोत्र से भी ऊपर एक गोत्र है।प्रेम-गोत्र।जो कमल की आंखों में कुसुम बन कर समा गया,और कुसुम के दिल में कमल खिल गया।

नकटौरा का स्वांग अपने-अपने हिस्से का सब औरतों ने भर लिया।

ताई एकटक कुसुम को देख रहीं थीं।

सत्रह साल पहले एक नवजात बच्ची गोपीनाथ के खेत की मेड़ के पास कपड़ों लिपटी मिली।पता नहीं कौन किस्मत की मारी ने अपनी ममता को यूँ मरने के लिये छोड़ दिया था।

गोपी लाला इसे घर ले आये।मेरे और गोपी की दुलहिन के छाँव में पल गई कुसुम।

“ताई ,का सोच रई?खेला शुरू हो जाय।”जालौन वाली मामी,वर्तमान में लौटा लाईं ताई को।

नकटौरा शुरू।जो-जो,वहाँ बारात में घट रहा है,वो-वो यहाँ भी खेला जायेगा।

बारात का द्वारचार,समधी मिलन,स्वागत बारातियों का।ठीक वैसे ही जो वहाँ घटित हो रहा है।ढोलक धमक उठी ,गाने गबे।दुल्हा-दुलहिन मंडप में बिठाये गये।मन्त्रोच्चार हुए।कन्या दान की रस्म भी हुई।दुलहिन कन्या के पैर पूजे गये।

खूब हँसी-ठठ्ठा,मज़ाक,कहीं कहीं द्विअर्थी भान कराते गीत ,हमारी पम्पराओं का जीवन्त अहसास दिलाते।

लगता ,औरतें अपनी भावनाओं को प्रगट करने की स्वतंत्रता का अधिकार मांगती हों।चूल्हे-चौके से दूर,खुली हवाओं में अपने अस्तित्व की महक घोलना चाहतीं हों।

“अब वर-वधू फेरों के लिये तैयार हो जायें”।ताई ने पंडताई स्वर में उदघोष किया।

ठीक इसी वक्त दो फटफटियाँ मंडप के सामने आकर रुकी।तीन नकाबपोश मंडप के अंदर घुसे।एक ने बन्दूक तान ली”कोई भी अपनी जगह से हिलेगा नहीं।हमें अपना काम करने दो।”


सबकी साँसे बंद।मज़ाल है,किसी की धड़कन की  आवाज़ सुनाई पड़ जाय।

दीना काका को कुछ संदेह हुआ।वो उठे।नीचे जाने के लिये बढ़ते कि जुगती ने उनका हाथ पकड़ लिया -“रुक जाओ काका।नीचे न जाओ।ये भी नकटौरे का एक हिस्सा है।”

नकाब पोश मे से एक आगे बढ़ा।उसने कुसुम का हाथ पकड़ा और उसे लेकर मंडप के बाहर की ओर निकला।उसके पीछे उसके साथी भी हो लिये।फटफटियों की आवाज़ आई,और खेला खतम।

बहुत देर तक मंडप में सन्नाटा रहा।कुछ औरतें दहशत में थीं।कुछ के, जो करीबी रिश्तें में थीं माज़रा समझ में आ रहा था उनके।फिर भी औरतों में तरह-तरह की अटकलों के साथ खुसर-पुसर जारी थी।

ताई पूजाघर में अपने कन्हैया के सामने मत्था टेके बैठी थीं। गोपीनाथ जी की पत्नी रसोईदारिन बुआ को भोजन पकाने से सम्बन्धित जानकारी दे रहीं थीं ।

दोपहर होते होते बारात,नव वधू को लेकर  आ गई।

बहू का स्वागत हुआ।दरवज्जा रुकाई हुई।नेग हुए।घर के भीतर कदम रखे नयी बहू ने।

जुगती ने ताई के कान में कुछ कहा।

गोपीनाथ ने ताई से पूछा-भाभी ,का हुआ?। इस प्रश्न में बहुत से प्रश्न समाए थे।ताई ने सबके उत्तर न दे केवल इतना कहा-

“ना कुछ लाला।आज कन्हैया की कृपा बरसी हम पर।अपने घर एक बिटिया आई है और एक बिटिया अपने घर गई।”

सुनीता मिश्रा

भोपाल

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