उम्र के तीसरे पड़ाव पर आकर राम बाबू एक दम खामोश हो गए पहले तो थोड़ा बहुत बोलते भी थे वो भी पत्नी से मगर अब उससे भी नही बोलते।जो मिल जाये खा लेते हैं जो मिल जाये पहने लेते हैं, यूं कह लो कि बस जैसे तैसे अपनी जिंदगी गुजारा रहे हैं।
बिना किसी हस्तक्षेप के अपनी जरूरतों को कमतर करते हुए पिछले साल भर से ऐसे ही जी रहे हैं।
जिये भी क्यों ना शारीरिक अस्वस्थता ने घर में रहने पर मजबूर कर दिया और जब अस्वस्थ हुए तो इनकम भी ना के समान हो गई।और जब इनकम नही रही तो पूरी तरह से अपने बीबी बच्चों पर आश्रित हो गए।जिससे उनकी दवाई से लेकर नाई तक के खर्च के लिए कभी पत्नी तो कभी बच्चे से पैसा मांगते।
दरसल उम्र तो अधिक नही है पर चलते पूर्जा होने के कारण छोटा बेटा अपने साथ साथ घर की जिम्मेदारियां भी काफी संभाल लिया।
रही बड़े बेटे की बात तो वो थोड़ा मनमौजी और ज़िद्दी होने के साथ साथ चिड़चिड़े स्वभाव का है हो भी क्यों ना।
उम्र बढ़ रही है और इनकम ज़ीरो है ऐसे में वो भी मां पर ही निर्भर है।
एक तरह से देखा जाये तो सुविधायें भरपूर हैं पर शांति शून्य। क्योंकि जब तब आपस में कट कुक होती रहती है।
कभी किसी बात को लेकर तो कभी किसी बात को लेकर।जिससे घर का माहौल हमेशा अशांत रहता है।
फिर भी इन सबके बीच सभी का यानि दोनों पति पत्नी का ध्यान बड़े बेटे पर ही लगा रहता है।कि भगवान कही सुन ले तो अच्छा है , अरे! उन्हें दे या ना दे।पर अपना खर्ज उठाते लगे बस।
क्योंकि अब उसका हाथ फैलाना न इन लोगों को अच्छा लगता है ना उसे खुद ही ।पर कर ही क्या सकते हैं जब तक ईश्वर ना चाहे। जब कि पढ़ाई में कोई कोर कसर नही छोड़ी है ।जी जान से पढ़ रहा है ना कोई दोस्ती यारी ना प्रेम मोहब्बत बस किताबे और वो।
इसी से लगता है कि कही कुछ हो जाये तो अच्छा होगा।
आखिर कार उम्र भी तो बढ़ रही है । यही चिंता उन्हें खाये जा रही पर प्रार्थना के सिवा कर ही क्या सकते हैं।
फिर एक दिन बबलू ने आकर मां से बताया कि उसकी नौकरी लग गई।
ये सुन इनकी आंखे भर आईं। फिर भी आंसुओं को छिपाते हुए इन्होंने उसे गले से लगा लिया ।बिना ये सोचे कि नौकरी छुटने के बाद घर में उनके साथ कैसा व्यवहार हुआ। सच तो ये है कि बच्चों की सफलता में जितनी खुशी मां -बाप को होती है उतनी किसी को नही तभी तो आज वर्षो बाद उनके चेहरे पर हंसी आई, लगा मानों शरीर में नई ऊर्जा भर गई हो।
कंचन श्रीवास्तव आरज़ू
प्रयागराज