मै हूं न? – संगीता श्रीवास्तव

घर की चहेती, मोहल्ले की चहेती, धोबिन की चहेती , रामू काका की चहेती, कामवाली बाई की चहेती, सबकी चहेती थीं कुम्मु आंटी। कभी भी किसी की मदद के लिए तत्पर रहती थीं। कभी कामवाली की बेटी की शादी हो, कभी रामू काका के बेटे का जनेऊ हो या साजिदा की मां, धोबिन का रोजा खुलवाना हो सबके लिए हमेशा तैयार रहती थी। गरीबी -अमीरी या जात- पात का कोई फर्क नहीं था।

। बहुत बुढ़ी थी धोबिन।  एक ही बेटी थी साजिदा। इसका निकाह जब इसके अब्बू थे तब ही हो गई थी। साजिदा के पति बहुत ही खड़ूस और शराबी था जो उसे उसकी मां, धोबिन के पास नहीं आने देता था। इसलिए साजिदा का आना -जाना कम ही हो पाता था। धोबिन बेचारी बहुत ही सीधी-सादी थी। कपड़े धोने के नाम पर उसे चादर, पर्दे वगैरह ही धुलने के लिए दिए जाते थे ।

रोजा खोलने के समय पूरी तैयारी कर धोबिन का इंतजार करती थी कुम्मु आंटी।

   “धोबिन चल आएब टाइम पर, हम सब तइयार करके रखब राहुल रोज़ा खातिर।”

कुम्मु आंटी जब धोबिन से यह कहती तो वह ढेर सारा आशीर्वाद देती, कहती -“हमेशा रउआ(आप) फली-फूली मलकिनी। केतना चाव(ध्यान) रखेनी हमरा पर।” कुम्मु आंटी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ जाती।

कुम्मु आंटी के पति प्रोफेसर थे।  वे भी बहुत ही सरल और सहज थे। ये दंपति बहुत ही परोपकारी थे।

एक बार धोबिन बीमार पड़ गई। बूढ़ी तो थी ही। साजिदा आई और कुछ दिन रह, 10 साल के बेटे को धोबिन के पास रख वापस चली गई।

मैं सोच रही थी कि कैसे बेटा या बेटी अपने मां-बाप को इस स्थिति में छोड़ देते ‌हैं।बेटा ही नहीं, बेटी का भी फर्ज बनता है कि यदि मां बाप मरनासन पर हों तो उसकी देखभाल कर सके। इन सब परिस्थितियों को देख मेरा मन द्रवित हो जाता है।




भला हो उस कुम्मु आंटी का जो दिन रात उस धोबिन की चिंता में रहती थीं और अपने बच्चों से धोबिन के लिए कुछ ना कुछ बनाकर प्रतिदिन भेज दिया करती थी। एक शाम बच्चों ने आकर बताया कि मां, धोबिन काकी तो कुछ बोल ही नहीं रही। उनका नाती वही चुपचाप बैठा है। कुम्मु आंटी सुन बेचैन हो उठी और अपने बेटे के साथ धोबिन के पास पहुंची।देखा, धोबिन उपर छप्पर को देखें जा रही है। कुम्मु आंटी ने जब कहा -“धोबिन।” वह धीरे-धीरे अपनी नजरें कुम्मु आंटी की तरफ की। धोबिन की आंखों के कोरों से आंसू लगातार बहे जा रहे थे। शायद, कुछ कहना चाहती हो लेकिन शब्द नहीं निकल रहे थे।

कुम्मु आंटी धोबिन का हाथ अपने हाथों में ले बोली, “धोबिन, कुछ त बोलीं,का बुझाता।”धोबिन के कंठ अवरूद्ध थे, बोलती भी तो कैसे? धोबिन की विवशता देख कुम्मु आंटी की आंखें भी डबडबा गईं। उन्होंने अपने पति को फोन कर सारी परिस्थितियों को बताया। उनके पति एंबुलेंस मंगवाए और अगल बगल के लोगों की सहायता से धोबिन को नजदीकी सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाया। स्थिति नाजुक थी इसलिए   आई  सी यू में रखा गया ।प्रोफेसर साहब के मना करने के वावजूद कुम्मु आंटी भी अस्पताल पहुंचीं। डॉक्टर्स ने ट्रीटमेंट शुरू कर दिया। जब बात अटेंडेंट की आई तो कुम्मु आंटी ने आगे बढ़कर कहा, “मैं हूं ना।”

इन दंपति को डाक्टर्स पहचानते थे।वे अवाक् हो बोले,”मैम आप?”

“हां मैं। यह 10 साल का लड़का क्या कर पाएगा।जब तक इनकी बेटी न आ जाए,मै ही इनके साथ रहूंगी।” प्रोफेसर साहब अपनी पत्नी के स्वभाव से वाकिफ थे इसलिए वे न रुकने के लिए मना नहीं कर पाए ।मना करते भी कैसे? दूसरा कोई था भी तो नहीं ,उस 10 साल के बच्चे के सिवा। प्रोफेसर साहब सारी औपचारिकताएं पूरी कर घर वापस लौट आए।रात भर कुम्मु आंटी आइ सी यू में  रही। सुबह हो गई लेकिन सुधार नहीं हुआ । डॉक्टर ने बताया, “हमने सारे प्रयास कर लिए। इनके शरीर के सिस्टम धीरे-धीरे काम करना बंद कर दिए हैं। बस यूं समझिए,सांसों की गिनती जब- तक हो जाए।” सुबह प्रोफेसर साहब आए और कुम्मु आंटी को घर भेज स्वयं वहां रुक गए । कुम्मु आंटी घर जा नित्य कर्म से निवृत्त होकर बिना आराम किए अस्पताल पहुंच गईं। ‌ “कुम्मु थोड़ी देर आराम कर के आती।”प्रोफेसर साहब ने कहा।  “ठीक है चली जाऊंगी ,जब साजिदा आ जाए।” जब साजिदा को खबर मिली कि उसकी अम्मी की स्थिति बहुत ही नाजूक है और वह  आई सी यू में है। उसने अपने पति से स्वयं वहां जाने के लिए कहा तो उसके पति ने गालियां देनी शुरू कर दी।वह शराब के नशे में बकने लगा, “मर जाने दो उस बुढ़िया को …. दफनाने के समय जाना।” बहुत मारा भी। वह भी उग्र हो गई ,तब-तक पड़ोसी आए और उसके पति को डांट-डपट कर उसे उसकी मां से मिलने भेज दिया। इधर धोबिन की‌ धड़कनें तेज हो गई थीं। डॉक्टर्स ने कहा, ” अब जिन्दगी  भगवान भरोसे है, हमारे हाथ कुछ नहीं।”




‌‌देखते-देखते ,धीरे-धीरे सांसे‌‌ भी‌ अपनी गिनती करना बंद कर दिए और सब कुछ खत्म हो गया……धोबिन नहीं रही…..।

साजिदा के पहूंचने के पहले प्रोफेसर साहब ने दफ़नाये जाने की सारी तैयारियां कर ली थी। साजिदा आई, रोते -रोते उसका बुरा हाल था। कुम्मु आंटी ने उसे संभाला। मरणोपरांत जो औपचारिकताएं की जाती हैं, करके,साजिदा अपने ससुराल चली गई। कुम्मु आंटी सोच रही थी, तरह-तरह के प्रश्न उनके मानस पटल पर मछलियों की भांति तैर रहे थे।कितनी विवशता है साजिदा को। कितने कठोर होते हैं कुछ इंसान जो मां -बाप की नाजूक स्थिति में भी बेटियों को उनके पास नहीं भेजते। ओह! कितनी विवश होती हैं लड़कियां जो चाह कर भी अपने मां -बाप की सेवा से बंचित रह जाती हैं। बहुत लोगों की सोच यह भी रहती है कि बेटी के यहां नहीं रहनी चाहिए।

अब इस सोच या परंपरा को बदलनी चाहिए । हालांकि अब इस सोच में बदलाव हो भी रहा है।

आज साजिदा के पति उसका साथ दिए होते तो एक बेटी अपने मां के जीवन के अंतिम क्षणों में साथ रहती।

धोबिन को इस दुनिया से गए हुए लगभग 2 साल हो गए। आज पहला रोजा …… कुम्मु आंटी भूली बिसरी यादों के पन्नों को  बार-बार उलट-पुलट रहीं हैं । धोबिन रोज़ा के समय पहला निवाला डाल, पानी पी, ढेर सारी दुआएं अल्लाह से मांगती थी। धोबिन का रोज़ा खुलवाने पर मुझे कितना सुकून मिलता था ……।

#मासिक_प्रतियोगिता_अप्रैल 

स्वरचित, अप्रकाशित

संगीता श्रीवास्तव

उत्तर प्रदेश, लखनऊ।

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