नफ़रत की दीवार। – अर्चना झा : Moral Stories in Hindi

आज नए घर की शिफ्टिंग के दौरन एक पुरानी एल्बम हाथ लगी मैं सब काम छोड़ कर वह एल्बम देखने लगी जिसमें सबसे पहली फोटो थी सुमंत बुआ की, सुमंत बुआ की बस एक ही फोटो थी मेरे पास ,होती भी कैसे,वो फोटो जो नहीं खिंचवाती थी, जैसे ही कोई शुभ काम हो सुमंत बुआ दूर खड़ी हो जाती, खुद को सबसे अलग कर लेती ,तब मैं दस साल की रही हूंगी जब सुमंत बुआ से मिली , हालांकि मिली तो पहले भी थी ,

पर तब मैं लगभग तीन -चार साल की रही हूंगी, तो मुझे कुछ याद नहीं, बस बुआ ही मुझे कहती थी कि तोतली जुबान में मैं उन्हें तुमन बुआ कहकर पुकारती थी , ये बताते वक्त बुआ खिलखिलाकर हंस पड़ती , सुमंत बुआ स्वभाव से ही हंसमुख थी उम्र यही कोई पैंतालीस से पचास के बीच रही होगी , बाल उम्र से पहले सफेद हो गये थे ,सूती साड़ी सीधा पल्ला, और सफेद बालों के बीचोंबीच लाल सिंदूर,जब मैं दस वर्ष की थी ,        

        मुझे आज भी याद है ,उनकी छवि भुलाए नहीं भूलती ,मेरी दो बुआ सुमंत और बसंत ,सुमंत बड़ी और बसंत छोटी बुआ, बसंत बुआ जहां भरे पूरे परिवार में ऐशो आराम वाली ज़िन्दगी बिताती ,कार से अपने मायके आती वहीं सुमंत बुआ सरकारी बस से हाथ में प्लास्टिक की डाली लिए,बस स्टैंड से पैदल चल कर घर आती , वो  लंगड़ा कर चलती थी,पूछने पर बताती एक बार उनके पैर पर बहुत बड़ा घाव हो गया था जो लाख इलाज के बावजूद ठीक नहीं हुआ और वो पैर तब से बाहर की तरफ टेढ़ा होकर मुड़ गया,जिस वजह से वो घुटने पर हाथ रख कर चलती थी

,पर उनके चेहरे पर ज़रा भी थकावट महसूस नहीं होती, वो आते ही सबसे गले मिलती , और जब वो वापस जाती तो हम-सब भाई बहनों को कुछ सिक्के हाथ में पकड़ाती जो हमारे लिए बहुत खास होते, जाते जाते हमेशा कहती मेरे ससुराल में चैत्र नवरात्र बहुत धूमधाम से मनाई जाती है मेरा बड़ा मन है कभी तुम सब आते ,हम कभी जा नहीं पाए , लेकिन आज मैं सोचती हूं कि बुआ कितनी खुश होती, काश हम गये होते।

मां से बूआ के बारे में जितना जाना वो हैरान कर देने वाला था, एक अच्छे इंसान के साथ भगवान ने बहुत बुरा किया, मां बता रही थी कि जब सुमंत बूआ ग्यारह वर्ष की थी तभी मेरे दादाजी ने उनकी शादी एक अच्छे घर परिवार में कर दी , फूफाजी की ज़मीन दारी तो थी ही साथ ही उस ज़माने में वो एम.एस.सी थे जो बहुत एजुकेटेड माना जाता था, पर बूआ और फूफाजी की उम्र में बहुत अंतर था और यही एक कारण बना कि उनके बीच नफरत की दीवार खड़ी हो गई।

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हुआ यूं कि बहुत छोटे में शादी तो कर दी गई पर  बिदाई नहीं कराई गई , फूफाजी बार बार अपने ससूराल आते और अपने ससूर जी से कहते कि आप मेरे साथ मेरी पत्नी को कोलकाता भेज दिजिए,अब हमारी शादी हो गई है तो हम साथ रह सकते हैं,पर दादाजी हर बार सख्ती से मना कर देते , फूफाजी उस ज़माने से ही आधुनिक विचारों के थे वो अपनी पत्नी को साथ रखना चाहते घूमना फिरना सिनेमा दिखाने ले जाना चाहते थे पर दादाजी की सख़्ती के आगे उनकी एक न चलती ,

वो कहते जब तक हमारी बेटी बालिग नहीं हो जाती वो आपके साथ कहीं नहीं जाएगी , और सिनेमा देखना तो जैसे अभद्रता मानी जाती थी उस समय में, और सुमंत बुआ अपने पति की उन भावनाओं को समझ पाने में असक्षम थी क्योंकि वो तब मात्र ग्यारह वर्ष की थी और पिता की सहमति अनुमति ही उनके जीवन की प्राथमिकता दी, बुआ बताती थी कि वो अपने शादी वाले दिन पड़ोसियों के घर जाकर बोल आई कि आज मेरी शादी है ,आप भी तैयार होकर आना ,आज मैं भी नये नये कपड़े गहने पहनूंगी,धीरे धीरे दो वर्ष बीत गए तीन -चार वर्ष बीत गए ,अब बुआ पंद्रह वर्ष की थी किन्तु वहीं फूफाजी का अनुरोध और दादाजी का प्रतिरोध।

बस फिर क्या एक दिन तैश में आकर फूफाजी ने दादाजी से कहा कि अगर आप अपनी बेटी को मेरे साथ नहीं जाने देंगे तो मैं दूसरी शादी कर लूंगा , फिर आप अपनी बेटी को हमेशा के लिए अपने पास रख लेना, दादाजी भी अच्छा रुतबा रखते थे उन्होंने भी कह दिया कि हां जाइए कर लिजिए दूसरी शादी हम रख लेंगे अपनी बेटी को,वो बोझ नहीं है हम पर,दादाजी को उसमें भी कोई आपत्ती नही थी,या शायद उन्हें लगा हो कि वो ऐसा बस डराने के लिए कह रहे हैं, पर सच में जब उन्होंने ऐसा कर लिया, उन्होंने दूसरी शादी कर ली,

और जब बुआ अठारह वर्ष की हुई तो उन्हें गौना करा कर अपने घर ले गए ,वो बुआ से बहुत प्यार करते थे, दिन रात उनके आगे पीछे घूमते उन्हें, साड़ी चूड़ी कंगन दिलाते, उनके साथ उठना बैठना कमरे से निकलने का नाम तक नहीं लेते, और उनकी दूसरी बीवी,

उसके कमरे की तरफ झांकते तक नहीं थे , बुआ ने उन्हें कहा कि अगर आपने उनसे शादी की है तो ये सारे अधिकार तो उनके भी हैं,तो फूफाजी कहते कि अरे ये शादी तो बस तुम्हारे पिताजी को डराने के लिए की थी, मैं उसे अपनी पत्नी मानता ही नहीं, उसका अस्तित्व ही नहीं है मेरे लिए, मुझे सिर्फ तुम अच्छी लगती हो सिर्फ तुम, इसलिए कभी भूलकर भी उसका नाम भी मत लेना मेरे आगे ,वर्ना मैं सबको छोड़ कर कहीं दूर चला जाऊंगा।

पर एक औरत होने के नाते बुआ अपनी सौतन का दुःख समझ सकती थी, बुआ उसके साथ बड़े प्यार से रहती पर पति का सुख तो वो ना दे पाती, उनकी सौतन अक्सर इस बात को लेकर रोती, और बुआ सुहानुभूति देते हुए कहती , अच्छा मैं फिर से बात करके देखती हूं।

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इसी दौरान बुआ को एक बेटी हुई फूफाजी को मानो दुनिया मिल गई, जैसे उनका संसार बस यही दोनों थे धीरे धीरे बेटी भी एक साल की हो गई पर फूफाजी ने कभी अपनी दूसरी पत्नी को पलट कर नहीं देखा,एक रात उनके कमरे से रोने की आवाज आई तो बुआ झट से उठकर उनके कमरे में गई, वो बिलख कर रोने लगी, कहने लगी ,दीदी मैं भी चाहती हूं कि मेरा अपना एक बच्चा हो जो मुझे भी मां कहकर पुकारें , बुआ का उस दिन सब्र का बांध टूट गया, उसने कहा तुम्हारी ये इच्छा ज़रूर पूरी होगी, अगर भगवान ने चाहा तो, 

     और अगले ही दिन बुआ ने अपनी सौतन को अपने कमरे में भेज दिया और जैसे ही फूफाजी अंदर गए उन्होंने बाहर से दरवाजा बंद कर दिया, उन्हें लगा शायद ऐसा करने से एक मर्द के अंदर स्त्री के प्रति जो आकर्षण होता है वो जाग जाए ,बस यही सोचकर उन दोनों को उस रात बुआ ने एक कमरे में बंद कर खुद सौतन के कमरे में आकर लेट गई, लेकिन दुर्भाग्यवश उन्होंने जैसा सोचा था वैसा कुछ नहीं हुआ फूफाजी दरवाजा तोड़कर बाहर निकल गये और बाहर निकलते ही बुआ को ढूंढने लगे,

बुआ भी आवाज सुनकर जैसे ही बाहर आई फूफाजी ने उन्हें पास ही पड़ा पीतल का बड़ा और भारी सा ग्लास उनकी तरफ कस के फेंका ज़ोर से चीखते हुए बोले कि तुमको मना किया था ना इस औरत की मैं शक्ल भी नहीं देखना चाहता पर तुम बाज़ नहीं आती ,तो ठीक है अब मैं तुम्हें भी छोड़ कर जा रहा हूं, अब तुम इसी औरत के साथ रहो जिससे तुम्हें इतनी हमदर्दी है कि मेरी बात तुम्हें समझ नहीं आती , अब मैं कभी वापस नहीं आऊंगा, मैंने बहुत बर्दाश्त कर लिया फूफाजी चीखते जा रहे थे अपने गुस्से में उन्होंने पत्नी पर जो ग्लास फेंक कर मारा

वो बुआ के ठीक घुटने पर लगा , वो भी नहीं देखा,ये वही घाव है जो बुआ को दो घाव दे गया,एक तो उनको अपाहिज बना गया दूसरा बेसहारा, फूफाजी ने पलटकर नहीं देखा वो आधी रात को घर से निकल कर जो गये ,बुआ खून से लथपथ पैर से उन्हें रोकने का प्रयास करती रही पर असफल रही,वो चले गए और फिर कभी लौट कर नहीं आए , हां एक बार जिस दिन मेरी मां की डोली आई थी दो साल बाद उसी दिन फूफाजी की चिट्ठी आई थी ,तो बुआ मेरी मां के पैर बहुत शुभ मानती थी , फूफाजी के उस ख़त को मरते दम तक संभाल कर सीने से लगाकर रखा , जिसमें लिखा था मेरी चिंता मत करना तुम अपना और हमारी बेटी का ध्यान रखना।

जिस सौतन के लिए उन्होंने पति और अपने बीच नफरत की दीवार खड़ी कर दी,उसी सौतन ने आगे चलकर उनका जीना दूभर कर दिया,सब ज़मीन जायदाद अपने नाम करवा लिया , बुआ को जितना देती वो उसी में अपना गुजारा करती ,कभी लड़ी नहीं अपने हक़ के लिए, उनके लिए तो उनका पति ही

सबकुछ था,जब वो ही छोड़कर चला गया,तो धन दौलत का क्या करती ,वो खुद को अभागन समझने लगी,इसी वजह से ना वो किसी शुभ काम में आती ना कभी फोटो खिंचवाती,ये फोटो मैंने चुपके से खींच ली थी ,इतने दुखों के बाद इतना जिंदादिल इंसान मैंने पहली बार देखा था, उनको जॉन्डिस हो गया , बुआ की बेटी की शादी भाईयों ने मिलकर अच्छी जगह करवा दी, उनको ये राहत थी कि बेटी अच्छे परिवार में गयी भाईयों की बदौलत, बीमारी के दौरान उनकी बेटी ने उनका अच्छा इलाज करवाया पर वो बच नहीं पाई , और फूफाजी के वापस लौटने का इंतजार लिए खुली आंखों संसार को छोड़कर चली गई।

एक बार किसी गांव वाले ने बताया था कि उन्होंने कहीं देखा था फूफाजी को सन्यासी के भेष में, पर वो पलक झपकते ही आंखों से ओझल हो गये , बुआ को ये अंतिम संदेश आया था फूफाजी के बारे में जिसको आए बारह साल हो गए, पर बुआ को अंतिम समय तक लगता रहा कि शायद कभी लौट कर आ जाएं, सुमंत बुआ एक ऐसी छवि जो अपनी दरियादिली की छाप छोड़ सदा के लिए हमारी नज़रों से तो दूर चली गई पर हम सबके दिल में वो आज भी है।।

अर्चना झा

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