ना,ना छूना नहीं – सुषमा यादव

हमारे देश में बहुत तरह के सामाजिक , पारिवारिक आर्थिक, धार्मिक, प्रादेशिक और जातिगत भेद-भाव है, 

जातिगत भेद-भाव से हमारा तात्पर्य है कि जाति के आधार पर

लोगों के साथ भेद-भाव करना।

बहुत से लोग विशेषकर अनुसूचित जाति और निम्न जाति के लोग आज आजादी के बरसों बाद भी इस भेद-भाव से जूझ रहे हैं। हमारे बीच ऊंच,नीच की भावना आज भी मौजूद है।

ग्रामीण भारत में तो ये कुप्रथा आज भी प्रचलित है,पर स्कूल, शैक्षणिक संस्थान भी इस भेद-भाव से वंचित नहीं है।

वैसे तो भारत के संविधान में अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया है,पर अब भी हमारे समाज में ये जातिगत भेद-भाव मौजूद है।

इसी जाति भेद-भाव के कुछ उदाहरण आपके सामने पेश कर रहीं हूं, जो आंखों देखी सच्ची घटनाएं हैं।

मैं नागपुर में अपने नाना के साथ रहती थी, मेरे नाना उत्तर प्रदेश के ऐसे गांव से थे, जहां भयंकर रूप से छुआ-छूत की कुप्रथा समाज में थी। वो नागपुर में भी इसे लागू कर रहे थे,जब नल में पानी भरने जाते तो मोहल्ले के सभी लोग वहां से हट जाते,परदेशी पानी भरने आ रहें हैं,दूर हट जाओ,

किसी के यहां कुछ भी खाते पीते नहीं थे, 

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एक बार मेरे साथ पढ़ने वाली एक लड़की मेरे घर आई, मैंने उसको पानी दिया,इतने में नाना जी आ गए, उससे पूछा, किस जाति की हो, उसने बताया तो नाना जी ने मुझे गुस्से से देखा, और उस पीतल के गिलास को बाहर आग में खूब तपा कर शुद्ध किया।

ये तो खैर बहुत पुरानी बात है,तब छुआ-छूत की भावना बहुत व्यापक थी।उस समय मैं कक्षा छठवीं में थी।

अब नए जमाने की बात करें।

मैं एक स्कूल में शिक्षिका पद पर कार्यरत थी,उसी समय एक शिक्षिका का ट्रान्सफर उसी स्कूल में हुआ, चुंकि ब्राह्मण वर्ग से थीं तो स्वाभाविक है,जाति का घमंड होना, वैसे तो उस स्कूल में बहुत से शिक्षक, शिक्षिकाएं सभी वर्ग की थीं पर वो उच्च विचारों की थी, उनमें छुआ-छूत की कोई भावना नहीं थी,। सब आपस में मिलजुल कर खाते पीते।

हम लोगों ने एक दिन देखा कि नई शिक्षिका ने अपने क्लास में बच्चों को कुछ लिखने को दिया और जब बच्चे उनके पास अपनी कापी लेकर उन्हें दिखाने गए, बड़ी जोर से चिल्लाई, मुझे नहीं छूना,दूर से दिखाओ, और अपनी साड़ी चारों तरफ से समेट कर बैठ गईं ।हम सब को बहुत बुरा लगा,सब बच्चे सहम कर दूर हट गए, 

हमारा विद्यालय ग्रामीण इलाके में था, इसलिए अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति के बच्चे बहुत थे, हमारे बीच में भी वो एक कोने में अपने कपड़ों को समेटे दूर बैठती थीं। एक दिन मुझसे रहा नहीं गया, जैसे ही बच्चों को झिड़क कर दूर से स्लेट दिखाने को बोलीं, मैंने उन्हें आफिस में बुला कर कहा,आप ऐसा क्यों कहतीं हैं, स्कूल तो शिक्षा का मंदिर है,आप यहां छुआ-छूत की भावना से ग्रस्त हो कर बच्चों को कैसी शिक्षा दे रहीं हैं,शिक्षक तो छात्रों के प्रेरणास्रोत होते हैं, वो आपको देखकर आपस में भी इसी भावना से प्रेरित होकर वही व्यवहार करेंगे।

अगर आपको इनसे आपत्ति है तो आप अपने घर जाकर नहा धोकर कपड़े बदल लीजिए,पर यहां इस तरह ये कहना, मुझे छूना नहीं,दूर हटो, ये आपको कतई शोभा नहीं देता, ये एक शिक्षक के गरिमा के खिलाफ है, अगर किसी ने आपकी शिकायत कर दी तो लेने के देने पड़ जाएंगे, फिर आप दूर से छात्रों के उत्तर कैसे जांचती हैं ।

सबने मेरे कथन का समर्थन किया और उनका विरोध किया।

उस दिन के बाद से उनका रवैया बदल गया, और  अब अपने पास बुला कर पढ़ाने लगीं । पर उनका स्वभाव नहीं बदला, वो हम सब में नहीं मिल पाईं, शायद वो जातिगत भेद-भाव से उबरना ही नहीं चाहती थीं ।

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इस ज़माने में ऐसी बातें सुनकर आप सबको हैरानी होती होगी ना,पर ये एक सच्ची कहानी है, मैं कितने ही स्कूल में रही,पर मैंने इस तरह की शिक्षिका को कभी नहीं देखा। शायद वो एकदम पिछड़े हुए गांव से थी, वो किसी के घर जाएं या शादी, पार्टी में, किसी के यहां कुछ भी खाती पीती नहीं थीं।

इसी तरह हमारे सामने अनेक उदाहरण जातिगत भेद भाव के,ऊंच नीच के मामले अब भी आते हैं, पता नहीं कब हम इस कुप्रथा से आजाद होंगे,कब सबकी सोच बदलेगी, आखिर वो भी तो एक इंसान हैं, भगवान ने तो सबको एक जैसा बनाया है,हम इंसान ही विभिन्न वर्गों में बांट देते हैं और उनके साथ गलत व्यवहार करते हैं,बात बात पर उन्हें अपमानित करतें हैं।

वैसे तो अब समाज में काफी बदलाव आ गया है, पर अभी भी बहुत कुछ बदलना है।

क्या हमें अपनी सोच बदलना नहीं चाहिए, इंसानियत और मानवता की नजर से सबको देखना चाहिए, सम्मान देने से ही सम्मान मिलता है।

#भेद-भाव 

सुषमा यादव, प्रतापगढ़ उ प्र

स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

# भेद-भाव

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