अध्यापिका होने के नाते मुझे सैकड़ों विद्यार्थियों की उत्तर- पुस्तिका जाॅंचने का अवसर प्राप्त हुआ था।कुछ उत्तरों को पढ़कर हॅंसी आती थी तो किसी विद्यार्थी के कम अंक आने पर मन उदास भी हो जाता था।समय के साथ फिर वे धुंधली भी पड़ जाती थीं लेकिन एक उत्तर ने मेरे मन को झंझोर दिया था।
उन दिनों मेरा तबादला शहर के विद्यालय में हुआ था।यहाँ के वातावरण में ढ़लने का मैं प्रयास कर रही थी।बच्चों के साथ बात करना मेरे स्वभाव में शामिल था।इसलिए अक्सर ही मैं बच्चों से उनकी रुचि, गेम्स और परिवार के संबंध में बातें करती। विषय के प्रति उनकी रुचि विकसित करने का प्रयास करती और समय-समय पर उनके अभिभावकों से भी बातें करके बच्चों की मन:स्थिति को समझने का प्रयास करती।
यूँ तो सभी विद्यार्थी क्लास में बेहिचक मुझसे प्रश्न पूछते और मेरे प्रश्न पूछने पर जवाब भी देते लेकिन पाॅंचवीं कक्षा का विवेक अपने नाम के बिलकुल विपरीत था।न तो कभी कोई प्रश्न पूछता और न ही मेरे प्रश्न का उत्तर देता।अपने सहपाठियों से भी उसकी बातचीत बहुत कम होती थी।
एक दिन मैंने उसकी मम्मी से बात की।उसके स्वभाव और परिवार के माहौल के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने इतना ही कहा कि सब ठीक है, घर में भी विवेक शांत ही रहता है।
मैं पाॅंचवीं कक्षा के विद्यार्थियों को मुहावरों के अर्थ और वाक्य बनाना सीखा रही थी।मैंने सभी को ‘खून का घूंट पीना’ मुहावरा से वाक्य बनाने को कहा।सभी ने अपनी काॅपी मुझसे चेक करा ली, विवेक बैठा रहा। काॅपी माँगने पर वह थोड़ा हिचकिचाया।मैंने उसे न डांटने का आश्वासन दिया तब उसने मुझे अपनी काॅपी दिखाई तो मैं दंग रह गई। उसने एक तस्वीर बनाई थी, लिखा था- मम्मी, मैं और पापा। पापा की तस्वीर पर उसने क्रास का निशान लगा दिया था। नीचे लिखा था- मेरे पापा, मम्मी को खून के ऑंसू रुलाते हैं। मम्मी खून का घूॅंट पीकर खून के ऑंसू रोती हैं।
विवेक के एक वाक्य ने मेरी अंतरात्मा को झकझोर दिया।एक बच्चा जो रोज अपनी माँ को पिता द्वारा प्रताड़ित होते देखता था तो उसका हृदय चीत्कार उठता था।उसका नन्हा-कोमल मन अपनी माँ की पीड़ा को महसूस तो करता था पर कुछ न कर पाने का दुख भी उसे अंदर ही अंदर खाये जा रहा था,यह उसके एक वाक्य से स्पष्ट हो रहा था।
उसकी माँ का चेहरा बरबस ही मेरी आँखों के सामने आ गया जो अपने चेहरे पर पड़ी पति की निशानियों और अपने मन की पीड़ा को गहरे मेकअप से छुपाने का प्रयास कर रहीं थीं।मैं सोचने लगी, हिन्दी भाषा में अगर मुहावरा न होता तो विवेक अपनी व्यथा कैसे प्रकट कर पाता।
विभा गुप्ता स्वरचित