लाजो सुबह जल्दी उठकर खेतों की तरफ़ चल उठी । मन ही मन सोच रही थी—-
दस बजे तक हाथ चलवाकर , खुद साथ खड़ी होकर गेहूँ कटवाऊँगी । जेठ- देवरों के सहारे जीवन कटने से रहा …..दो साल हो गए… पूरी ज़मीन उन्हीं को सौंप रखी थी ये सोचकर कि बच्चे की पढ़ाई का खर्चा देने में कोई आनाकानी नहीं करेंगे पर इन्होंने तो हद कर दी…. अपने परिवार की बागडोर खुद सँभालना पड़ेगी । ठीक ही कहते हैं लोग कि स्वार्थी संसार है …. कोई किसी का नहीं होता ।
सोचते- सोचते लाजो के कदमों ने तेज़ी पकड़ ली । कुछ दूर जाते ही मोहसिन और उसके बीवी- बच्चे मिल गए ।
— चौधराइन , जल्दी ही आ गई…. अमीना तो कह रही थी कि मैं उन्हें लेकर मुँह अंधेरे ही खड़ा हो गया हूँ ।
तूने एकदम ठीक किया ….. सूरज निकलने के घंटे दो घंटे बाद ही आसमान और धरती आग उगलने लगती है । इन छोटे लड़कों से भी गेहूँ कटवाएगा क्या ? …. सोने देता इन्हें तो ।
गरीब के बच्चे को तो जन्म लेते ही मज़दूरी में लगना पड़ता है मालकिन ! काम नहीं करेंगे तो खाएँगे कहाँ से? इस साल तो अभी से गर्मी ने क़हर ढाना शुरू कर दिया है ।
बातचीत करते- करते वे खेत में जा पहुँचे । मोहसिन , उसकी बीवी और दोनों लड़कों ने पिछले दिन के छोड़े हुए कार्य से ही गेहूँ की कटाई शुरू कर दी । तभी लाजो के हाथ में दरांती देखकर अमीना बोली —-
ये क्या चौधराइन , तुम गेहूँ काटोगी ? ये तुम्हारा काम थोड़े ही है । हम काट लेंगे । ज़रूरत पड़ेगी तो कल अपने देवर और उसके बाल- बच्चों को बुला लेंगे ।
अपना काम करने में कैसी शर्म ? किसान की बेटी हूँ ….. ज़्यादा नहीं पर थोड़ा बहुत तो काटूँगी ही ।
लाजो को अच्छी तरह से याद है कि एक बार माँ ने बापू से कहा था—-
इन दोनों छोरियों को खेतों में भी ले जाया करो कभी-कभी ….. काम भले ही ना करें पर खेत- बाहर का काम सीखना चाहिए…. समय का कुछ पता नहीं होता …. किस घड़ी , क्या करना पड़ जाए ।
मेरी छोरियाँ बैठ के खाएँगी …. इन्हें क्या करना , खेतों के कामों की जानकारी लेकर ?
सीता मैया भी राजा की बेटी थी पर रामजी के साथ उसे भी वनवास भोगना पड़ा था । क़िस्मत का लिखा , कोई मेट नहीं सकता ।
उस समय किसे पता था कि भगवान माँ के मुँह से भविष्य की तैयारी करवा रहा था । अभी अठारह साल की हुई भी नहीं थी कि पास के ज़मींदार के बेटे का रिश्ता आ गया और ढोल- नगाड़ों के साथ लाजो ब्याह कर आ गई । माँ- बापू की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था । खाता- पीता , भरा- पूरा परिवार…. उनका तो जीवन धन्य हो गया था ।
सब कुछ कितना बढ़िया चल रहा था । उसका भले ही एक बेटा था पर जेठ- देवरों के भरे-पूरे परिवार के बीच अहसास ही नहीं हुआ कि वह इकलौते बेटे की माँ है । जब शादी के आठवें साल रामनवमी के दिन लाजो ने बेटे को जन्म दिया तो ससुर ने पोते का नाम रखते हुए कहा था——
राम की बड़ी कृपा हुई है, मेरे पोते का नाम होगा “ रामकृपा “ ।
आजकल कौन ऐसे नाम रखता है, दादाजी! मैं तो अपने छोटे भाई का नाम कुछ बढ़िया सा रखूँगी ।
जेठ की बेटी ने कहा था पर जब स्कूल में नाम लिखवाने की बारी आई तो बेटे का नाम रामकृपा सिंह लिखवाया गया था ।
कृपा जितना दिखने में सुंदर था उतना ही गुणवान होने के कारण पूरे परिवार के दिल का टुकड़ा था । सभी भाई- बहन कृपा को जी- जान से चाहते थे । कृपा और उसके देवर के बेटे ने एक साथ इंटरमीडिएट की परीक्षा दी थी । जिस दिन रिज़ल्ट निकला था, उस दिन पहली बार लाजो ने देवर- देवरानी के मुँह पर ईर्ष्या का भाव देखा था ……हालाँकि मुँह से दोनों ने कहा था——
पूरे ज़िले में पहला स्थान तो हमारे पिता के पोते ने ही लिया है । कृपा हो चाहे शंकर …. नाम रोशन तो परिवार का ही हुआ है । जब लाजो ने देवर-देवरानी के भावों का ज़िक्र पति से किया तो उन्होंने उल्टा लाजो को ही डाँट दिया था—-
करने लगी ना घर तुड़वाने की बात….. तू खून से भी लिखकर देंगी तो भी मैं यक़ीन नहीं कर सकता कि मेरे छोटे भाई के मन में कृपा के लिए कोई दुर्भाव आ सकता है । पति के कहे शब्दों को सुनकर लाजो ने भी सोच लिया था कि शायद उससे ही कोई गलती हुई है ।
जिस दिन कृपा का दाख़िला मेडिकल में हुआ था उस दिन देवर- देवरानी के मुँह पर ही नहीं बल्कि जेठ- जेठानी के साथ उनके बच्चों के चेहरे भी मुरझा गए थे । इस बार लाजो को उनके भाव समझने में कोई गलती नहीं हुई थी पर पति के सामने मन की बात साझा करने का कोई फ़ायदा नहीं था क्योंकि उसके मन में भ्रातृप्रेम कूट-कूटकर भरा था । देवर ने अपने बेटे का दाख़िला भी मोटी रक़म देकर विदेश में करवा दिया । उन्हीं की हमउम्र जेठ की बेटी ने भी प्राइवेट डेंटल कॉलेज में दाख़िला ले लिया । कितनी भी बड़ी ज़मींदारी हो पर आमदनी का ज़रिया तो फसल ही थी , महीने की तनख़्वाह तो आती नहीं थी । ऊपर से पूरे परिवार का लंबा-चौड़ा खर्चा , नाते- रिश्तेदारी, भात-छूछक, हारी- बीमारी और गाँव में प्रतिष्ठा क़ायम रखने की दुनियादारी अलग …… ख़ैर तीनों भाई मिलजुल कर सब कुछ निर्वाह कर रहे थे ।
एक दिन ट्यूबवेल की मोटर चलते-चलते रुक गई ।जब खेतों से दौड़कर आए नौकर ने मालिकों को इसकी सूचना दी तो लाजो के पति तुरंत अपनी बुलेट पर वहाँ पहुँचे । जाँच- पड़ताल के समय बिजली का ऐसा करंट लगा कि लाजो की हँसती – खेलती ज़िंदगी उजड़ गई । साल भर तो निकल गया पर अब खेत- बाहर काम सँभालने वाला एक कम हो गया था…. लाजो के ऊपर जेठानी- देवरानी ने रसोई की सारी ज़िम्मेदारी ही डाल दी थी । कभी-कभी लाजो सोचती —
कि ठीक भी है….पति नहीं तो कम से कम मैं ही उसके हिस्से का काम करके परिवार को शिकायत का मौक़ा नहीं दूँगी । अभी तो कृपा की डिग्री पूरी होने में पूरे चार बरस थे ….. तब जाके कहीं नौकरी की आस मिलेगी ।
पर फिर भी…… किसी न किसी बहाने घर में कलह – फ़साद हो ही जाती थी । बढ़ती उम्र के साथ सास-ससुर की पकड़ भी परिवार पर कम हो गई थी…… अपना दर्द कहे भी तो किसे …. एक दिन कृपा से यह सुनकर कि उसे मासिक खर्च नहीं मिला …. बड़ी परेशानी हो रही है…. लाजो का धैर्य जवाब दे गया । उसने सास- ससुर की उपस्थिति में घूँघट की ओट से जेठ- देवर को सुनाते हुए कहा—-
बापू ! सवेरे मुँह अंधेरे से आधी रात तक कमर तोड़ काम करती हूँ….. इसलिए कि … मेरे बच्चे की पढ़ाई- लिखाई में कोई कमी ना रहे । परदेश में बच्चा किसके आगे हाथ फैलाएगा? जिस तरह घर की दो बहुएँ ठाठ का जीवन गुज़ारती हैं, क्या मेरा अधिकार नहीं…. पर मेरे तो नसीब ही खोटे हैं , नहीं तो भगवान मुझ पर ही ये गाज क्यूँ गिराता ? अपने जीते- जी हमारा हिस्सा अलग कर दो …. फिर चाहे हम भूखे मर जाएँ …. उफ़ तक ना करूँगी ।
हाँ- हाँ बापू …. लाजो का हिस्सा अलग कर ही दो …. तभी पता चलेगा कि महीने का खर्च कैसे दिया जाता है । हम पहले अपने बच्चों को भेजेंगे या इसके बेटे को?
चंद्र ! इसका बेटा इसी घर का पोता है । कल ही लाजो के हिस्से की घर – ज़मीन का बँटवारा होगा । लाजो ! जब तक साँस है तेरा बापू तेरे ही साथ रहेगा । बोल चंद्र की माँ! मेरे और लाजो के साथ रहेगी या बहू- बेटों के साथ?
जहाँ तुम रहोगे, मैं तो दो रोटी वहीं खाऊँगी ।
बस फिर क्या था…. अगले ही दिन कुटुंब के बड़े- बुजुर्गों के सामने लाजो को उसके हिस्से की घर- ज़मीन दे दी गई । देवर- जेठ को पूरा भरोसा था कि महीने भर में लाजों हाथ खड़े कर देंगी और उनकी मिन्नतें करेगी पर लाजो ने तो फ़ैसला कर लिया था कि चाहे जो करना पड़े ….. अब किसी से डरकर नहीं रहेगी ।
शुरू में बहुत दिक़्क़त आई । बेटे को भी महीने का खर्चा अपनी छोटी बहन से क़र्ज़ा लेकर भेजा पर ससुर के अनुभव और पुराने वफ़ादार नौकरों का बहुत साथ मिला । अपनी इस लड़ाई में उसे अपने गहने भी बेचने पड़े । आख़िर मेहनत रंग लाई और पहली फसल की बिक्री पर उसकी आँखों से आँसू छलक उठे ।
सबसे पहले उसने उन लोगों को हाथ जोड़कर तनख़्वाह दी जो बेमजदूरी भी उसके दुख के समय साथ खड़े रहे थे । मोहसिन और अमीना …. लाजो के खेतों में भी काम करवाते और दोनों समय भैंस का दूध पास के शहर जाकर बेचकर आते ।
जिस दिन कृपा अपनी डिग्री पूरी करके घर लौटा ….. दादा- दादी का माथा गर्व से तन गया । आज लाजो ने भंडारे का आयोजन किया था…… भगवान के बिना उसमें भला कहाँ ,इतनी शक्ति थी कि स्वार्थी संसार का मुक़ाबला कर पाती ? आज देवर – जेठ भी अपने- अपने परिवार के साथ भंडारे का प्रसाद चखने आए थे । बरसों बाद जेठानी- देवरानी ने लाजो को अपनी बराबरी का दर्जा दिया था । मन तो कर रहा था कि वह एक-एक को पकड़ कर खूब खरी-खोटी सुनाए —-
उस दिन तो मजबूर लाजो को बूढ़े सास- ससुर के साथ अकेली छोड़ दिया था और आज बेटा डॉक्टर बन गया तो अपना हक़ जताने पहुँच गए पर लाजो चाहते हुए भी कुछ ना कह सकी । हाँ….. उसने इतना ज़रूर किया कि ज़ोर से आवाज़ लगाते हुए कहा——
मोहसिन ….अमीना….. ध्यान रखना, कोई प्रसाद चखें बिना ना जाना चाहिए ।
जिस अपनेपन से लाजो ने मोहसिन और अमीना को ज़िम्मेदारी सौंपी….. समझने वाले के लिए यह इशारा ही काफ़ी था कि अपने वहीं होते हैं जो दुख की घड़ी में साथ खड़े रहते हैं । भले ही दुनिया में स्वार्थी लोगों की संख्या अधिक हो पर कोई न कोई अपना बनकर साथ दे ही देता है ।
लेखिका : करुणा मालिक