मायका : बेटियों का टूरिस्ट प्लेस   अरुण कुमार अविनाश

नैना देवी बहुत बीमार थी। 

 

डॉक्टर ने अत्यधिक देखभाल की ज़रूरत बतायी थी। इलाज लंबा चलने वाला था – जिसमें उचित दवाइयों के साथ-साथ समुचित परहेज़ भी तजवीज़ की गई थी। स्थिति ये थी कि या तो महीनों अस्पताल में भर्ती रहतीं या घर में अस्पताल जैसा माहौल बना दिया जाता।

 

आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि सब काम-काज छोड़ कर सिर्फ अस्पताल का चक्कर लगाया जाये और रोज़ाना बेड चार्ज के नाम पर बड़ी धनराशी जमा करवाया जा सकें।

 

बड़े बेटे प्रभात के साथ स्कूल में पढ़े – डॉक्टर जयंत ने ही सुझाव दिया था कि – ” मम्मी को घर ले जाओ – परहेज़ से रखना – सुबह शाम मैं आ कर देख जाऊँगा।”

 

तब से नैना देवी का कमरा हॉस्पिटल वार्ड बना हुआ था।

 

वादे के मुताबिक डॉक्टर जयंत रोज़ सुबह-शाम आते और नैना देवी का चेकअप करते – दवाईयां देखते – ज़रूरत पड़ती तो डोज़ बढाते-घटाते या दवाईयां बदलतें।

 


धीरे-धीरे नैना देवी के स्वास्थ में सुधार हो रहा था।

 

ज्यों-ज्यों तबियत सुधर रही थी – चेतना भी जागृत हो रही थी – अब उन्हें हर छोटी-बड़ी बात समझ में आ रही थी और कुछ बातें खटक भी रही थी।

 

बहूँ संध्या खाना-दवाईयां तो समय पर देती थी पर समय नहीं दे पाती थी। अपने कमरे में अकेली बीमार कब तक टेलीविजन या मोबाइल से जी बहलाती – उनका भी जी चाहता था कि कोई उनके पास बैठे – बातें करें – कुछ सुने – कुछ सुनाये – पर घर में लोग ही कितने थे ! बेटा व्यपार छोड़ कर घर में बैठ नहीं सकता था – दुकान बंद करता तो नियमित ग्राहक भी कोई और दुकान ढूंढ लेते – ग्राहकी बंद तो , दुकान का किराया भी घर से देना पड़ता – बहूँ घरेलू कामों में ही इतना व्यस्त रहती थी कि वह नैना देवी के पास क्या बैठती !  खुद ढंग से पूरी नींद भी नहीं ले पाती थी। सास को समय पर परहेजी खाना बना कर खिला रही थी – ये भी उसके लिये अतिरिक्त श्रम ही था। एक पोता और एक पोती थी – दोनों बच्चों को स्कूल ट्यूशन होमवर्क से ही फुर्सत नहीं थी। बेटा देर रात को घर लौटता – तो, दो-चार मिनट के लिये हाल-चाल पूछने आता – दो चार मिनट हाथ-पाँव दबा देता – एक-आध मिनट सिर पर हाथ फेर देता – कुछ बातें कर लेता – कई बार ऐसा भी होता कि बेटा पास में बैठा रहता और कोई फोन आ जाता – फिर, बेटे की नज़र – जरूर माँ पर होती थी पर तवज़्ज़ो ! फोन पर हो रहे वार्तालाप पर रहती थी।

 

बुरा हो कोरोना का – जब से ये रोग आया है – लोगों ने बीमारों का हाल-चाल ही पूछना छोड़ दिया है। पहले लोग बीमार के पास घण्टों बैठते थे – उसका हाल-चाल पूछते थे –उससे बातें करते थे – उसका मनोरंजन करते थे और अब ? 

 

अब मदद करना जिसकी मजबूरी हो वह भी थोड़ा एहतियात बरतता है – सावधानी रखता है।

 

सही भी है – कोरोना ज़ैसे रोग में कोई किसी की मदद भी तभी कर सकता है जब तक खुद संक्रमित न हो जाये। 

 

पर, जब पूरा अस्पताल ही संक्रमित होने के भय से आक्रांत हो तक आम आदमी की सोच क्या कहेंगी ? आम आदमी तो अस्पताल के चक्कर के नाम से ही भयभीत होगा।

 

चार साल पहले नैना देवी के पति का ह्रदयघात से देहांत हो गया था। वे लगभग पचपन साल की उम्र में देवलोक गमन कर गये थे। नैना देवी ने सिर्फ तीन बच्चों को जन्म दिया था। बड़ा बेटा प्रभात उसके बाद बेटी कामिनी सबसे छोटा बेटा गौरव ।

 

गौरव एयरफोर्स में जूनियर वारेंट ऑफिसर के पद पर दूर आसाम में पदस्थ था। हर तीसरे साल उसका स्थान्तरण हो जाता था इसलियें यहाँ की घर- गृहस्थी के काम में मदद की अपेक्षा करना व्यर्थ था। वे सिर्फ छुट्टियां बिताने घर आतें थे और माँ के मन में बड़ी बहूँ के खिलाफ विष भरतें थे – घर की छोटी-बड़ी कमियों को विस्तृत करके प्रदर्शित करते थे। बड़ा बेटा सालों माँ की देखभाल करता था – उसका कोई मोल न था – पर, छोटी बहूँ खुद की छोड़ी हुई दो-चार साड़ियां प्रेस करवा कर, अच्छे से पैक करवा कर ला देती थी – तो, वह बहुत बड़ा उपहार होता था। बड़ा बेटा माँ के सारे खर्च झेलता था उसकी कोई कद्र न थी – पर , जाते समय छोटा बेटा पांच-दस हज़ार रुपये नगद माँ के हाथ में देता था तो वह बहुत बड़ी सौगात समझीं जाती थी।

 

बेटी सिर्फ दो सौ किलोमीटर की दूरी पर दूसरे शहर में रहती थी – दामाद किसी सरकारी महकमें में अधिकारी था – नवासे-नवासी , पोते-पोती से बड़े थे। बल्कि इतने बड़े थे कि माँ के बगैर आराम से रह सकते थे। बीस साल की नवासी तो किचन भी सम्भाल सकती थी।

 

बड़ी बहूँ संध्या के भी दो बच्चें थे – बेटी लगभग पन्द्रह साल की थी और बेटा बारह साल का था । संध्या का  मायका भी दूसरे शहर में था जो लगभग डेढ़ सौ  किलोमीटर दूर था।

 

देखा जाये तो बात कुछ भी नहीं थी – नैना देवी समझदार महिला थी – वह समझती सब कुछ थी पर मन की भावनाओं के आगे विवश थी ।

 

वह चाहती थी कि संध्या उनके पास बैठे –उनसे देर तक बातें करती रहें – उनकी सेवा करती रहें – हाथ-पाँव दबाती रहे – पर, वह ये भी जानती थी कि ये सम्भव नहीं है – संध्या अगर देर तक उनकी तीमारदारी ही करती रहें तो घर के दूसरे काम कौन करेगा ? घर के दूसरे सदस्यों का ध्यान कौन रखेगा ?

 

नैना देवी के हाथ-पांव की नसें खिंचती रहती थी – जब वह बोलती थी तो घर का कोई भी सदस्य उनके हाथ-पांव दबा भी देता था – संध्या भी दबाती थी – पर, संध्या हर समय घर में रह कर भी – हर समय, उनके लिये उपलब्ध नहीं रहती थी – किचन में ढेरों काम होता था – पति को दुकान और बच्चों को स्कूल भेजने के बाद ही वह सास के कमरे में आती थी – बाथरूम ले जाती थी – नहला धुला कर कपड़े पहनवा कर नाश्ता चाय देकर खुद नहाने के लिये जाती थी। नहा कर जब निकलती थी तब तक नैना देवी नाश्ता कर चुकी होती थी – तो, प्लेटें ले जाती थी – अगर नाश्ता बाकी रहता तो नाश्ता भी करवाती थी – दवाइयां देती थी – सास से निपट कर पूजा घर में साफ-सफाई पूजा सब कुछ करने के बाद खुद दो टुकड़े मुँह में डालती थी। 

 

नैना देवी जानती थी कि बहूँ को पल भर की फुर्सत नहीं है – पर, फिर भी चाहती थी कि वह उनके कमरे में रहे – सब्जी काटना , चावल बीनना जैसे काम उनसे बातचीत करते हुए भी हो सकता था । वहीं संध्या का अपना मत था – प्याज़ और लहसुन की गंध सास के लिये कष्ट दायक थे – परहेज़ के नाम पर डॉक्टर ने भीड़ और ज़्यादा बातचीत से भी मना किया था। 

 

दरअसल नैना देवी का पूरा ख्याल रखा जा रहा था पर बहूँ तो बहूँ होती है बेटी की जगह कैसे ले पाती ? – नैना देवी अक्सर अपने मोबाइल फोन से बेटी कामिनी को फोन करती और कामिनी माँ की सोच को तरह देती थी – माँ को भड़काती – संध्या के प्रति कामिनी के दुर्वचन नैना देवी के कानों को सुख पहुँचाते थे।

 

आज सुबह से नैना देवी को दोबारा चाय पीने की इच्छा हो रही थी – चाहती तो बेड के बगल में लगे बेल का बटन दबा कर संध्या को बुला सकती थी – ये बेल नैना देवी के बीमार पड़ने के बाद ही उनके बेड के बगल में लगाया गया था – ताकि , कोई ज़रूरत हो तो नैना देवी हाथ बढ़ा कर घण्टी बजा सके – नैना देवी ने घण्टी बजाने के बदले – दूसरे शहर में बैठी बेटी कामिनी को फोन करना मुनासिब समझा – ‘ मैं ही घण्टी क्यों बजाऊं ?  उसे भी तो चाहियें कि बीच-बीच में पूछती रहे कि कोई ज़रूरत तो नहीं ! ‘ – फोन उठाते ही नैना देवी ने शिकायतों का पिटारा खोल दिया – दबे स्वर में अपने मन की भड़ास निकालती रही – जब मन का गुबार कुछ हल्का हुआ तो बेटी से शिकायत करने लगी – ” अब तो तुम भी मिलने नहीं आती।”

 

” मम्मी दूसरे मुहल्ले से नहीं – दूसरे शहर से आना है – जब चाहूँ तब स्कूटी स्टार्ट कर चली आऊँ – ये नहीं हो सकता ।”

 

” फिर मैं क्या करूँ ? अब मेरा जी बिल्कुल नहीं लगता ।”

 

” मैं संध्या भाभी से बात करती हूँ ।”

 

“अरे नहीं , गलती से भी नहीं , वो खामख्वाह झगड़े करेगी – मुझसे भी और तुमसे भी।”

 

” फिर चाहती क्या हो ?”

 

” मुझें अपने साथ ले चलो।”– नैना देवी ने अनुनय किया।

 

” मम्मी पागल न बनो – डॉक्टर ने तुम्हें कम्प्लीट बेडरेस्ट के लिये कहा है – मैं अगर लाना भी चाहूँ तो भी ये सम्भव नहीं।”

 

” फिर तुम ही आ जाओं।”

 

” ठीक है, मैं सुदेश जी से बात करके बताऊँगी।” – कामिनी ने तिक्त भाव से कहा और अपनी तरफ से वार्तालाप का पटाक्षेप कर फोन रख दिया ।

 

सुदेश जी कामिनी के पति थे। फोन अभी डिस्कनेक्ट नहीं हुआ था – अतः नैना देवी बेटी से जबाब की प्रत्याशा में अभी भी फोन कान से लगाये हुए बैठी थी – तभी स्पीकर से दामाद की क्षीण सी आवाज़ आयी –” तेरी मम्मी चाहती क्या है ?”

 

” माँ चाहती है कि मैं उन्हें यहाँ अपने पास ले आऊँ!”

 

” तो ले आओ प्रॉब्लम क्या है ?”

 

” एक तो डॉक्टर ने उन्हें कम्प्लीट रेस्ट कहा है – दूसरा वो दो सौ किलोमीटर की यात्रा कैसे कर पायेंगी?”

 

” तुम चाहों तो मैं सब व्यवस्था कर सकता हूँ –चाहों तो ट्रेन से कम्फर्टेबल जर्नी करवा दूँ या AC एम्बुलेंस का इंतज़ाम कर दूँ – चाहों तो कुछ दिनों के लिये माँ के पास चली जाओ।”

 

” जी नहीं, एक तो मैं मेरा घर अस्पताल नहीं बनाना चाहती – दूसरे मैं आया भी नहीं बनना चाहती ।”

 

” देख लो, तुम्हारी ही मम्मी है – बाद में ये न कहना कि मेरे कारण तुम अपनी माँ को यहाँ नहीं ला सकी – मेरी तरफ से कोई प्रॉब्लम नहीं है।” 

 

” तुम्हें क्यों प्रॉब्लम होगा !  बल्कि, तुम्हें तो बहाना मिल जायेगा अपने माँ-पापा को गाँव से यहाँ लाने के लिये।”

 

“तुमसे तो बात करना भी बेकार है।” – सुदेश का झुंझुलाया स्वर।

 

नैना देवी से और आगे सुना नहीं गया – उन्होंने फोन डिस्कनेक्ट करके धीरे से बिस्तर पर रख दिया।

 

उधर से आ रही आवाज़ मद्धिम थी पर स्प्ष्ट थी – नैना देवी ने सब कुछ सुना था और समझा भी था।

 

वाह बेटी वाह ! – सिर्फ तुम्हारी बातें ही मीठी-मीठी रहती थी – भाभियों में कमी ढूंढने वाली – माँ को भड़काने वाली – तुम मायके तो आओगी पर अपनी सुविधा से – अपनी जरूरत से – जैसे, मायका कोई टूरिस्ट प्लेस हो – पिकनिक स्पॉट हो – जहाँ जब मर्ज़ी हो आओ – जब मर्जी हो चली जाओं – अच्छा खाना – सेर सपाटा – लौटते समय कोई गिफ्ट भी – वाह भाई वाह । मज़े ही मजे।

 

दुनियां में दो तरह के लोग होते है – एक जिसे करना होता है उसके साथ मजबूरी होती है कि सीमित साधनों में बेहतर से बेहतरीन करने की कोशिश करनी होती है और एक उस तरह के लोग जिसे सिर्फ किये हुए काम में नुक्स निकालना होता है – बिना मांगें सलाह देना होता है।

 


नैना देवी अभी विचारों के भंवर से निकल भी नहीं पायी थी कि अंदर के कमरे से एक जोर की चीख की आवाज़ आयी जो जल्दी ही तेज़ क्रुन्दन में बदल गयी। 

 

नैना देवी ने आवाज़ पहचान ली – संध्या चित्कार मार-मार कर रो रही थी – नैना देवी के मन में घोर अनिष्ट की आशंका हुई और अब वह पलंग पर बैठी न रह सकी। वह पूरी शक्ति लगा कर पलंग से उतरी और छोटे-छोटे कदमों से संध्या के कमरे में पहुँची – संध्या फर्श पर बैठी हुई बदहवास-सी निरन्तर रो रही थी।

 

” क्या हो गया ?” – नैना देवी घबरा कर पूछी।

 

” म – म – मेरे – प – प – पा – पापा।”

 

” क्या हुआ तुम्हारें पापा को ?”

 

” आधे घँटे पहले रोड एक्सीडेंट में ऑन स्पॉट !” – संध्या नैना देवी के पॉव से लिपट कर रोती हुई बोली फिर अचानक ज़ैसे ही संध्या को कर्तव्य बोध हुआ वह घबरा कर बोली –” मम्मी आप यहाँ क्यों आयी।”

 

” वो सब छोड़ – तुम्हारें पापा को हुआ क्या ?” – नैना देवी एक स्टूल पर बैठती हुई बोली।

 

” पापा बाइक से ऑफिस के काम से निकले थे – उन्होंने हेलमेट भी नहीं लगा रखा था –कोई नवसीखिया कार वाले ने टक्कर मार दी – चोट सिर में लगीं और वहीं ऑन स्पॉट पापा की डेथ हो गयी।” – कह कर सास के कदमों से लिपटी संध्या फफक पड़ी।

 

नैना देवी सन्ध्या का सिर सहलाती रही उसे मौखिक संतावना देती रही। फिर , अपने आँचल से उसके आँसू पोछती हुई बोली –” जो हुआ सब विधि का विधान समझों – अब अपना कर्तव्य पूरा करो।”

 

” क्या करूँ?”

 

” मायके जाने की तैयारी करो – डेढ़ सौ किलोमीटर की दूरी ज्यादा से ज्यादा चार घँटे में पूरी हो जायेगी ।”

 

” पर मम्मी मैं आपको ऐसी हालत में छोड़कर कैसे जा सकती हूँ।”

 

” मेरा मोबाइल ला कर दे और अपना सामान पैक करो।”

 

” प – पर मम्मी!”

 

” जो कहा, सो करो , देर मत करो ।” – बीमार नैना देवी के होठों से निर्णायक कठोर स्वर निकला।

 

संध्या मोबाइल ला कर नैना देवी को थमा दी।

 

नैना देवी ने बेटे प्रभात को फोन लगाया – वस्तुस्थिति समझायी और आदेश दिया कि तुरन्त दुकान बंद करें या नोकरो के हवाले करें और संध्या को साथ ले कर उसके मायके जायें।

 

” पर माँ आपको ऐसी हालत में –!”

 

” कुछ नहीं होगा मुझें – मैं जयंत के नर्सिंग होम में कुछ दिनों के लिये भर्ती हो जाऊँगी – बच्चों को भी साथ लेता जा – बात को इस तरह समझों कि औरत के लिये मायका :  बेटियों का टूरिस्ट प्लेस – सिर्फ छुट्टियां मनाने के लिये हॉलिडे होम नहीं होता – मायके के प्रति भी उसके कुछ कर्तव्य होते है जिसे पूरा करना ही होता है।”

 


” माँ अगर कामिनी को बुला ले तो ?”

 

” तुम कोशिश करके देख लो पर मैं गायरन्टी करती हूँ कि वो नही आयेगी – तेरी बहन के पास बहानों का खजाना  है – कोई न कोई मजबूरी बयान करेगी – एक काम और करो !”

 

“क्या?”

 

” आते समय बच्चों को स्कूल से लेते आना – यहाँ संध्या सामान पैक कर रही है – एक ड्राइवर भी बुक कर लेना –अपनी कार से जाओगे तो समय भी बचेगा।”

 

महज़ दो घँटे के अंदर – नैना देवी जयंत के अस्पताल में नर्सो के हवाले थी और दूसरी तरफ संध्या पति और बच्चों के साथ मायके की ओर जा रही थी।

 

पिता की मृत्यु के लिये वह शोक मना रही थी पर उसे खुशी थी कि नैना देवी जैसी समझदार महिला उसकी सास थी।

 

समय कम होने के कारण – ड्राइवर की व्यवस्था नहीं हो पायी थी – इसलिये, कार प्रभात चला रहा था।

 

                                            

अरुण कुमार अविनाश

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