चाहत का मायका उसके लिए सबसे बड़ा उपहार था। जब भी वह अपने मायके की चौखट पर कदम रखती, उसे ऐसा लगता मानो सारा संसार उसके स्वागत में खड़ा हो गया हो। एक आवाज़ पर सब दौड़े चले आते, उसकी हर छोटी-बड़ी खुशी का ध्यान रखते।
चाहत की ननद की शादी थी। इस अवसर पर उसके मायके से दो साड़ियाँ और स्वर्ण आभूषण में कान की एक जोड़ी बाली आई थी। यह देखकर उसकी जेठानी, जो सदा अपनी धाक जमाने के लिए तत्पर रहती, सबके साथ बैठकर चाहत और उसके मायके वालों का मजाक उड़ाने लगी। उसकी जेठानी के मायके से, ननद के कपड़ों के अलावा, घर के सभी सदस्यों के लिए कपड़े और आभूषण आए थे। ननद के लिए कान की बाली के साथ-साथ पायल और बिछिया भी भेजे गए थे।
“क्या बस यही भेज पाये तुम्हारे मायके वाले?” जेठानी की आवाज में तंज और गुरुर था। उसकी बातों में आकर चाहत के मन में भी उथल-पुथल मच गई थी।
चाहत को याद आया, जब उसकी माँ ने उससे शादी के लेन-देन के बारे में पूछा था, तो उसने स्पष्ट कहा था, “माँ, हमें दिखावे की होड़ में नहीं पड़ना है। जितना और जो उचित हो, बस वही करना।” चाहत ने कभी अपने मायके वालों पर बोझ नहीं डाला। उसे पता था कि उसके माता-पिता ने अपनी क्षमता के अनुसार ही सब कुछ भेजा है।
चाहत की जेठानी का परिवार आर्थिक रूप से संपन्न था, लेकिन पढ़ाई-लिखाई में कम थे। ठेकेदारी के बल पर उन्होंने खूब पैसा जोड़ा था, जिसके कारण उनके लिए किसी भी चीज का मोल नहीं रह गया था। दूसरी ओर, चाहत का परिवार शिक्षा में विश्वास रखता था और उन्होंने अपनी सीमाओं में रहकर ही सब कुछ किया था।
चाहत ने सोचा, “चाहे बड़े हों या छोटे, हम सब एक ही घर में रहते हैं। ना तो जेठानी के घरवालों ने उनका विवाह किसी अमीर खानदान में किया है, ना ही मेरे घरवालों ने। फिर गुरुर किस बात का? आखिर दोनों एक ही नाव पर सवार हैं।” चाहत ने अपने दिल को मजबूत किया और जेठानी की बातों को अनसुना क़र दिया।
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कुछ समय बाद, चाहत को उसकी जेठानी के साथ जेठानी का मायके जाने का मौका मिला। जेठानी ने सोचा, “इस बार चाहत को अपने मायके की भव्यता दिखाऊँगी और उसका मुँह बंद कर दूँगी।” वह चाहत को लेकर अपने मायके पहुँची।
लेकिन वहाँ पहुँचने पर, एक अजीब सी खामोशी थी। जेठानी के मायके वालों ने उनके स्वागत में कोई विशेष तैयारियाँ नहीं की थीं। जब उन्होंने अपनी बेटी के आने की खबर सुनी, तब भी उनमें से कोई मिलने नहीं आया। चाहत की जेठानी ही सबसे मिलने आस पास गई। लेकिन सभी ने कोई ना कोई बहाना बनाकर उनके साथ समय बिताने में असमर्थता जताई। चाहत के सामने यह सब देख जेठानी असहज हो गई। उसके मायके वालों का व्यवहार ठंडा और उपेक्षापूर्ण था। केवल जेठानी के माता पिता ही सेवा सत्कार में लगे थे।
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“अरे दीदी, आप कब आईं। हमें पता नहीं चला। अभी बच्चे को स्कूल से लेकर आती हूँ।”
कौन बैठे इनके पास, मुँह पर लगाम ही नहीं है। जब तब आ जाती हैं और आस पड़ोस के घर-घर घूमती हैं और कहेंगी सब उन्हें कितना मानते हैं।” अपनी पड़ोसन के साथ जाती हुई छोटे भाई की पत्नी फुसफुसाकर लेकिन कमोबेश ननद को सुनाती हुई कहती हैं।
छोटे भाई की पत्नी की आवाज दोनों तक पहुँची और जेठानी ने सोचा, “क्या मेरा गुरुर और दिखावा ही मेरे रिश्तों को कमजोर कर रहा है?” वह अंदर से खुद को दरका हुआ महसूस क़र रही थी। चाहत यह सब चुपचाप देख रही थी, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।
ये सब देखकर चाहत को अपना मायका याद आया, तो उसे वहां की गर्मजोशी, प्रेम और अपनापन याद आया। उसने सोचा, “सच्चे रिश्ते धन-दौलत पर नहीं, बल्कि प्रेम और सम्मान पर आधारित होते हैं।”
जेठानी भी शायद चाहत के मनोभाव को समझ रही थी। वह चाहत से माफी माँगते हुए कहती है, “मुझे माफ़ कर दो चाहत। मैंने हमेशा तुम्हारे मायके का मजाक उड़ाया, लेकिन आज समझ आया कि असली धन तो संस्कार और प्रेम है।”
चाहत ने उसे गले लगाते हुए कहा, “भाभी, गुरुर और दिखावा क्षणिक होते हैं। असली मानवीय मूल्य और संबंध ही सच्ची संपत्ति हैं।”
इस घटना के बाद, जेठानी का गुरुर पूरी तरह से टूट गया। उसने समझ लिया कि जीवन में सम्मान और प्रेम धन-दौलत से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। चाहत और उसकी जेठानी के बीच का संबंध और मजबूत हो गया और अब दोनों बिना किसी गुरुर व दिखावे के वास्तविक जिंदगी के मजे लेती साथ साथ खिलखिलाती थीं।
आरती झा आद्या
दिल्ली