‘ मैंने तो भरोसा किया था किन्तु आपने… ‘ – विभा गुप्ता 

   ” आई एम साॅरी दिनेश, सुशीला जी ठीक हैं लेकिन मैं आपके बच्चे को नहीं बचा सका।” डाॅक्टर ने कहा तो दिनेश ने किसी तरह से खुद को संभाला।शादी के पाँच बरस बाद उसकी पत्नी को मातृत्व-सुख मिला भी तो क्षणिक।

अब वह उससे क्या कहेगा,कैसे कहेगा, वह  समझ नहीं पा रहा था।किसी तरह से अपनी सारी हिम्मत बटोर कर उसने सुशीला से कहा कि देवी माँ पर भरोसा रखो, वह जो भी करेंगी, अच्छा ही करेंगी।और अभी हमारी उम्र ही क्या है।अगले साल देवी माँ की कृपा फिर से…।इतना सुनते ही सुशीला दिनेश के गले लग रो पड़ी।

           एक दिन बाद ही वह घर वापस आ गई।जिस घर में उसके बच्चे की किलकारी गूँजती, वहाँ अभी सन्नाटा पसरा हुआ था।वो बदहवास-सी हो गई।उसकी कामवाली बिंदिया अपनी मालकिन का पूरा ख्याल रख रही थी।    

             बिंदिया का पति एक सप्ताह के लिए शहर से बाहर चला गया तब वह अपने चार वर्षीय बंटी को अपने साथ ही काम पर लाने लगी।वह काम करती और बंटी एक कोने में बैठकर खेलता रहता।सुशीला उसे खेलते देख खुश होती, धीरे-धीरे वह बंटी के पास आने लगी।

कभी उसके साथ खेलने लगती तो कभी बिंदिया के हाथ से बंटी को लेकर खुद ही उसे खाना खिलाने लग जाती।वह बंटी के आसपास ही रहने का प्रयास करती।यह सब देखकर दिनेश समझ गया कि सुशीला बंटी को पसंद करती है लेकिन कुछ दिनों बाद जब बिंदिया बंटी को ले जायेगी तब क्या होगा, यह सोचकर वह परेशान हो गया और एक दिन उसने बिंदिया से बंटी को गोद लेने की बात कही।

          अपने जिगर का टुकड़ा किसी दूसरे को सौंपना,एक माँ के लिए बहुत कठिन होता है।गरीब ही सही, पर है तो वह भी एक माँ।उसके पति ने भी साफ़ इंकार कर दिया।बंटी के न आने से सुशीला की सेहत फिर से बिगड़ने लगी,

अब तो वह नींद में भी बंटी-बंटी ही पुकारती।उसकी हालत देखकर बिंदिया को भी दुख होता पर वह अपनी ममता से मजबूर थी।दिनेश से सुशीला की हालत देखी नहीं गई।

वे बिंदिया और उसके पति से बंटी के लिए हाथ जोड़कर मिन्नतें करने लगे।दिनेश ने तो यहाँ तक कह दिया कि कहो तो मैं लिख कर दे दूँ कि मेरी सम्पत्ति का वारिस बंटी ही रहेगा।

         बिंदिया से अपने मालिक-मालकिन का दुख देखा नहीं गया।वह बोली, ” मालिक, हमारे बंटी को आपकी संपत्ति नहीं, आप दोनों का प्यार और विश्वास चाहिए।कहीं ऐसा न हो कि कल आप उसे दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक दें और मेरे बेटे का दिल टूट….।” 




       ” नहीं-नहीं बिंदिया,ऐसा कभी नहीं होगा।मुझ पर भरोसा रखो,तुम्हारा बंटी हमारी आँख का तारा है और हमेशा रहेगा।” कहते हुए दिनेश की आँखों में एक विश्वास था जिसे देखकर बिंदिया ने अपने कलेजे के टुकड़े को दिनेश के हाथ में सौंप दिया।मन में एक तसल्ली भी थी कि मालिक के पास रहकर उसके बेटे का भविष्य बन जाएगा।

           बंटी के घर आते ही सुशीला फिर से हँसने-बोलने लगी।बंटी का सारा काम वह स्वयं करती, नहलाना-धुलवाना, खिलाना, घुमाना इत्यादि।किसी को भी हाथ नहीं लगाने देती।अब बंटी भी उसे माँ कहने लगा था।

     शहर के सबसे महंगे स्कूल में बंटी का एडमिशन हो गया। सुशीला का पूरा समय अब बंटी को स्कूल भेजने और उसकी पढ़ाई संबंधी प्रोजेक्ट बनाने में बीतने लगे।

        बंटी को यहाँ आये अभी छह महीने भी नहीं हुए थे कि एक साथ दो चमत्कार हो गये।सुशीला फिर से गर्भवती हो गई और पिछले चार वर्षों से चल रहा दिनेश के एक ज़मीन के मुकदमे का फ़ैसला उसके हक में हो गया।यही नहीं,उसके कारोबार में भी तरक्की होने लगी।दोनों पति-पत्नी के लिये बंटी तो एक ईश्वरीय वरदान था।दिनेश ने अपनी जीती हुई ज़मीन बंटी के नाम लिख दिया।

           नौ महीने बाद सुशीला ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम आशीष रखा गया।सुशीला बिना किसी भेदभाव के बिंदिया की मदद से दोनों बच्चों को पालने लगी।बंटी के लिये तो आशीष एक खिलौना था।स्कूल से आकर वह अपने छोटे भाई के साथ खेलने लग जाता था।

          आशीष की पहली सालगिरह पर दिनेश ने अपने दोस्तों तथा रिश्तेदारों को बड़ी पार्टी दी।सुशीला का भाई श्रीधर भी अपने भांजे को आशीर्वाद देने आया तो फिर वापस नहीं गया।दिनेश को भी अपने बढ़ते कारोबार के लिये एक अपने भरोसेमंद आदमी की आवश्यकता थी, फिर श्रीधर तो उसका अपना साला था,अगले दिन से ही वह श्रीधर को अपने साथ दफ़्तर ले जाने लगा।




           समय के साथ बच्चे भी बड़े होने लगे।बंटी नवीं कक्षा में और आशीष चौथी कक्षा में पढ़ने लगे थें। दिनेश को लगा कि अब सबकुछ व्यवस्थित हो गया है परन्तु ये उसका भ्रम था। एक तरफ़ श्रीधर दफ़्तर में अपनी जगह बना रहा था,

वहीं दूसरी ओर वह अपनी बहन सुशीला को बंटी के खिलाफ़ भी भड़का रहा था।पहले-पहल तो सुशीला श्रीधर की बातों को अनदेखा करने लगी, किन्तु औरत का दिल…।जब कैकयी एक दासी की बातों में आने से खुद को नहीं रोक पाई तो भला सुशीला की क्या बिसात।

मौके-बेमौके श्रीधर उसे अपने-पराये,मालिक-नौकर का पाठ पढ़ाता रहता और वह पढ़ती जाती।

           दिनेश श्रीधर पर इतना विश्वास करने लगे थें कि बिना पढ़े ही कागजात पर और ब्लैंक चेक पर साइन कर देते।कंपनी के कुछ फैसले भी श्रीधर स्वयं लेने लगा।घर में भी वह छोटी-छोटी बातों पर बंटी की बेइज़्जती करता, बेवजह बहन से बंटी की शिकायत करता और बंटी जब अपनी सफ़ाई में कुछ कहना चाहता तो सुशीला चिढ़ जाती।

एक दिन तो उसने बंटी को यहाँ तक कह दिया कि नौकर के बेटे हो, औकात में रहो।बंटी अब बच्चा नहीं था,माँ का बदलता व्यवहार उसे अंदर तक दुखी कर देता था।उस दिन दिनेश ने सुशीला को बहुत डाँटा कि तुम क्या कह रही हो? बंटी की वजह से ही तुम्हारे जीवन में खुशियाँ आईं हैं और तुम इसे ही….।

लेकिन उसने दिनेश की बात को भी अनसुना कर दिया।बिंदिया के सीने पर तो जैसे छुरी-सी चल गई हो।एक मन किया कि अभी बेटे का हाथ पकड़कर चल दे, फिर मालिक का ख्याल कर वह खून का घूँट पीकर रह गई।

          एक दिन दिनेश को पता चला कि श्रीधर ने कंपनी के हिसाब में हजारों रुपयों की घपलेबाजी की है।उसने तुरंत श्रीधर से जवाब माँगा,श्रीधर तो तैयार ही था।बेशर्मी से हँसते हुए वो चेक दिखा दिया जिसपर दिनेश ने बिना रकम लिखे ही हस्ताक्षर कर दिये थें।

वह इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाया।उसका आधा शरीर पक्षाघात का शिकार हो गया और बोलने की 70% शक्ति भी चली गई।

अब वह घर पर रखी एक वस्तु-मात्र था।बिस्तर पर लेटे-लेटे ही वह श्रीधर की चालाकियाँ और बंटी के प्रति सुशीला का उपेक्षित व्यवहार देखता तो उसकी आँखों से लाचारी के आँसू बहने लगते।




            कारोबार तो श्रीधर की मुट्ठी में आ ही चुका था,अब बंटी उसकी आँखों में खटकने लगा।एक दिन सुशीला ने बिंदिया से पूछा कि मेरी हीरे की अंगूठी नहीं मिल रही है, तुमने देखी है।बिंदिया ने कहा, ” नहीं तो।

” तभी श्रीधर आकर बोला, ” बहना, आज सुबह ही मैंने बंटी को तुम्हारी अंगूठी अपने पाॅकेट में रखते देखा है।” बस फिर क्या था, स्कूल से आते ही सुशीला मासूम बंटी पर टूट पड़ी।क्या-क्या न कहा उसने पर वह चुपचाप सुनता रहा।

जब उसने कहा कि मामाजी ने… तड़ाक से सुशीला के हाथ का थप्पड़ उसके गाल पर छप गया।वो थप्पड़ बंटी के साथ-साथ बिंदिया के गाल पर भी पड़ा था।वो तुरंत बंटी को अपने सीने से लगाते हुए बोली, ” बस मालकिन, बहुत हो गया।

मालिक पर भरोसा करके ही आपके मातृत्व-सुख के लिए मैंने अपनी ममता का गला घोंट दिया था।मैंनें तो आप पर विश्वास किया था, लेकिन आप तो…कहकर वह बंटी को लेकर जाने लगी तो सुशीला गुस्से से बोली , ” ठहर तो,अभी पुलिस को बुलाती हूँ।

” श्रीधर बोला, ” रहने दो बहना, पराए लोगों पर कभी विश्वास करना ही नहीं चाहिए।” सुनकर बिंदिया पलटी और दोनों को घूरकर देखा, जैसे कह रही हो- हाँ,सही कहा आपने, परायों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।

         कुछ दिनों बाद श्रीधर की अलमारी की सफ़ाई करते समय ऑफ़िस के कुछ कागज़ात सुशीला के हाथ लगे,साथ ही वह अंगूठी भी उसे मिली जिसके लिए उसने बंटी को थप्पड़ मारा था।वह समझ गई कि सारी कारिस्तानी और साज़िशें श्रीधर द्वारा ही रची गई थी।अपने भाई पर अंधविश्वास करके उसने बहुत बड़ी गलती की थी।

      इधर सुशीला पछतावे की आग में जल रही थी कि उसने अपने भाई पर विश्वास करके बिंदिया का भरोसा तोड़ दिया और उधर बिंदिया अपने बेटे को सीने से लगाये सुबक रही थी कि उसने मालिक पर भरोसा क्यों किया?

               —-विभा गुप्ता 

            भरोसा महज़ एक शब्द नहीं है, एक भावना है जो एक दिल का दूसरे दिल से होता है।काँच की तरह होता है विश्वास, जो टूट जाए तो फिर जुड़ता नहीं है।

        # भरोसा

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