माफ़ी का क्या करुॅं – विभा गुप्ता

” कंचन सुन, चाय के साथ थोड़ी पकौड़ियाॅं भी तल लेना। मेरी रेशमा काॅलेज से थकी-हारी आई है, बेचारी को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, मोटी- मोटी किताबों में सिर खपाना….।”

  ” जानती हूँ मामी।रेशमा के लिए पकौड़ियाॅं भी तल दूॅंगी।” कंचन ने अपनी मामी मालती से कहा और प्याज काटने लगी। 

     कंचन मालती जी की इकलौती ननद सविता की बेटी थी।सविता की शादी अच्छे परिवार में हुई थी।उसका पति अपने पिता के कारोबार को संभालता था।अच्छी आमदनी थी और सास-ससुर भी अपनी बहू को काफ़ी मान-सम्मान देते थें।विवाह के तीन बरस बाद जब कंचन पैदा हुई तो उसकी आशा के विपरीत उसके सास-ससुर ने पोती की खुशी में एक बड़ी पार्टी भी रखी थी।सब कुछ अच्छा चल रहा था, सविता का पति बेटी को पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा करने के सपने देखा करते थें, अक्सर पत्नी से कहते भी थें कि देख लेना सविता, एक दिन बेटी से ही हमारी पहचान होगी। 

       परन्तु सोचा हुआ कब किसी का पूरा हुआ है।एक दिन काम पर से लौटते वक्त सविता का पति सड़क पार कर रहें थें कि तेजी- से आती हुई एक जीप उन्हें कुचलती हुई चली गई।क्षण भर में सविता की दुनिया उजड़ गई।कंचन तब नौवीं में पढ़ रही थी।पति की मृत्यु के कुछ दिनों तक तो उसके ससुराल में सब ठीक चला लेकिन फिर उसकी सास को बहू और पोती मनहूस नज़र आने लगी।बेवजह ही कंचन को टोकना उनकी आदत बनने लगी तब सविता ने अपने बड़े भाई सतीश जी से आग्रह किया कि माँजी की रोक-टोक और अपमान मैं तो सह लूॅंगी लेकिन कंचन की पढ़ाई पर बुरा असर हो रहा है।अगर आप उसे कुछ दिनों के लिए बुला लेते…। 




  ” हाँ -हाँ सविता, क्यों नहीं।मेरे लिए तो रेशमा और कंचन में कोई फ़र्क़ नहीं है।” कहकर सतीश जी अपनी भांजी को ले आये।सतीश जी की बेटी रेशमा कंचन से साल भर छोटी थी, फिर भी वह कंचन के साथ बराबरी का व्यवहार करती थी।छोटी- छोटी बात पर रेशमा का कंचन से लड़ना और फिर मालती जी का अपनी बेटी का ही पक्ष लेना, मालती की सास यानि कंचन की नानी को अच्छा नहीं लगता था।उन्होंने बेटे- बहू को समझाने की कोशिश भी की पर कोई फ़ायदा नहीं। 

        कंचन के नाना तो थें नहीं, नानी ने भी जब हमेशा के लिए ऑंखें मूॅंद ली तो उसकी मामी ने अपने किचन की पूरी ज़िम्मेदारी उसे दे दी। मेरी कंचन, मेरी प्यारी कंचन जैसे शब्दों का प्रयोग करके मालती जी उसकी पढ़ाई का समय भी रसोई में झोंक देती और वह ‘जी मामी’ कहकर मुस्कुरा देती।पढ़ाई में होशियार कंचन अपनी मामी-बहन की सेवा करके भी हर परीक्षा अच्छे अंकों से पास करती जा रही थी।इसीलिए उसने हॅंसकर मामी की आज्ञा का पालन 

करते हुए कहा कि रेशमा के लिए चाय के साथ पकौड़ियाॅं भी तल दूॅंगी। 

       कंचन बीए के फाइनल परीक्षा की तैयारी कर रही थी। दिन में तो उसे समय मिलता था नहीं, इसलिए देर रात तक वह पढ़ती रहती।रेशमा का ममेरा भाई रंजीत अपनी बुआ से मिलने आया हुआ था।हमउम्र होने के कारण कभी-कभी उससे भी हॅंसी-ठिठोली कर लेता था।मज़ाक तक तो बात ठीक थी लेकिन एक दिन जब रंजीत ने उसे गलत इरादे से छूने की कोशिश की तो उसने मामी से कहा।मामी ने हॅंसकर टाल दिया तो फिर मामा से कहा कि रंजीत उसके साथ बत्तमीजी करता है तो सतीश जी भी रंजीत को कुछ कहकर अपनी पत्नी के भाई से संबंध बिगाड़ना नहीं चाहते थें।सो यहाँ भी उसकी सुनवाई नहीं हुई और फिर एक दिन…., गर्मी के दिन थे, रात को सभी अपने कमरे में आराम से सो रहें थें और वह छत पर अकेली बैठी पढ़ रही थी कि पीछे से आकर रंजीत ने उसे दबोच लिया।वह चिल्लाई,दोनों के बीच छीना- झपटी होने लगी और फिर वह रंजीत के चंगुल से खुद को बचाकर तेजी- से नीचे की ओर भागी।उसने मामा-मामी को जगाकर रोते हुए रंजीत की काली करतूत बताई। तब तक रंजीत भी आ गया,रोनी सूरत बनाते हुए मालती जी से बोला, ” बुआ, कंचन ने मेरे साथ जबरदस्ती …, बुआ, अब मैं यहाँ नहीं रह सकता, मैं अभी जा रहा….।”

       मायका तो हर स्त्री की कमज़ोरी होती है, सो मालती जी तुरंत रंजीत का हाथ पकड़कर पति से बोलो, “सुनो जी,अब बहुत हो गया।मेरा भतीजा कहीं नहीं जाएगा, आप अभी के अभी इस कुलंछनी को यहाँ से विदा करो।” सतीश जी अब भी चुप थें और मामी का फरमान सुनकर कंचन तो चकित ही रह गयी। 




        अगले दिन सविता को बुलाकर सतीश जी ने कंचन को उसके हवाले कर दिया गया।सविता ने बेटी की ऑंखों से बहते ऑंसुओं में पूरी कहानी पढ़ ली थी।जाते हुए उसने मालती जी से इतना ही कहा कि भाभी, जो कलंक आपने मेरी मासूम बेटी पर लगाया है,उसके लिए तो भगवान भी आपको माफ़ नहीं करेंगे।

          मायके के अहंकार में डूबी मालती जी पर सविता की बात का कोई असर नहीं हुआ।कंचन बीए की परीक्षा नहीं दे पाई।सविता ने अपनी सहेली प्रज्ञा के बेटे प्रकाश के साथ उसका विवाह कर दिया। 

          इधर रंजीत ने एक दिन रेशमा की सहेली के साथ छेड़खानी की, सहेली के पिता पुलिस थें,उन्होंने रंजीत को अरेस्ट कर लिया, सतीश जी की बदनामी होने लगी।किसी तरह से रंजीत की जमानत करवाकर उसे वापस भेज दिया। इन सब परेशानियों के बीच रेशमा परीक्षा में फ़ेल हो गई, तब मालती जी ने अच्छा परिवार देखकर बेटी का ब्याह कर दिया। 

      हम जो भी कर्म करते हैं,अच्छा या बुरा,उसका पूरा लेखा-जोखा भगवान के खाते में लिखा रहता है।रेशमा के पति को जुए की लत लग गयी और वह अपनी पूरी कमाई उसी में झोंकता चला गया।इधर-उधर से माॅंग-ताॅंगकर वह अपने परिवार का गुजारा कर रही थी। उधर सतीश जी भी असाध्य बीमारी से ग्रसित हो गए, जमा- पूंजी उसी में खर्च होने लगी तो बेटी की मदद कहाँ से कर पाते।

         रेशमा के सास-ससुर जब तक रहें, बेटे की मदद करते रहें। उनके गुजर जाने के बाद तो स्थिति और बिगड़ गई।कर्ज़ के बोझ से दबा उसका पति पगला-सा गया था। रेशमा को अपनी बड़ी हो रही बेटी की चिंता सताने लगी कि उसकी पढ़ाई-विवाह इत्यादि सब कैसे होगा?तब उसका देवर नीलेश ने ही आगे बढ़कर कहा कि कृति (रेशमा की बेटी) को मैं ले जाता हूँ, कुछ दिनों में आपके हालात ठीक हो जाएंगे तो मैं उसे भेज दूॅंगा। रेशमा ने नीलेश को बहुत दुआएँ दी और कृति अपने चाचा-चाची के यहाँ रहने लगी।नीलेश ने एक काॅलेज में उसका नाम भी लिखवा दिया। 

           काॅलेज तो एक बहाना था, नीलेश की पत्नी ने तो कृति को अपने घर के काम-काज के लिए बुलाया था।रसोई संभालने और मेहमानों की खातिरदारी से फुर्सत मिलती तो वह अपनी चाचा की सेवा करने लगती।किताब देखना तो उसके लिए एक सपना बनकर रह गया था।रेशमा की मजबूरी ऐसी थी कि उसे बेटी की तकलीफ़ को अनदेखा करना ही पड़ता था। 

        एक दिन नीलेश का साला प्रतीक(पत्नी का भाई) आया हुआ था। कृति को देखकर वह चौंक गया।नीलेश ने उसे सारी बात बताई तो प्रतीक के मन में एक दुर्भावना ने जन्म ले लिया और वह गाहे-बेगाहे अपनी बहन के घर आने लगा।कृति उसकी मंशा समझ रही थी लेकिन कहे भी तो कैसे। अपने चाचा के एहसान तले दबी थी।एक दिन खाली घर देखकर जब प्रतीक ने उसके साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की तो उसने चाची से प्रतीक की शिकायत करनी चाही, उससे पहले ही प्रतीक ने आकर नीलेश को कह दिया कि कृति उसके साथ गलत व्यवहार करती है और…




         इसके आगे नीलेश सुन न सके।कहते हैं ना कि सारी ख़ुदाई एक तरफ़, जोरु का भाई एक तरफ़। नीलेश ने रेशमा को बुलवाकर कहा कि भाभी, कृति का चाल-चलन ठीक नहीं है, अच्छा होगा कि आप उसे ले जाएं।सच जानते हुए भी रेशमा देवर को जवाब नहीं दे पाई और बेटी को लेकर आ गयी। 

       रेशमा ने मालती जी को अपनी पीड़ा बताई और रोते हुए बोली, ” माँ, नीलेश ने मेरी बेटी पर लाॅंछन लगाकर अच्छा नहीं किया, मैं उसे कभी माफ़ नहीं करुॅंगी।” मालती जी के सामने अतीत के पन्ने खुल गए, उन्होंने भी तो अपने मायके के मोह में अपनी देवी जैसी ननद को अपमानित किया था, निर्दोष कंचन को बदचलन कहा था।उन्होंने पति से कहा कि उसके ही बुरे कर्मों और सविता की बद्दुआओं का फल है कि आज हमारी बेटी दर ब दर की ठोकरें खा रही है।मैं सविता के पास जाकर अपनी भूल की माफ़ी माँगना चाहती हूँ।उसका दिल तो बहुत बड़ा है, हमें जरूर माफ़ कर देगी।

      ” हाँ-हाॅं, जरूर जाओ, उसके माफ़ कर देने से हमारी रेशमा के दुख दूर हो जाएंगे।अपने दरवाजे पर मालती जी को देखकर सविता अचंभित थी।अतिथि तो भगवान का रूप होते हैं, सो आदर से अंदर बिठाते हुए पूछी, ” गरीब ननद से आपको क्या काम पड़ गया भाभी।”

मालती जी झट-से ननद का हाथ पकड़ कर बोली, ” सविता, हमें माफ़ कर दो।अनजाने में कंचन और आपका अपमान करके जो मुझसे पाप हुआ है, उसी का फल हमलोग भुगत रहें हैं।तुम माफ़ कर दोगी तो रेशमा के सारे कष्ट दूर हो जाएंगे।”

   ” नहीं भाभी, मैं आपको कभी माफ़ नहीं कर सकती। आपकी वजह से मेरी कंचन की पढ़ाई अधूरी रह गई।आपके कारण ही उसे अपने पैर पर खड़े करने का उसके पिता का सपना पूरा न हो सका तो अब मैं आपकी माफ़ी लेकर क्या करुॅं? खुद की बेटी को कष्ट हुआ तो आपको मुझसे माफ़ी माँगने की याद आई।भाभी, किसी का गला काट कर फिर “साॅरी” कह देना आपके लिए कितना आसान है।पर मैं तो आपको हरगिज़ माफ़ नहीं कर सकती।हाँ, आप पहली बार मेरे दरवाजे पर आईं हैं तो चाय पीकर जाइएगा।” कहकर सविता रसोई की ओर जाने लगी तो मालती जी बोली, “नहीं सविता, इतनी दूर से तो मैं माफ़ी की आस लेकर ही आई थी, जब वही तुमने नहीं दी तो ….।”




 ” जैसी आपकी मर्ज़ी ” सविता अंदर चली गई और मालती जी अपने गुनाहों का बोझ लेकर जैसे आईं थीं, वैसे ही वापस चली गई। 

                            विभा गुप्ता

       #माफ़ी            स्वरचित

            गलती तो हर इंसान से होती है लेकिन माफ़ी माँगने में देर नहीं करनी चाहिए वरना माफ़ी शब्द का महत्व खत्म हो जाता है।

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