मां की ममता की छांव में(भाग,दो) – सुषमा यादव

भाग 1 

सावन में पड़े जब झूले,,

भाई ना बहना को भूले,

,,भाग एक में आपने,,शहर के मायके का टूरिस्ट प्लेस पढ़ा,,, अब आप गांव के मायके का टूरिस्ट प्लेस पढ़िए,,

ज़ी हां,सच में मायका एक बेटी के लिए टूरिस्ट प्लेस ही होता है, बल्कि उससे कहीं ज्यादा,, क्यों कि वहां स्वागत , सेवा सत्कार करने के लिए मां पिता भाई,बहन

होते हैं,, जिनसे हमें अपार स्नेह,आदर और प्यार मिलता है,,

,, मेरी बहन नहीं थी,पर परिवार में

बहुत सारी चचेरी बहन और भाई थे,,,, मैं भी सावन में अपने मायके गई थी,, छमछम बरसते पानी की फुहारें जब तन को भिगोती तो हमारे तन के साथ मन भी भीगकर रोमांचित हो जाते,

, हमारे गांव में पास में ही कलकल करती नदी बहती थी,, उसके पहले चारों तरफ खेत थे,धान की फसलें लहलहा रही थी,, गांव से नदी तक के रास्ते में

दोनों ओर आम, महुआ के बड़े बड़े पेड़ लगे थे,,बीच में जैसे बहुत बड़ा आंगन हो, उसके तीन तरफ़

हमारे पिता जी के छः सगे भाइयों और दो चचेरे भाइयों के घर बने हुए थे,,बीच से नदी की तरफ रास्ता जाता था,,हम बहने भाभियों के साथ नदी नहाने जाते


खूब मस्ती करते और सब कुछ कुछ दिनों के लिए भूल जाते,,

,,सावन में झूला तो अनिवार्य रूप से पड़ता था, वो भी आम,या नीम

के पेड़ पर,,पटरा वाला झूला,, जिसके दोनों किनारों पर दो लोग खड़ी होती और तीन चार बीच में बैठी रहती,, दोनों झूले को पेग मारती, और ये जा, वो जा, झूला जैसे आसमान से बातें करता,हम डर के मारे चिल्लाते,सब हंसती,पर झूला ना रुकता,, और फिर मधुर आवाज़ में,,सावन के

हरियाली गीत झूला झूलते शुरू हो जाते,,,,,

*** रेलिया चली जात,जिया लहके,,,,हरी मोर बसै दखिनवा ना,,

कौने रंग मोतिया,कौने रंग मुंगवा,कौन रंग ननदी तोर बिरना,, हो जी,,

,,या,,,हरे रामा बेला फूले आधी रात,, चमेली भिनसारे रे

हारी,,,

अथवा

भोला ने बो दी भांग, बुंदिया पड़ने लगी,,

सच में इन गीतों को सुनकर हम भावविभोर हो जाते थे, बरसों बीत गए पर हम आज़ भी कुछ नहीं भूले,,

सावन में हर घर की शादी शुदा लड़कियां मायके जरूर बुलाई जाती थीं,,भाई या परिवार का अन्य कोई बेटी के ससुराल बहुत सारा उपहार,अनाज वगैरह लेकर जाता, गुड़िया यानि नागपंचमी के

विशेष त्यौहार पर, और बहन, बेटी को विदा करके लाते,, नागपंचमी से रक्षाबंधन पर्व तक सबके लिए बहनों, बेटियों के लिए एक खूबसूरत टूरिस्ट प्लेस से कम नहीं होता था,,दिन भर पूड़ी, कचौड़ी, गुझिया और अरबी के पत्तों का पतोड़े बनाए जाते और दोपहर ढलते ही झूले की पेंग लगने लगती,, वो दिन भी क्या दिन थे,,,सारी बेटियों को नये,नये

गहने,हरी,हरी ढेर सारी चूड़िया और साड़ियां , तथा उपहार देकर उनकी विदाई की जाती थी,,

अब भी बड़ी याद आती है,,

वो नदियां वो किनारे, वो बाग , बगीचे,वो‌ लहलहाते हरे भरे खेत,

चहचहाते पक्षियों का कलरव,, शाम गोधुलि बेला में,गाय , भैंसों का रंभाते, दौड़ते अपने अपने, बच्चों से मिलने को बेताब,,आना, और आते ही उनको खुशी के मारे चाटने लग जाना,, मातृत्व का अनोखा दृश्य,

सब कुछ कितना, बेहतरीन, रंगीन और मनमोहक झांकियां,,

आज तो सब कुछ बिखर गया,,ना वो रीति रही, ना वो प्रीत रही,,ना वो समय रहा,ना वो

सूकून रहा,,

कभी मायका सच में एक खूबसूरत टूरिस्ट प्लेस से कम नहीं होता था,,***


जब कभी मैं अपने मायके जाती,,घर के अंदर जा ही नहीं पाती,, जल्दी से बाहर दालान में ही झट से चारपाई बिछा दी जाती,, कोई दौड़ कर धुली हुई झकाझक चादर ला कर बिछा देता,, अरे,हम सब सबेरे से ही निहारत रहे,,कि आज़ जरुरै कोउ मेहमान अहैय, मैं अचकचा कर पूछती,,आप सबको कैसे पता,,उ,, आज़ सबेरे से ही ना,कौआ, मुंडेर पर कांव कांव और पेड़ पर मुटरी,रट लगाए रही है ना,, तो ऐसा करने से मेहमान आते हैं,,, हां, पक्का,,,ओह,,उनका ऐसा विश्वास है,,इतने में एक दादी एक बड़े से फूल के गिलास में लाल , लाल गाढ़ा दही गुड़ डालकर ले आती,, हमारे यहां प्रतापगढ़ के गांव में बड़ी मां को दादी कहते हैं,और पिता जी के माता पिता को आजा,आजी कहते हैं,, एक भौजाई चावल के आटे की ढूंढी यानी लड्डू ले कर दौड़ी आई, एक चचेरी बहन लपक कर कुएं से ताजा ठंडा पानी भरने भागी,,

हमें ये सब देखकर बहुत ही सुखद अनुभूति होती,, एक विशिष्ट आतिथ्य का भाव मन में उठता,,सब छोटे बड़े से घिरे हुए हम, वाह, मज़ा आ जाता,, घूंघट में मुखड़ा छुपाये भाभियों हंसी ठिठोली करती,,, अम्मा कहती,बिट्टी,अब घर भी चलो,,

किसी भी समय दोपहर या रात को हम जहां बैठे रहते,हमारा भोजन वहीं होता,दादा, दादी, भैया,भौजी आने ही नहीं देते, बेटी पूरे गांव की मेहमान होती है

बढ़िया चूल्हे में बनी अरहर की दाल,मसाले वाली खटाई और लाल साबूत मिर्ची डाल कर शुद्ध देसी घी में हींग जीरा के तड़के के साथ,,हथपोइया रोटी बाजरे की,सांवा का भात,सिल पर पिसी

हरी धनिया हरे लहसुन की चटनी हमारा अतिप्रिय भोजन था,जिसे

खिलाने के लिए उन आठ परिवारों में होड़ सी लगी रहती, पता नहीं,कब मस्टराईन दीदी वापस चली जायें,,

सबका स्नेह, प्यार दुलार बहुत याद आता है,, वो स्वर्ग सा मायका बहुत याद आता है,, वो मां की गोद बहुत याद आती है,,

सुषमा यादव,, प्रतापगढ़,, उ प्र,

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