क्या खोया क्या पाया – डॉ उर्मिला सिन्हा

 

   आज जब अपने पचासवीं वैवाहिक वर्षगांठ पर पीछे मुड़कर देखती हूं तो सर्वप्रथम माई-बाबूजी भ‌ईया भाभी, दीदी का चेहरा मेरे आंखों के सामने नाचने लगता है।

   अपने आठ भाई-बहनों में सबसे छोटी … आठवें पायदान पर। पूरे घर की चहेती। अठारह वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे। घर में शहनाई बजने की तैयारी होने लगी। अपनी पेटपोंछनी बेटी को बिदा करने के लिए माई का मातृ हृदय असमंजस में था। जब भी घर में शादी विवाह की बात चलती वह बोल पड़ती,”अभी इसको पढ़ने दो,बी०ए०करने के बाद देखा जायेगा। सभी बेटियां चली गई कम-से-कम यह तो मेरे पास कुछ दिनों तक रहे। अभी यह दुनियादारी का क.ख.ग.भी नहीं समझती ;इसे विवाह की जिम्मेदारी में अभी बांधना उचित नहीं है।”

माई की आंखें भर आती वे उदास हो जाती। आज भी वह दृश्य मेरे मानस पटल पर अंकित है जो इस शुभ वेला में उनका आशीर्वाद बन छलक रहा है।

   छः फीट के हौसले वाले मेरे बाबूजी के लिए भी मैं नादान खिलंदड़ी खुशमिजाज और सभी के साथ घुल-मिल जाने वाली मासूम बिटिया थी।उनका वरदहस्त मेरे सिर पर था और आज भी उसी के छांव तले मैं किसी भी विकट परिस्थिति से लड़ने का साहस कर पाती हूं।

“बात चलने से विवाह थोड़े ही हो जाता है…”वे मां का दिलजम‌ई करते और शायद अपने आप की भी।

  इसी बीच दुनिया दारी में पारंगत मेरे मंझले भ‌ईया ने मेरे विवाह की बात सबकी सहमति से पक्की कर दी। पिता तुल्य मेरे बड़का भ‌ईया,मंझले भ‌ईया हम बहनों की बेहतरी के लिए सदैव तत्पर रहते।

   मेरे मंझले भ‌ईया को वर, उनकी भारत सरकार की नौकरी, उनके बड़े भाई घर-परिवार खेती बाड़ी इतना पसंद आया कि वे गदगद हो उठे।

“इतना तेजस्वी लड़का, सात्विक समृद्ध परिवार आज के युग में दुर्लभ है…”वे माई-बाबूजी को समझाने का प्रयत्न करते।




    इधर मेरे पूज्य सास-ससुर,स्नेह मयी बड़ी ननद,ननदोई ने मुझे देखा और तुरन्त पसंद कर लिया; सासु मां की खुशी का ठिकाना नहीं रहा,”मेरे घर में सांवली लड़की ही सहती है….”यही उनका उद्गार था। फिर चट मंगनी पट ब्याह।

    चूंकि मेरे पति आदर्शवादी हैं अतः किसी प्रकार का लेन-देन ,दान-दहेज , ताम-झाम को प्रश्रय नहीं।

   गांव जवार मेरे भाग्य पर रश्क करने लगा।”अरे वाह, इतना बढ़िया रिश्ता…!”

  मैं भला कब-तक अनजान बनी रहती। शादी विवाह का मतलब मेरी नज़रों में था–नये गहने कपड़े , नाना प्रकार की मिठाइयां, पकवान, रिश्तेदारों की गहमा-गहमी ढोलक की थाप पर नाच-गाना और बिदाई के समय कन्या का बुक्का फाड़कर रोना….”! मैं मानसिक रूप से तैयार होने लगी।

   बिहार की राजधानी पटना के पाटलिपुत्रा धर्मशाला में 14 जून 1970 को पाणिग्रहण संस्कार उल्लासमय वातावरण में सम्पन्न हुआ। क्योंकि बारात दक्षिण बिहार के सुदूर गांव से आई थी।सभी कृषक थे ।धान रोपाई शुरू होने वाली थी अतः उत्तर बिहार के आखिरी छोर के गांव बारात जाने को तैयार नहीं था। इसी लिए बीच का रास्ता अपनाया गया। उन दिनों गंगा पार स्टीमर से करना पड़ता था और समय ज्यादा लग जाता था। बारातियों को भी दो-तीन दिनों तक ठहराया जाता था।

  सुमंगली की रात मुसलाधार वृष्टि हुई। बारातियों के खुशी का ठिकाना नहीं रहा,”कनिया के पांव का लक्षण बड़ा शुभ है अभी गांव पहुंची भी नहीं और बरसात शुरू हो गया जो खेती के लिए अमृत के समान है।”

   मेरे पति अपने परिवार में सभी के नयनों के तारे थे अतः मुझे भी ससुराल वालों ने पलकों पर रखा।मान -दुलार, स्नेह सम्मान, अपनापन का घट सदैव छलकता रहा। ममता मयी जिठानी मुझसे उम्र में काफी बड़ी थी अतः उन्होंने मुझे अपनी देवरानी से ज्यादा पुत्री वत् प्यार दिया जो मेरे लिए आज भी अमूल्य निधि है।

   सासु मां मेरे घुटनों तक लम्बे घने बालों को धुलवाने में मेरी मदद करतीं । ससुरजी रामायण की चौपाईयां सुनते । परिवार के बच्चे मेरे साथ कैरमबोर्ड लूडो या छुप्पमछुपाई  खेलते।हर दूसरे तीसरे दिन माई-बाबूजी और परिवार के अन्य सदस्यों को पत्र के माध्यम से अपना कुशल क्षेम भेजती। मुझे ससुराल में दूधमिश्री की तरह घुले पाकर उनलोगों ने संतोष की सांस ली।

  चूंकि पतिदेव भारत सरकार में पदास्थापित थे अतः उनके साथ सम्पूर्ण भारतवर्ष का दर्शन स्वत: हो गया। आज़ भी विभिन्न प्रांतों से जुड़ी अनेक मधुर स्मृतियां हैं।

  समय पाकर गुरु कृपा, ईश्वर की दया, बड़ों के आशीर्वाद से मुझे चार बच्चों की मां बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तीन पुत्र रत्न और आंगन की शोभा बढ़ाने वाली एक लक्ष्मी स्वरूपा कन्या।




 मैंने बाल-बच्चों के साथ पति के सहयोग से अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी की। पी0एच0डी0 किया।फिर कालेज में क‌ई वर्षों तक अध्यापनकी । पठन-पाठन,लेखन में मेरी विशेष अभिरुचि है ।क‌ई कहानियां, कविताएं, रचनाएं प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होती रहती हैं। शोध-पत्र भी पुस्तक के रूप में प्रकाशित है जिसका लाभ  अध्ययन प्रिय उठा रहे हैं। अभी सोशल मीडिया पर सक्रिय हूं।आज अवकाश प्राप्ति के बाद अपने इच्छानुसार हम-दोनों बच्चों के साथ हंसी-खुशी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पैतृक गांव में खेती बाड़ी है, बाग-बगीचा है फूल फुलवारी है हम-दोनों नियमित रूप से उसका देखभाल करते हैं और अपना अधिकतर समय पुश्तैनी गांव में ही बिताते हैं। गांव की मिट्टी की खुशबू, आबो-हवा हमें उत्साह और उमंग से भर देता है।

  बच्चे मेधावी, अनुशासित , संस्कारवान निकले। बच्चों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की।आज देश-विदेश में उच्च पदों पर आसीन… घर परिवार, देश समाज का नाम रौशन कर रहे हैं। अब तो सभी बाल-बच्चे दार हैं । दामाद जी और बहुएं भी एक से बढ़कर एक। दोनों बेटे विदेश में स्थापित हैं अतः उन्होंने हम-दोनों को प्राय: दुनिया के  कोने – कोने का भ्रमण करवाया है और इसी का असर है शायद कि हमलोंगो का दृष्टिकोण इतना व्यापक है।

  आज लोग पूछते हैं,”आप भाग्यशाली हैं । पचासवीं वैवाहिक वर्षगांठ किस्मत वाला ही मनाता है !” 

हम पति-पत्नी हंस पड़ते हैं;”हमें तो पता ही नहीं चलता कि हमारे विवाह बंधन में बंधे हुए पचास साल हो गए…!”

  “हमें तो ऐसा लगता है कि अभी चलना शुरू ही किया है … अभी तक तो जीवन यापन के दुरूह रास्ते पर बेतहाशा दौड़ रहे थे…!” 

   “एक जिम्मेदारी पूरी नहीं हुई कि दुसरी टपक पड़ी… घर-गृहस्थी, नाते-रिश्तेदार, सामाजिक सरोकारों को निभाना तलवार के धार पर चलने सदृश है…जरा सा भी चूके तो गये ….!”

   सुखद वैवाहिक जीवन का सूत्र है …आपसी  विश्वास,प्रेम,समर्पण, वफादारी…!”




  गृहस्थ जीवन का उसूल है ..   देहचोरी से बचें। गृहस्थी का जितना काम कर सकते हो करो .. कभी किसी से यह पट्टीदारी मत करो कि मैं क्यों इतना खटूं ..?

 असंतोष को भी झटक देना सुखी पारिवारिक जीवन का मूल है। अपेक्षा रूपी घातक धीमी जहर को तो दूर से ही राम-राम।

अपनी खर्चों पर नियंत्रण और पैसों के लिए तो हाय-हाय बिल्कुल नहीं।

 शिकायत और असंतोष से खीझ उपजता है और यही क्रोध आपसी प्रेम, सदभाव , हंसी ख़ुशी रूपी पुष्प को सुरज के तपिश के समान भस्म कर देता है।

 अतः अपने परिवार को, पति को, संतान को , अपने आप को जहां तक हो सके महत्व दें। जितना हो सके उतना ही करें और अपनों का आशीर्वाद,आदर प्राप्त करें।

जीवन बहुत महत्वपूर्ण है। उसे अपने प्यार, विश्वास, स्नेह, संरक्षण रूपी ऊर्जा दें। जिन्दगी है , रोजी-रोटी है तो सब की छोटी-बड़ी मनोकामनाएं अवश्य पूरी होंगी।

  हमने इन पचास वर्षों में खोया कुछ नहीं सिर्फ पाया ही है। जब-तक जिऊं अपने परिवार रूपी बगिया की सुरम्यता, खिलखिलाहट में सुकून पाऊं। बेटा -बहू, बेटी- दामाद,नाती,पोता , पोती के सुख-साहचर्य में आह्लिदत होती रहूं।

  बने रहें मेरे सिर के साईं

अमर रहे अहिवात

 दीर्घजीवी हों मेरे बच्चे

  सुख समृद्धि रहें सपरिवार

  खुशहाल रहे न‌ईहर,सासुर

   बना रहे सबका इकबाल।।

  सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना-डॉ उर्मिला सिन्हा

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