कुल की रोशनी – डा० विजय लक्ष्मी : Moral Stories in Hindi

“तीसरी भी लड़की हुई है… अब तो पड़ जायेगी न तुम्हारे कलेजे में ठंडक!”
रमाबाई की आवाज़ सुन  ठाकुर हवेली की चौखट काँप उठी, थी और जानकी की कोख से निकली मासूम बच्ची, माँ की छाती से लग रो पड़ी थी।  प्रसव की पीड़ा से ज्यादा, जानकी की आँखों मेंअब तो पड़ जायेगी न तुम्हारे कलेजे में ठंडक!” अपमान की टीसन थी।

रमाबाई, जानकी की जेठानी, खुद को कुल की रक्षक मानती थी। उसके दोनों बेटे शहर के महंगे स्कूलों में पढ़ रहे थे। वहीं  जानकी? — तीन-तीन बेटियों की माँ। जैसे कोई अपराध कर दिया हो उसने।

पहली बेटी के समय घरवालों ने सोचा अभी पहली है। “अगली बार बेटा होगा,” सबने सांत्वना दी। दूसरी बार भी सबने दबी मुस्कान के साथ झूठा उल्लास दिखाया। लेकिन तीसरी बेटी के जन्म पर जैसे सब्र का बाँध टूट गया। सास ने आँखें घुमा लीं, और रमाबाई तो जैसे तैयार ही बैठी थी —
“अब तो पड़ गई न तुम्हारे कलेजे में ठंडक! बेटा नहीं हुआ…” मानो ये उसी के हाथ में था। भाभी की आवाज सुन उसके पति  सोमेश तो बाहर ही निकल गए थे हमेशा की तरह शांत और किसी को जवाब न देने वाले

जानकी चुप थी। अंदर से टूटी हुई, लेकिन चेहरे पर ग़ज़ब की शांति। उसने नवजात को अपनी छाती से और कसकर लगा लिया।
उस दिन, वह कुछ नहीं बोली — पर उसके भीतर एक तूफान जन्म ले चुका था।

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“मैं अपनी इन बेटियों को ही अपना उत्तराधिकारी बनाऊँगी। इन्हें ऐसे संस्कार, शिक्षा और आत्मबल दूँगी कि एक दिन यही लोग कहेंगे — बेटियाँ ही कुल की असली रौशनी हैं।” मानो मन में वह एक संकल्प के साथ अपने को तैयार कर रही थी आने वाले तूफान से लड़ने के लिए।

समय बीतता गया। जानकी ने घर की जिम्मेदारियों के साथ-साथ अपनी बेटियों के भविष्य की नींव रखना शुरू कर दी थी । बच्चियों के साथ कभी भी समझौता न करने का प्रण वह ले चुकी थी ।

सबसे बड़ी नंदिता — बचपन से ही अनुशासनप्रिय और निडर। जानकी ने उसे प्रशासनिक सेवा की तैयारी में जी जान से जुटाया, और नंदिता ने जिले की पहली महिला SDM बनकर गाँव का नाम भी रोशन किया।

मंझली वैदेही — तार्किक, तेज़ और न्यायप्रिय, वह एलएलएम कर प्रतिष्ठित जज बनी।

और सबसे छोटी स्मृति —  सेवा भाव का दूसरा रूप , जिसे असहाय, बीमार को देखते ही ममता स्नेह छलकता था। वह डॉक्टर बनी — अपने ही जिले के सरकारी अस्पताल में पोस्टिंग हुयी।

जहाँ रमाबाई के दोनों बेटे अपनी पत्नियों को लेकर शहर बस चुके थे, वहीं जानकी की बेटियाँ हर तीन महीने में माँ से मिलने आतीं, दामाद उसके पैर छू आशीर्वाद लेते, बेटियाँ गले लगा दुख-सुख पूंछतीं। संस्कार तो उनकी रग रग में भरे थे पर वे हाजिर जवाबी में भी एक कदम आगे ही थीं  ।

दोनों बड़ी बेटियों की पसंद के लड़कों से शादी हो चुकी थी । छुटकी स्मृति अभी कस्बे के ही अस्पताल में काम कर रही थी।

हां वह बात अलग थी कि जानकी और पिता रमेश ने  किसी को पलट कर जवाब देना सीखा ही नहीं था पर बिटिया कहने वाले को नहले पर दहला चुकाना बखूबी जानती थीं।

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लेकिन जानकी का स्वभाव अभी भी वही था — संयमित, शांत और विनम्र। उसने कभी किसी ताने का जवाब नहीं दिया। अंत समय तक सास-ससुर की सेवा करती रही ,पर रमाबाई के मुँह से ताने ही किसी न किसी रूप में निकलते थे

“लड़के होते तो कम से कम वंश तो चलता…”

वह तो दुनिया का नियम है दबने वाले को सभी दबाते हैं।

फिर एक दिन रमाबाई गंभीर रूप से बीमार पड़ गयी। बेटे दूर थे, बहुएँ तेज तर्रार पति तटस्थ। ऐसे तो जानकी और रमाबाई सास ससुर के न रहने से अलग-अलग रहने लगी थी पर बगल में रहते हुए जानकी से रमाबाई की हालत देखी नहीं जा रही थी जानकी ने तुरंत डाक्टर बेटी छुटकी को बुलाया ।  उसने बिना समय गंवाए माँ के कहने पर ताई को एम्बुलेंस में ले जाकर अपने अस्पताल में भर्ती कराया।  दवाइयों से लेकर नर्सों तक को निर्देश दिए।

छुटकी को अपनी ताई को सुनाने का तो बहुत जी कर रहा था पर वह अपनी मां जानकी को अच्छे से जानती थी माँ को दुख ना लगे इससे उसने चुप रहना ही उचित समझा।

रमाबाई की आँखें भर आईं। वह जो कहती थी, “लड़की से क्या उम्मीद करनी!” — वही लड़की आज जीवनदान दे रही थी।

ठीक होते ही, रमाबाई जानकी के आँगन में आकर धीरे से बोली —
“जानकी… जो तुझे बेटियाँ होने पर ताना मारा, वही अब मेरी आँखें खोल रही हैं। तेरी बेटियाँ तो मेरे बेटों से भी बढ़कर निकलीं। अब समझ आया — बेटी भी कलेजे की ठंडक बन सकती है…”

जानकी मुस्कराई। कोई जीत का गर्व नहीं, कोई ताना नहीं। बस, आँखों में संतोष की एक नमी और माथे पर आत्मसम्मान की चमक थी जिसकी चाह में उसने अपना पूरा जीवन ही निसार दिया था । कोई सच पूंछे तो में आज उसके कलेजे में ठंडक सी लगी थी।
                    स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी
                          ‘अनाम अपराजिता’

#अब तो पड़ जायेगी न तुम्हारे कलेजे में ठंडक!”

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