किस्सा साड़ी का – डॉ. पारुल अग्रवाल

आज जब सिया की बेटी सिद्धि अपने कॉलेज से घर आई तो खुशी से चहक रही थी। उसने आते ही बताया कि उसके विद्यालय का वार्षिक उत्सव है जिसमें उसको मंच संचालन और कार्यक्रम के प्रबंधन का कार्य सौंपा गया है। उसको कार्यक्रम के दिन साड़ी पहनकर जाना है। साड़ी की बात सुनकर सिया को लगा वो किसी पार्लर वाली लड़की से बात करके उसको साड़ी बंधवा देगी पर जैसे ही सिद्धि में बताया कि इसको सात बजे साड़ी में तैयार होकर विद्यालय पहुंचना है, वैसे ही सिया को दिन में तारे नज़र आ गए। इतनी सुबह तो किसी भी पार्लर का खुला होना संभव था। अब साड़ी पहनाने की जिम्मेदारी सिया के ऊपर ही आ गई।सिद्धि का वार्षिक उत्सव सिया को नया ही तनाव दे रहा था। अपने साड़ी बांधना अलग बात होती है पर किसी के बांधना,वो भी बेटी के वार्षिक उत्सव के लिए अलग बात है। वैसे भी साड़ी को लेकर सिया के मन में कई पूर्वाग्रह थे। उसको याद आने लगा कैसे शादी से पहले वो घर के काम और परपंरागत बहु की तरह तैयार होने के मामले में बिल्कुल कच्ची थी। वो पढ़ाई लिखाई और नौकरी की वजह से घर से काफ़ी समय दूर हॉस्टल में रही थी। इस वजह से उसको घर के काम सुघड़ गृहिणी की तरह करने नहीं आते थे। सब कितने ही आधुनिक क्यों ना हों पर शादी के शुरू के कुछ दिन नई बहू से साड़ी ही पहनने की अपेक्षा तो की ही जाती है। सिया तो इन सभी वजहों से डर के कारण शादी भी नहीं करना चाहती थी।पर सभी काम एक समय तक पूर्ण हो जाएं तो ही अच्छा लगता है ये सोचकर उसके माता पिता ने भी देखभाल कर उसका रिश्ता तय कर दिया।

अभी शादी की तारीख चार-पांच महीने के बाद की निकली थी। सिया ने सोच लिया था कि इस बीच वो घर के काम और साड़ी पहनना सीख लेगी पर नौकरी और शादी की तैयारियों के बीच उसको इन सबके लिए समय ही नहीं मिल पाया। किसी तरह वो डरते-डरते अपनी ससुराल आ गई। शादी के शुरू के चार-पांच दिन तो आराम से निकल गए क्योंकि कोई ना कोई उसकी साड़ी बांध देता था। उसके बाद उसकी सासू मां ने एक पॉर्लर वाली से उसको साड़ी बांधना सिखाने की बात कर ली थी। अभी उसको पार्लर में साड़ी बांधना सीखने जाते हुए दो दिन ही हुए थे। वैसे भी ये सब माहौल सिया के लिए नया था। सब लोग उसके लिए नितांत अजनबी थे। वो बहुत घबराई सी रहती थी।तीसरे दिन उसकी सासू मां ने पार्लर वाली से पूछा कि अभी इसे कितने दिन और लग जायेंगे। तब पार्लर वाली ने कहा कि ये बहुत घबराई सी रहती हैं,अभी इनको सीखने में थोड़ा समय और लगेगा।




उसकी बात सुनकर ही सासू मां को काफ़ी गुस्सा आ गया। उन्होंने एकदम से बोला कि बात घबराहट की नहीं है, इसके अंदर लगन की कमी है। मेरी बेटी भी तो इसी की उम्र की है पर वो तो बहुत जल्दी सीख गई थी। मैंने तो अपनी बेटी को सब कुछ सीखा कर उसकी ससुराल भेजा है पर कई लड़कियां अपने घर से कुछ भी सीख कर नहीं आती। उनकी बातों से सिया का दिल बहुत दुखा था। उसे लग रहा था आज साड़ी ना बांध पाने की वजह ने उसकी अब तक की पढ़ाई और मेहनत से प्राप्त की सभी डिग्री पर पानी फेर दिया था। आज पहली बार वो अपने अंदर लगन की कमी वाली बात सुन रही थी। बुरा तो उसको बहुत लगा था पर कई बार किसी के कड़वे बोल भी किसी काम को सिखाने में एक कठोर  अध्यापक की भूमिका निभाते हैं। अब सिया जब भी अकेले होती तब खुद ही साड़ी बांधने की कोशिश करती। उस कोशिश का परिणाम ये हुआ कि वो अपनेआप अच्छी साड़ी बांधने लगी। जहां वो साड़ी जैसे परिधानों से दूर भागती थी, वहीं अब वो उसका प्रिय परिधान थी। सब लोग वैसे भी उसके साड़ी संग्रह और पसंद की तारीफ करते थे। 

वो ये सब सोच ही रही थी कि सिद्धि उसके पास आकर बोली मम्मा, आपने तो अभी तक मेरे लिए साड़ी भी नहीं चयन की। उसकी बात सुनकर सिया अपनी आज की दुनिया में वापिस आई। एक प्यारी सी साड़ी सिद्धि के लिए निकाली। अब वो दिन भी आ गया जब सिद्धि को साड़ी पहनकर कॉलेज जाना था। भगवान का नाम लेते हुए सिया ने पिन के साथ अच्छे से सिद्धि की साड़ी बांध दी और उसको तैयार कर दिया। सिद्धि बहुत ही प्यारी लग रही थी। सिया ने एक नज़र का टीका भी सिद्धि को लगा दिया। वो तो कॉलेज चली गई पर आज सिया का मन किसी काम में ना लगा। उसको बार-बार यही लगता रहा कि पता नहीं सिद्धि साड़ी ठीक से संभाल पा रही होगी या नहीं। वो इसी उधेड़बुन में थी कि शाम को सिद्धि ने आकर उसको गले लगाकर कहा कि मां आप दुनिया की सबसे अच्छी मां हो, मेरे कॉलेज में सभी ने मेरी साड़ी की बहुत प्रशंसा की। आज सिया का मन अपनी सास के लिए श्रद्धा से झुक गया। उसको लगा अगर उस दिन उन्होंने इस तरह के बोल ना बोले होते तो शायद वो अपनी बेटी को इतनी अच्छी तरह तैयार नहीं कर पाती।उसको आज अपनी सासू मां नीम के पेड़ के समान प्रतीत हो रही थी जो कड़वा भले ही होता है पर हमारे कई रोगों की चिकित्सा करने के सक्षम है।

दोस्तों कैसी लगी मेरी कहानी “किस्सा साड़ी का”?कई बार कुछ कड़वे बोल हमें चुभते जरूर हैं पर सबक और अनुभव जिंदगी भर का दे जाते हैं। कभी कभी नकरात्मक उत्साहवर्धन भी आवश्यक होता है। 

#जन्मोत्सव

तृतीय कहानी

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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