कविता की कहानी – भगवती सक्सेना गौड़

“अरे , सुनो कविता, क्या स्वाद है तुम्हारे हाथ के खाने में, सरसों वाली मछली में तो मज़ा ही आ गया, शायद ही कोई फाइव स्टार होटल में ऐसा शेफ होगा जो ऐसी स्वादिष्ट तेज़ डिशेस बनाये।”

बोलते बोलते अक्षय रसोई में पहुँचे, “हाथ कहाँ है, तुम्हारे और फिर …….”

“उई मा, क्या कर रहे, तुम भी ना।”

“अरे पच्चीस वर्ष बाद भी ऐसे शरमा रही हो, जैसे नइकी दुल्हन। सुनो, एक सरप्राइज है, कल शाम को छह बजे अपने पसंद की वही गुलाबी साड़ी पहनकर तैयार रहना, एक कवि सम्मेलन है, दिल्ली से कोई प्रसिद्ध कवि आये हैं, मैंने टिकट ले रखी है, हम चलेंगे, मुझे पता है तुम्हे कविताएं बहुत पसंद है।”

और दूसरे दिन दोनो सज धज के चल पड़े। कार से उतरते ही एक बड़े से बोर्ड पर कविता की नजर गयी और वो आश्चर्य चकित हो देखने लगी, नाम कई बार पढ़ा, अरे ये कौन कवि मुकेश है, फिर नजर सरकी उनके चेहरे पर, दाढ़ी मूछ के बीच और तो कुछ नही, दो आंखे जरूर परिचित सी लगी।

तभी लगा, कोई बहुत दूर से पुकार रहा, “कहाँ खोई हो, अंदर नही चलना क्या?”

और दोनो अंदर जाकर अपनी जगह पर बैठ गए, एक प्राकृतिक सा  माहौल था, चारो ओर पेड़ पौधों से सजा, बीच मे छोटे छोटे से गद्दे और मसनद लगी बैठने की जगह, दोनो मंत्रमुग्ध हो उस जगह का मुआयना कर रहे थे।

तभी माइक में स्वागत हुआ, कवि मुकेश आइये आइये, फूल मालाओं से सुसज्जित अधेड़ उम्र की एक हस्ती ने पदार्पण किया।



अचानक कविता ने अक्षय को बोला, “जानते हो, मुझे न ये कवि कुछ जाने पहचाने लग रहे है, मेरे कॉलेज के क्लासमेट।”

“अरे वाह, ये संयोग तो बहुत बढ़िया हुआ।”

उसके बाद तो लगा कविता दूसरी दुनिया मे पहुँच गई, अधिकतर शब्द कविताओं के वही थे, जो वो रोज कॉलेज में मुकेश से सुनती थी।

प्रोग्राम समाप्त होने के बाद, स्वयं अक्षय स्टेज पर जाकर मुकेश को कविता के पास लाये और बोले, “मेरे पत्नी कविता से मिलिए, शायद इन्होंने आपको कहीं देखा है।”

“व्हाट अ सरप्राइज, कविता जी कैसी हैं, देखिए मैंने आपको पहचान लिया।”

“ठीक हूँ, एक प्यारा सा घर संसार है, आप के साथ कौन कौन है, परिवार नही आया।”

तभी अक्षय ने कहा, “मुकेश जी अब तो आप हमारे परिवार के दोस्त हो गए, आज चलिए हमारे घर एक साथ भोजन करेंगे।”

“माफ करिये सर, मेरी दो घंटे में फ्लाइट है, तुरंत एयरपोर्ट जाना है।”

“और कविता जी, मैंने अपनी कविताओं से व्याह रचाया है, मेरे अकेलेपन की साथी आज भी लेखनी ही है।”

और कवि मुकेश साहब अपनी कार की तरफ आगे बढ़ गए, आंखे और कान पदचाप को प्रस्थान करते देख सुन रहे थे, और वो पदचाप कविता के मन के अंदर घुसती प्रतीत हो रही थी।



कॉलेज के स्टेज से एक गाना उसे हल्का सा सुनाई दे रहा था, “मैं कहीं कवि न बन जाऊं तेरे प्यार में ए कविता।”

कविता को यादों ने उसे कॉलेज के गेट तक पंहुचा दिया, कॉलेज में फंक्शन चल रहा था। वो और उसकी कुछ सहेलियाँ जाकर पहली लाइन में जाकर बैठी। तभी माइक में एक लड़के ने बड़ी सधी हुई आवाज़ में गाना शुरू किया। मैं कहीं कवि न बन जाऊं तेरे प्यार में ए कविता…..।

कविता की सहेलियों ने मुँह दबा कर हंसना शुरू किया, और कविता के चेहरे पर बारह बज रहे थे। भीड़ बढ़ते जा रही थी, निकलना भी मुश्किल था। किसी तरह प्रोग्राम समाप्त हुआ और सहेलियाँ कविता से मज़ाक करने लगी, वाह फर्स्ट ईयर में एडमिशन लेते ही मजनू से भेंट हो गयी, बहुत लकी हो।

दूसरे दिन क्लास में बैठते ही कविता को वो मजनू दिख गए, क्लासफेलो ही था। सीधे उसके पास पहुँच गयी और बोली, “जरा बाहर आना तो तुमसे बात करनी है।”

“हां, बोलो।”

“जानते हो, मेरे बड़े भैया इस शहर के पुलिस इंस्पेक्टर हैं, कोई गड़बड़ कि तो जेल की हवा खाओगे।”

“पर मैंने किया क्या है।”

“चोरी ऊपर से सीनाजोरी। तुम्हे मेरा नाम कैसे मालूम पड़ा।”

“मुझे अभी भी तुम्हारा नाम नही मालूम, तुम कौन हो।”

“तब, कल कैसे मेरे नाम का गाना गा रहे थे।”

“क्या नाम है तुम्हारा, अब तो बताओ।”

“कविता”



अब वो मजनू ने खिलखिलाते हुए बोला, “कविता मेडम, ये गाना मुझे बचपन से पसंद है और मैं हमेशा गाता हूँ, अब गलती आपकी है, जो अपने अपना नाम कविता रक्खा है।”

दोनो मुस्करा रहे थे।

बाई द वे मेरा नाम तो जान लीजिए, मैं मुकेश हूँ।

और अब शुरू हुई कॉलेज के फर्स्ट ईयर से कविता और मुकेश की प्रेम कहानी शुरू।

रोज दोनो मिलते, बाग बगीचे में घूमते, कई गाने गाते इसी में वर्ष बीतते गए। फाइनल ईयर तक मुकेश अच्छी कविताये लिखने लगे। रोज कभी कविता की आंखों पर, कभी गेसुओं पर इस तरह कविताये लिख कर एक एक पन्ना चुपके से पकड़ाते रहे।

परीक्षाएं समाप्त हुई, विद्यार्थी भी अपने घर मे रहना सीख गए।

मुकेश को आगे पढ़ने बाहर जाना पड़ा, और एक सहेली से कविता को खबर पहुँचायी।

समय छलांग लगाता उड़ता रहा, एक दिन कोई रेलवे अफसर लड़के ने कविता को पसंद किया और शादी तय हो गयी। कविता खामोश होकर पन्नो में ही छिपने लगी। संस्कार ऐसे थे कि किसी को बोल ही नही पायी। घर के सबलोग बाजार गए थे तब अपने प्यार और इश्क़ का हवन किया, सारी कविताओं के पन्नों को बारी बारी से स्वाहा किया। और सोच लिया था, अब दिल के पन्ने कोरे ही रहेंगे।

आज अचानक कवि मुकेश ने सामने आकर बुझी आग को चिंगारी देने की कोशिश की जरूर, पर अब सही में उंसकी आत्मा भी अपने प्यारे प्रियतम  अक्षय की हो चुकी थी।

स्वरचित

भगवती सक्सेना गौड़

 

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