कंजूस

गाँव का एक बनिया शाम को अपनी दुकान से घर आया तो उसने देखा कि दीये की लौ बहुत तेज जल रही है। उसने पत्नी को आवाज दी- अरी ओ भागवान! ये दीये की लौ इतनी तेज क्यों कर रखी है। तू लुटवाकर रहेगी, वैसे ही महंगाई बहुत है । जरा कम कर इसे । इतने में उसे ध्यान आया दुकान का एक ताला शायद वो लगाना भूल गया है। उल्टे पैर भागा दुकान पर । दुकान पर पहुंचा तो पाया दोनों ताले सही सलामत लगे हुए थे । परमात्मा का धन्यवाद किया। वापस घर पहुंचा तो देखा दीये की लौ कम हो चुकी थी । पत्नी से पूछा- दीये की लौ तुमने कम की? जी हाँ, पत्नी बोली । कैसे करी? जी सुई की नोक से करी और किससे करी? और सुई की नोक में जो तेल लग गया होगा उसका क्या, वो तो बेकार गया न? पत्नी बोली- जी मैं आपकी तरह बेवकूफ थोड़े ही हूँ, सुई की नोक पर जो तेल लग गया था उसे मैंने अपने सर में लगा लिया । और खुद को तो देखो जो दुबारा दुकान । और आये क्या उसमें जूते नहीं घिसते ? पति बोला- मैं भी तेरा पति हूँ, थोड़ी तो अक्ल है मुझ मैं, जूते मैं बगल में दबा के नंगे पांव ही गया था। अब ऐसे लोगों को क्या कहेंगे आप ! ऐसे कंजूस- मक्खीचूस हर जगह मिल जायेंगे। पर कहते है कंजूस भी एक काम तो अच्छा करता है, जब मरता है तो, अपनी सारी दौलत दूसरों के लिए छोड़ के चला जाता है। मितव्ययी बने कंजूस नहीं। दोनों में फर्क है। मितव्ययी सोच समझकर खर्च करता है। जहां जरूरी है वहां करता है। और कंजूस तो जहां खर्च करना है वहाँ भी नहीं करेगा। खुद को अत्यधिक कष्ट दे देगा पर रुपया खर्च नहीं करेगा।

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