बबलू आजकल गाँव की चर्चा का सबसे बड़ा विषय बना हुआ था। पाँच साल पहले जो लड़का टूटी चप्पल पहनकर शहर गया था, वो अब चमचमाती गाड़ी में लौटा था। सूट-बूट, महंगे चश्मे और हाथ में मोबाइल… जैसे कोई फिल्मी हीरो।
उसके पिता, रामदयाल, छाती चौड़ी करके कहते, “हमार बेटा अब साहब बन गया है! बम्बई में बड़ा ऑफिस है, सैकड़ों आदमी नीचे काम करते हैं उसके।”
गाँव वाले तो हैरान थे, और प्रधान जी को तो जैसे कोई नया मोती मिल गया। उन्होंने पंचायत की अगली सभा में बबलू को मुख्य अतिथि बना दिया। बैनर छपा—“ग्राम सभा की शान: श्री बबलू यादव उर्फ़ विवेक कपूर जी का हार्दिक स्वागत!”
सभा के दिन गाँव के स्कूल का मैदान खचाखच भरा हुआ था। बच्चे पंक्तियों में, औरतें अपने घूंघट में, बूढ़े लोग अपनी छड़ियों के सहारे—सब बबलू को देखने आए थे।
बबलू मंच पर बैठा था, मुस्कुराता हुआ, जैसे उसे सबकुछ हासिल हो चुका हो।
माइक पर बुलाया गया, तो वो उठा। लोगों ने तालियाँ बजाईं।
“भाइयों और बहनों,” बबलू ने शुरू किया, “आज जो कुछ भी हूँ, अपनी मेहनत और संघर्ष से हूँ। बम्बई जैसे शहर में पैर जमाना आसान नहीं था, लेकिन मैंने हार नहीं मानी। आज मैं अपने गाँव के लिए कुछ करना चाहता हूँ… स्कूल बनवाऊँगा, लड़कियों की पढ़ाई के लिए फंड दूँगा…”
तालियों की गूंज हुई। लेकिन इस बार पीछे से एक धीमी मगर दृढ़ आवाज़ आई—
“अगर इजाज़त हो, तो मैं भी कुछ कह सकती हूँ?”
सबने मुड़कर देखा। साधारण सी साड़ी में एक लड़की खड़ी थी—मीना। चेहरे पर थकान, लेकिन आँखों में सवाल।
बबलू का चेहरा जैसे पीलापन ओढ़ने लगा।
मीना मंच के सामने आई और बोली, “इस गाँव की एक और कहानी है, जो शायद पोस्टरों में नहीं छपी, न बैनर पर लिखी गई।”
लोगों की उत्सुकता बढ़ गई। प्रधान ने हाथ से इशारा किया—“बोलो बेटी।”
मीना ने गहरी साँस ली। “पाँच साल पहले, इसी गाँव में एक लड़का था—बबलू। उसने एक लड़की से प्यार का इज़हार किया। मंदिर के पीछे मिलने लगे, वादे किए, सपने दिखाए, और फिर शादी का भरोसा दिलाया। लड़की ने भरोसा किया… और कुछ ऐसा हुआ, जो समाज में ‘बदनामी’ कहलाता है।”
मीना की आवाज़ काँपने लगी, लेकिन शब्द साफ़ थे।
“लड़की गर्भवती हुई। लड़का बोला—‘शहर चलो, सब ठीक कर देंगे।’ पर अगले दिन वो भाग गया… और फिर कभी नहीं लौटा। उसका फोन बंद, पता ग़ायब।”
सभा में खामोशी गहराने लगी।
“उस लड़की की माँ ने शर्म से कुएं में कूदकर जान दे दी। और वो लड़की? वो आज भी इसी गाँव में है—मैं हूँ वो लड़की।”
लोग सन्न। बबलू का चेहरा ज़मीन पर झुक चुका था।
मीना बोली, “आज वो लड़का इस मंच पर बैठा है, ‘प्रेरणा’ बनकर। नाम बदल चुका है—अब वो विवेक कपूर है। लेकिन क्या ये सच भी बदल गया?”
मीना की आँखों में अब आँसू नहीं थे—बस आग थी।
“मैं यहाँ बदला लेने नहीं आई। मैं बस ये चाहती हूँ कि अगली बार कोई मंच सजे, तो वो सच के साथ सजे। आज मैं उसका कच्चा चिट्ठा खोल रही हूँ—ताकि अगली मीना, अगली लड़की, चुप न रहे… अकेली न रहे।”
सभा का मैदान मौन हो चुका था। जिन हाथों ने कुछ देर पहले ताली बजाई थी, वे अब शर्म से नीचे झुक गए थे।
बबलू कुछ कह नहीं पाया। उसके सूट, गाड़ी, ब्रांड—सच के सामने बौने पड़ चुके थे।
हर चमकते चेहरे के पीछे की कहानी सुंदर नहीं होती। और जब वो कहानी किसी और के आँसुओं पर लिखी गई हो, तो एक न एक दिन उसका कच्चा चिट्ठा ज़रूर खुलता है… और जब खुलता है, तो सिर्फ़ चेहरे ही नहीं, नकाब भी उतरते हैं और सामने होता है सिर्फ “सच।”
तृप्ति सिंह………