जो चाहें वो मिल जाए  जिंदगी अपने रंग दिखाए  – स्नेहज्योति

मैं ‘वीर’जो अपने माँ-बाप का लाड़ला था ऐसा नहीं कि मैं अकेली औलाद था,मेरा एक छोटा भाई भी था,पर अपने वालिदैन का मैं हमेशा से ही आकर्षण का केंद्र रहता था।मेरी हर बात का फ़ैसला वही करते थे,शायद यही बात मुझे परेशान करती थी,मुझे खुद कुछ करने नहीं देते थे,हर पल उनकी उँगली पकड़ चलना अच्छा नहीं लगता था।यह सब देख अपने आप को बंदिशो में जकडा पाता था,खुली फिजा में रम जाऊँ यही सोचा करता था।दरख़्त पे बैठे पंछियो की भाँति हवा में परवाज़ चाहता था, यही सोच,एक पल में कमजोर बन चिट्ठी छोड़ घर से बिना बताए चला गया,ये भी ना सोचा कि मेरे बाद मेरे घर वालों का क्या हाल होगा।

बिना सोचे समझे ही मैं माथेरन चला गया। वहाँ जाकर ताजा हवा से मन बहल गया,थोड़ी देर बाद मैंने अपनी पसंद का खाना मंगाया क्या करना है क्या नहीं हर बात पे मेरा हक था यहीं सोच खुशफेमी में सो गया।अगले दिन मैं वादियों में घूमने निकल गया..जो मैं चाहता था वैसा किया किसी कि कोई रोक-टोक नहीं थी आज़ाद परिंदा बन वादियों में भ्रमण कर रहा था।कोई फिक्र नहीं कोई जिक्र नहीं,ऐसा तीन चार दिनों तक चलता रहा।इस बीच मेरे घर से कोई फ़ोन नहीं आया,यह देख मैं सोच में पड़ गया,वैसे तो मेरी इतनी फ़िकर करते थे,मेरे हर पहलू पे नजर रखते थें,पर जब से मैं यहाँ आया हूँ एक बार भी फ़ोन कर मेरे बारे में पूछा नहीं,यें कैसा प्यार है उनके पास होता हूँ तो दिखता है,दूर जाओं तो खलता हैं।

इन कुछ दिनों में मैंने जान लिया कि अकेले जिया तो जा सकता है,पर रहा नहीं जा सकता,अगले दिन अपना सामान उठाए मैं घर आ गया मुझे वापस देख मेरा भाई मुस्कुरा के बोला-“आ गया,आ गया वीर बुद्धू घर लौट के आ गया”

मेरी माँ भीं मुस्कुराते हुए आयीं और बोली इतनी जल्दी,हमें लगा कि तुम कम से कम एक महीने में आओगे-यें कह कर ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगने लगे ….यह देख मैं स्तब्ध हो सोचने लगा कि “मैं क्या करने जा रहा था “इस दरख़्त को छोड़ परवाज़ चाहता था अगर ये दरख़्त ही ना होता तो मैं थक कर कहाँ लौटता,बिन आशियाने के यूँ ही दरबदर भटकता ये परवाज भी बेईमानी होती और ज़िंदगी भी…

अपने माँ बाप को देख मैंने उन्हें गले से लगा लिया और अपनी इस शर्मनाक हरकत के लिए माफी माँगी वो दयावान थे,मुझे माफ कर गए जिंदगी के इस सफ़र पे साथ दे मुझे मक़बूल कर गए …….

कभी हँसाती है,कभी रुलाती है

यें ज़िंदगी,हर मोड पे नए रंग दिखाती हैं

क्या पाना है,क्या खोना है

ये हम तय नहीं कर पाते है

ज़िंदगी के अनजान सफर पे

किस्मत का थैला टाँगे चलें जाते हैं।।

स्वरचित रचना

#जिंदगी

स्नेहज्योति

नई दिल्ली

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