जिन्दादिली…. – कुमुद चतुर्वेदी 

काफी समय से मेरे मन में उत्सुकता थी कि वृद्धाश्रम जाकर वृद्धों के जीवन,उनकी हालिया स्थिति के बारे में कुछ जानकारी लेकर मैं भी यथासंभव उनकी कुछ सहायता कर सकूँ।

    एक दिन मैंने वृद्धाश्रम पहुँच वहाँ के संचालक से मिलने की इजाज़त ली और उनके कक्ष में पहुँच अभिवादन करने को हाथ जोड़ ज्योंहि उनको देखा मुझे लगा कि संचालक जी को मैंने कहीं देखा है,पर कहाँ यह याद नहीं आ रहा था।खैर जब  संचालक महोदय जो कि चोपड़ा सा.थे,ने मेरे अभिवादन का उत्तर दे बैठने का इशारा किया और अपना रजिस्टर बंदकर मेरी ओर देखा ..”कहिये मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ?”मैंने कहा..”आप मुझे कुछ समय दें तो आपकी बहुत कृपा  होगी”वे मुस्कुराते हुए बोले…”आइये”और अपनी ह्वीलचेयर टेबल के आगे ले कर साइड में रखे सोफा की ओर बढ़े.मैं तो आश्चर्य से उनकी फुर्ती देख चकित रह गया। वे सोफा का सहारा लेकर अपनी ह्वीलचेयर लगा खड़े हो गये और जब तक मैं उनको सहारा देने आगे आता तब तक वे सोफे पर बैठ चुके थे।मुझे बैठने का इशारा कर उन्होंने टेबल पर लगा अलार्म दबाया फौरन अर्दली हाजिर हो गया, उसे दो चाय  के लिये कह अब मेरी ओर मुखातिब हुए।

     मैं अब तक उनको पहचान चुका था।वे मेरे सहपाठी नकुल चोपड़ा के पापा थे जिनको मैंने कभी कभी नकुल को स्कूल लाने और ले जाने के दौरान देखा था।करीब बीस बाइस साल का लंबा अंतराल हो चुका था,पर मैंने उनसे इस बारे में कुछ नहीं कहा।

    अब मैंने पूँछा…,”क्या मैं आपके जीवन और कार्यप्रणाली के बारे में कुछ जान सकता हूँ?”वे बोले.. “बिल्कुल मेरा जीवन तो खुली किताब है और मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ,आप जानना क्या चाहते है.?”

मैंने पूँछा… “आप कहाँ के निवासी हैं और यहाँ कैसे आये?”

  वे बोले..”मेरा जन्म ग्वालियर शहर



(म.प्र.)में हुआ था और आरंभिक शिक्षा भी वहीं हुई थी।ग्रेजुएशन के लिये मैं भोपाल चला गया और वहीं से बी.टैक. भी किया।”

  “आपकी जॉब कब और कैसे लगी?”  मैंने पूँछा वे बोले ..”पढ़ाई में मैं हमेशा ही अच्छा रहा इसकारण मेरा सेलेक्शन भी पी.डब्लू.डी.में इंजीनियर के पद पर हो गया और मेरी पहली जौइनिंग इंदौर में हुई। तीन सालों में मेरी शादी और बेटा भी हो गया”।

   “इंदौर के अतिरिक्त आपने और किन शहरों में नौकरी की?”मैंने पूँछा.वे लम्बी

साँस लेते बोले..”मैं करीब करीब म.प्र.के सभी बड़े शहरों में रहा।जब मेरा बेटा बारहवीं कर चुका तब उसे भी मैंने उसकी इच्छानुसार विदेश जाकर ग्रेजुएशन करने अमेरिका भेज दिया”।

    “आपने बेटे की इच्छा पर उसे भेज दिया आपको या आपके घर में किसी को आपत्ति नहीं हुई?”मैंने पूँछा. वे बोले…… “मैंने कभी बेटे पर किसी भी उचित काम के लिये पाबंदी नहीं लगायी उसने शादी भी अपनी मर्जी से ही की, हमने सहर्ष अनुमति दे दी थी बस एक ही अपेक्षा थी मुझे और मेरी पत्नि को कि बेटा अपने ही देश में नौकरी करे और वह बात उसने मान ली थी।”

          थोड़ा रुककर वे फिर बोले..



“बहू का कुछ समय तक तो हमारे साथ ठीक व्यवहार रहा फिर पता नहीं क्या हुआ तीन,चार महीने बाद ही वह  मुझे और अपनी सास को बोझ समझने लगी। अब तक मैं भी रिटायर्ड हो चुका था और बहू का बर्ताव देख मन बहुत दुखी होता था।हालाँकि मेरी पत्नि यथासंभव घर के काम में सहायता करती थी।धीरे धीरे मेरी पत्नि बेटे की उदासीनता और बहू की ज्यादतियों से बीमार हो गई।बेटे को तो हम दोनों को देखने या पास बैठने तक की फुर्सत नहीं थी।आखिर पत्नि मन ही मन घुलते एक दिन ईश्वर के पास चली गई। अब रह गया मैं जो कि उस घर में अवांछित था”।वे थोड़ा रुके और पानी पीकर फिर बोलने लगे..”मैं अपनी पेंशन का कुछ भाग अपने बैंक एकांउट में डाल बाकी पैसा भी बहू को ही दे देता था पर फिर भी वह संतुष्ट नहीं थी मेरी पूरी पेंशन चाहती थी,पर मैंने जब नहीं दी तो मुझसे और चिढ़ गई वह।”वे थोड़ा रुकेअब।

मैंने पूँछा..”आपने अपने बेटे से बात नहीं की?”तो बोले”मैं भी मन ही मन घुलता रहता था।बेटा से बात होते महिनों बीत जाते थे।बहू अपने ही रंग में थी।एक दिन अचानक मैं सीढिय़ों से गिर गया और बेहोश हो गया। होश आया तो देखा मैं जैसा गिरा था वैसा ही फर्श पर पड़ा था।मैंने नौकर को आवाज लगायी और उसके सहारे अपने बेड पर आया।पैर में भयंकर दर्द था।नौकर ने बेटे को फोन किया पर उठा ही नहीं,उसने बताया दोनों किसी पार्टी में गये हैं।मैंने पड़ोसी के बेटे से पेनकिलर मँगायी और खाकर जैसे तैसे रात काटी।सुबह भी बेटा मेरे पास नहीं आया। उसके जाने के बाद बहू की कर्कश आवाज सुनी फोन पर किसी को बता रही थी अब तो लगता है पैर भी बुढ़ऊ के टूट गये हैं पूरी जिन्दगी अब उनको ढ़ोते रहो।



अब तक मेरी सहनशक्ति जबाब दे चुकी थी।मैंने जैसे तैसे अपने को सँभाल कर पड़ोसी को फोन करके  ऑटो मँगवाया और दर्द की परवाह न कर पहले हॉस्पिटल गया वहाँ डॉक्टर ने बताया मेरी कूल्हे की हड्डी टूट गई है।फिर  दूसरे दिन मेरा ऑपरेशन हो गया और आठ दिन बाद छुट्टी भी।पर मैं घर जाना नहीं चाहता था क्योंकि मेरे बेटे ने कोई खोजखबर अभी तक नहीं ली थी।बहू तो वैसे भी मुझसे खुन्नस रखती थी क्योंकि वह मेरी पेंशन का पूरा पैसा लेना चाहती थी जो मैं नहीं देता था।

मैं पेंशन का आधा पैसा बैंक में जमाकर बाकी आधा बहू को दे देता था। इसी कारण बहू मुझसे चिढ़ती थी।मेरी जरूरतों के लिये मेरी पेंशन ही काफी थी सो मैंने यहाँ आना ही ठीक समझा। इस बात को दस साल से ऊपर हो चुके हैं।मैं यहाँ खूब खुश हूँ लगता है यहाँ मेरा पूरा परिवार  ही है।”यह कह वे चुप हो गये। मैंने फिर पूँछा..”पर आप अब इस  ह्वीलचेयर पर कैसे ?”वे हँसते हुए बोले… “अरे दो महीने पहले मैं फिर यहीं गिर गया और दूसरे पैर में भी दो  फैक्चर घुटने पर हो गये।

अब हालाँकि ऑपरेशन हो चुका है पर डॉक्टर अभी चलने को मना करता है इस कारण मैं इस पर हूँ, जब ठीक हो जाउँगा फिर दौड़ने लगूँगा।” “आप यहाँ कार्यालय में भी काम कर रहे हैं”मैंने कहा।वे बोले.. “हालाँकि मुझे कोई कहता नहीं है पर मैं स्वयं ही यह काम करता हूँ क्योंकि खाली बैठने से कुछ करना अच्छा है। मुझे इसमें संतोष मिलता है कि चलो किसी के काम तो आ रहा हूँ। 

मैं अपनी पेंशन का पैसा भी बस अपनी जरूरत भर निकाल यहीं दे देता हूँ,लगता है मैं अपने माता,पिता को ही दे रहा हूँ।” यह कह वे चुप हो गये।मैंने भी अब चलना उचित समझा और उनको प्रणाम कर अपनी जेब से एक चैक निकाल चुपचाप उनकी टेबल पर रख दिया।उन्होंने भी बिना देखे चैक को दान पेटी में डाल दिया।मैं बाहर निकल सोचता रहा ऐसे जीवट वाले आदमी विरले ही होते हैं और अपने बचपन के सहपाठी नकुल को धिक्कारता लौट आया जिसे अपने पिता पर ऐसा अन्याय करते जरा भी लज्जा न आई।

कुमुद चतुर्वेदी

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!