“जिम्मेदारी” – डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा

“देखिये भैय्या ,आपको सुनने में थोड़ा कड़वा लगेगा लेकिन मुझे यह मजबूर होकर  कहना पड़ रहा है कि हम पूरे खानदान भर का  बोझ नहीं उठा सकते!

मेरी भी अपनी जिन्दगी है। जिन्दगी की छोटी- मोटी खुशियां हैं ,बाल बच्चे हैं। मुझे उनके लिए भी सोचने की जरूरत है। बचपन से हमने जो जोड़- तोड़कर खुशियां बटोरी है ।वैसी खुशी टुकड़ों में मेरे बच्चों को मिले यह मैं हरगिज नहीं चाहता!”

पूरी जवानी और अपनी हर खुशी को अपने भाई  बहनों के ऊपर लूटा कर देने वाले शेखर भैय्या छोटे भाई के मूंह से ऐसा निष्ठुर शब्द सुनकर भौचक्क हो उसका मूंह देखने लगे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि वह किस खानदान की बात कर रहा है। अभी तक तो चार भाई और दो छोटी बहन थीं अपने परिवार में इसके अलावा और कौन सा खानदान है हमारा!

   भैय्या ने अचंभित होकर पूछा- “क्या हुआ क्यूँ इतना गरम हो रहा है और किस बोझ की बात कर रहा है ?” 

“भैय्या आप बेकार में अनजान बन रहें हैं ।भाभी ने तो बताया ही होगा आपको। उन्हें तो कुछ  समझ में आता नहीं है कि दुनिया कैसे चलती है।”

इस बार शेखर भैय्या थोड़े गंभीर होते हुए  बोले-” सुमित जो कहना है साफ- साफ कह बीच में भाभी को लाने की जरुरत नहीं है। वह तो सच में पगली है तुम लोगों के लिए मुझसे ही लड़ लेती है। बोल न कौन से बोझ के नीचे दबा जा रहा है। “

सुमित उठकर खड़ा हो गया और नीचे जमीन पर पैरों से कुरेदते  हुए बोला -“भाभी हम लोग के लिए नहीं… कुछ और सोच रही हैं।”

“कहना क्या चाहता है। पहेलियाँ कब से बुझाने लगा तू मुझसे!”

  “भैय्या माना कि आप ने मेरी पढाई लिखाई की जिम्मेदारी उठाई थी। वह तो आपका कर्तव्य ही था जो बाबूजी ने आपको दिया था। और आज मेरी नौकरी अच्छी है और  सैलरी  ज्यादा है तो क्या मुझे सब बांट देना चाहिए।”

पहली बार भैय्या की भृकुटी टेढ़ी हुई। जोर से बोले-“

छोटे,पहेली मत बुझा जो कहना है स्पष्ट बोल दे। क्या भाभी ने तुझसे पैसे मांगे हैं??!”

सुमित ने कहा-” मांगे तो नहीं हैं लेकिन ….

आप सब जानते हैं और मुझे अब आजादी चाहिए। मैं अपनी जिंदगी जीना चाहता हूं।” यह कहते हुए वह कमरे से बाहर निकल गया।

बाद में भैय्या को भाभी से पता चला कि उनके भाई ने उनकी बेटी की शादी के लिए इंजीनियर लड़का ढूँढ़ रखे हैं । उनके यह कहने पर कि उनके पास  उतने पैसे हैं नहीं जो बेटी के लिए इंजीनियर  दामाद ढूंढ लें। तो उनके भाई ने यह कहा जाहिर सी बात है कि  सबको सहयोग कर शादी करवाना चाहिए। शायद देवरानी ने सुमित को कुछ कहा हो इसीलिए सुमित बौखला रहा था।




“अच्छा…..तो यह बात है सुमित के बौखलाहट का।वह इसी बोझ की बात कर रहा था। शेखर भैय्या सोच में डूब गए । क्या वक्त के साथ रिश्तों के नींव की मजबूती कमजोर पड़ जाती है। एक के लिए जिम्मेदारी और दूसरे के लिए बोझ।”

उनके नजरों के सामने वह पांच साल का सुमित खड़ा था। जिसको भैय्या ने माँ से जिद कर अंग्रेजी स्कूल में नाम लिखवाया और उसे तैयार कर रोज सुबह उसका बस्ता अपने पीठ पर लादकर उँगली पकड़े उसे स्कूल छोड़ने जाते थे। जरा सी देर होने पर चिंतित हो जाते थे। शायद बाबूजी भी होते तो इतना ध्यान नहीं देते जितना भैय्या को इनकी परवाह रहती थी।

सभी भाई बहनों में शेखर भैय्या सबसे बड़े थे। लंबी बीमारी के बाद बाबूजी जब अंतिम घड़ी में थे तो उन्होंने सबको अपने पास बुलाया। माँ बगल में बैठी आँचल से मूंह ढके सुबक रही थीं। भैय्या की ओर कातर नजरों से देखते हुए बाबूजी ने उन्हें अपने पास बुलाया। भैय्या कुछ समझ नहीं पा रहे थे। समझते भी कैसे दुनियादारी समझने की उम्र भी नहीं थी। अभी -अभी ही तो उन्होंने हायर सेकंडरी की परीक्षा दी थी।  धीरे-धीरे चल कर बाबूजी के पास पहुंचे और सिर झुकाकर बैठ गए।

बाबूजी ने अपनी कांपती हाथों से शेखर भैय्या का हाथ थामते हुए कहा-” बउआ…अब जाने की घड़ी आ गई है…जाने से पहले हम अपनी जिम्मेदारी तुमको देकर जा रहे हैं…निभाओगे ना?”

टूटी -फूटी आवाज में बोले-“बेटा खाने से पहले सबकी थाली देख लेना की किसी की खाली तो नहीं है। खुद से पहले सबका ख्याल रखना…।

भैय्या बिल्कुल घबड़ा गये थे कुछ समझ नहीं पाए। घबड़ाहट आंसू बनकर आँख झरने लगा हिचकते हुए बोले-” बाबूजी आप कहां जाने की बात कर रहे हैं? हम भी साथ चलेंगे आप बताईये। “

बाबूजी की आँखें भर आईं थीं। उन्होंने भैय्या का हाथ जोर से पकड़ लिया और बोले-” बेटा बहुत दूर…. अकेले।”

बाबूजी  के शायद यह अंतिम शब्द थे जिसने शेखर भैय्या को सोलह की उम्र में साठ का बना दिया था। माँ के साथ -साथ अपने सभी भाई बहनों की जिम्मेदारियों को अपने नन्हें कंधों पर उठा लिया। पढाई अधूरी छोड़ बाबूजी की अनुकंपा वाली नौकरी थाम ली और बरगद की तरह अपनी छाया देने लगे।

उन्होंने कभी अपने लिए नहीं सोचा। धीरे-धीरे भाई अपनी पढाई पूरी कर नौकरी में आ चुके थे। माँ के पास जो थोड़ी बहुत जमा पूंजी थी उसे मिलाकर दोनों बहनो की शादी भी उन्होंने अच्छे घरों में कर दी थी। रिटायर होने के बाद उन्होंने शहर में एक फ्लैट खरीदा था ताकि सभी भाइयों के बच्चे शहर में रहकर पढाई कर सकें। अपनी एक ही बेटी थी जिसके लिए उन्होंने अभी तक कुछ भी नहीं सोचा था। सुमित की पढ़ाई में जितने पैसे लगे सब उन्होंने दिये यहां तक की भाभी के कुछ गहनों को भी गिरवी रख दिया ।

भैय्या अपने कर्तव्यों के भंवर में कब से  डूब-उतरा रहे थे उन्हें पता ही नहीं चला कि भाभी कब से चाय की प्याली लेकर खड़ी थीं और उनको अजीब सी नजरों से निहार रहीं थीं।  उन्होंने भाभी को बैठने का इशारा किया और कुछ बोलते इससे पहले ही भाभी ने कहा-” आप चिंता मत कीजिए मैंने भाई को मना कर दिया है । हमारी औकात कहां है जो हम इंजीनियर दामाद ढूंढे।” हम अपनी बेटी की जिम्मेदारी किसी के लिए बोझ नहीं बना सकते। “

भैय्या की आंखों से अनायास ही आंसू गिरने लगे। भाभी ने झट से आंचल बढ़ा दिया और धीरे से बोलीं-” मुझे मालूम है बाबूजी ने परिवार की जिम्मेदारी आपको सौपी थी , आपकी जिम्मेदारी परिवार पर नहीं।”

#जिम्मेदारी 

स्वरचित एंव मौलिक 

डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा 

मुजफ्फरपुर,बिहार

V M

2 thoughts on ““जिम्मेदारी” – डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा”

  1. जिंदगी की हकीकत से रूबरू करवाती सार्थक रचना ।

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