जिम्मेदारी – कमलेश राणा

बीनू.. ओ बीनू.. सुन कल की छुट्टी ले लेना स्कूल से.. 

क्यूँ मां.. कल क्या है.. 

कल लड़के वाले आ रहे हैं तुम्हें देखने.. कौन.. वो.. जो क्लर्क है एजी ऑफिस में.. 

मना ही कर दो उससे तो आप.. उससे ज्यादा सैलरी तो मेरी ही होगी.. कम से कम मुझसे ज्यादा कमाने वाला तो हो.. 

ज्यादा बड़ा ऑफिसर तेरे लिये ढूँढना हमारे बस की बात नहीं है बेटा.. माना कि तुम अपने पैरों पर खड़ी हो फिर भी लड़के वाले इतना दहेज़ मांगते हैं कि सब कुछ बेचकर भी हम उसकी भरपाई नहीं कर सकते.. 

बीना सरकारी स्कूल में टीचर है, वह अपने परिवार की सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी और कमाने वाली है.. पिता रिटायर हो चुके हैं.. उससे छोटे दो भाई और एक बहन है जो अभी पढ़ ही रहे हैं.. 

सैलरी आते ही फ़ीस, दवाई, राशन, दूध बिल,बिजली बिल और अन्य खर्चों में आते ही हवा हो जाती है.. जिम्मेदारियों का बोझ इतना था कि अपने बारे में सोचने की फुर्सत ही नहीं थी.. 

जब अपनी हमउम्र सखियों को अपने पति से बात करते, लजाते, मुस्कुराते देखती तो सीने में अरमान मचल उठते उसके.. 

या जब कोई गोल मटोल प्यारा सा बच्चा तोतली भाषा में उसे प्याली मौछी कह कर गले में हाथ डालकर गाल पर पप्पी ले लेता तो ममता का सागर लहराने लगता, वह उसे प्यार से छाती में भींच लेती, वो बच्चे का नर्म नर्म एहसास दुनियाँ के हर अहसास से अलग खुशी देता उसे.. 

पर जब उसकी माँ कहती, चलो बेटा देर हो रही है.. बाय करो मौसी से.. तो ऐसा लगता कोई खजाना लूटे लिये जा रहा है उसका.. वह तड़प उठती, कब ईश्वर उसे यह सुख देगा.. 




तभी पापा को जोर की खाँसी उठती है.. बीनू मेरी दवाई दे जा बेटा.. कल से खाँसी चैन ही नहीं लेने दे रही.. लगता है मुझे ले कर ही जायेगी.. 

ऐसे न बोलो पापा.. आपके सिवा हमारा है ही कौन.. आप का हमारे साथ होना ही काफी है.. 

पर लाख कोशिशों के बावजूद भी वह उन्हें काल के क्रूर हाथों से नहीं बचा पाई और परिवार की पूरी जिम्मेदारी उसके कंधों पर आ गई.. अब मां ने भी विवाह का जिक्र छेड़ना बंद कर दिया था.. 

बहन अनु 24 साल की हो चली थी, अच्छा घर वर देखकर उसके हाथ पीले करके एक बड़ी जिम्मेदारी से मुक्त हो गई वह.. अब दोनों भाई भी जॉब करने लगे थे,, इस सब के बीच कब वह 40 की उम्र पार कर गई, पता ही नहीं चला.. 

भाइयों के रिश्ते आने लगे थे, उन्हें भी घर बसाने की जल्दी थी, बीनू के बारे में तो उन्होंने सोचना ही छोड़ दिया था कि उसके भी कुछ सपने हैं.. 

भाभियां आईं.. घर की लक्ष्मी.. घर मालकिन बन गईं.. कानूनन हकदार थी वो .. अब उसका स्वामित्व कम होता जा रहा था क्योंकि उसकी जरूरत नहीं थी उनको अब.. 

उसकी कुर्बानी का मूल्य समझने का वक्त नहीं था किसी के पास.. बड़ी शिद्दत से उसे भी जीवन साथी की जरूरत महसूस होने लगी, जो उसके दुख दर्द को समझे, उसके अकेलेपन को दूर कर सके.. 

उसने घर में अपने मन की बात कही,, वर की तलाश शुरु हुई, पर अब तो कोई सैकेंड हैंड दूल्हा ही मिलता.. किसी की उम्र बहुत ज्यादा होती तो किसी के जवान बच्चे होते, वह इतनी उदार नहीं थी कि किसी के बच्चों को माँ का प्यार दे पाती और उन्हें धोखे में रखना, उसकी अंतरात्मा को स्वीकार नहीं था.. 

परिणाम यह हुआ कि कोई भी व्यक्ति उसे अपने उपयुक्त नहीं लग रहा था.. 

भाभियां, बहन, पड़ोसियों को अक्सर कहते सुनती.. नौकरी का अहंकार है, तभी तो घर नहीं बसा पाईं.. 

किस किस को सफाई दे कि अहंकार के कारण नहीं, जिम्मेदारी ने घर नहीं बसने दिया उसका.. दर्द के घूँट पीकर रह जाती बस.. 

कमलेश राणा

ग्वालियर

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