मेट्रो शहर की चकाचौंध में “स्टार र्लाइट टावर्स अमीरी का प्रतीक था। बिल्डर विशाल मल्होत्रा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में घोषणा की, “यह टावर समाज के ‘एलीट’ को समर्पित है!
” कैमरों की फ्लैश लाइट्स के बीच उसके चेहरे पर अकड़ थी। उधर, सोसाइटी के पिछवाड़े बसे झुग्गी-झोपड़ी में रोशनी बच्चों को पढ़ाती थीं। जब एक बच्चे की माँ ने फीस देने में असमर्थता जताई, तो रोशनी ने कॉपी-किताबें उसकी झोली में डाल दीं, “पढ़ाई रुकनी नहीं चाहिए।”
विशाल की लैंड क्रूजर जहाँ भी जाती, गेट खुल जाते। लेकिन रोशनी जब स्कूल के लिए म्युनिसिपल ऑफिस में बिजली कनेक्शन माँगने गईं, तो क्लर्क ने फाइल फेंक दी, “झुग्गीवालों को पढ़ाकर क्या राष्ट्र निर्माण करोगी?” एक दिन विशाल के सुरक्षा गार्ड ने झुग्गी के बच्चों को टावर्स की दीवार पर क्रिकेट खेलते देखा, तो उन्हें धक्का देकर भगाया, “ये अमीरों का इलाका है!” उसी शाम रोशनी ने टूटी चटाई पर बच्चों को “इंसानियत” का अर्थ समझाया।
मानसून में भीषण बारिश ने शहर को डुबो दिया। विशाल के टावर्स का बेसमेंट भर गया, लेकिन उसने सुरंग बनवाकर पानी झुग्गियों की तरफ मोड़ दिया। रात भर में झोपड़ियाँ नदी बन गईं। रोशनी ने बच्चों को कंधे पर बैठाकर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। एक बूढ़ा अपनी व्हीलचेयर में फँसा था, तो वह उसे कूदकर बचाने लगीं।
उधर, विशाल अपने पेंटहाउस से लाइव वीडियो डाल रहा था, “मैं पीड़ितों के लिए राहत शिविर बनवाऊँगा!” उसकी टीम लोगों को बचाने के बजाय टावर्स का पानी सुखाने में जुट गई।
सुबह जब पानी उतरा, झुग्गी मिट्टी के ढेर में तब्दील हो चुकी थी। रोशनी का बायाँ पैर घायल हो गया था, मगर उन्होंने पाँच बच्चों को मौत के मुँह से खींच लिया। विशाल ने मीडिया को दिखाने के लिए चेक दिखाया, “इन गरीबों को दस-दस हजार दिए जा रहे हैं!” अखबारों ने उसे “मानवीय चेहरा” बताया। रोशनी के बारे में एक लाइन लिखी गई: “स्थानीय शिक्षिका ने बचाए बच्चे।”
रोशनी अस्पताल के कोने वाले बेड पर पड़ी थीं। उनके पास सिर्फ वह बच्चा था जिसकी माँ फीस नहीं दे पाती थी। उसने पूछा, “मैडम, आपने सबकी जान बचाई, फिर भी लोग उस अंकल को ‘दानवीर’ क्यों कहते हैं?” रोशनी ने खिड़की से बाहर देखा—विशाल के राहत शिविर के बैनर पर उसकी तस्वीर चमक रही थी।
उन्होंने कहा, “बेटा, इज्जत इंसान की नहीं… पैसों की होती है।” तभी नर्स ने बताया, “आपका इलाज तभी जारी रहेगा जब कोई हॉस्पिटल बिल भरेगा।” बाहर, विशाल के टावर्स की लाइट्स ने शहर को फिर से रोशनी में नहला दिया।
यह आधुनिक युग का विडंबनापूर्ण सत्य है जहाँ पूँजी और प्रचार मानवीय करुणा पर भारी पड़ते हैं। विशाल का दिखावटी दान और रोशनी का निस्वार्थ त्याग समाज के उस नग्न सत्य को दर्पण दिखाते हैं, जहाँ इज्जत का मूल्यांकन ‘कितना’ से होता है, ‘कैसे’ से नहीं।
पर अंत में बच्चे की उत्सुक आँखें एक प्रश्न छोड़ जाती हैं: क्या हमारे मूल्यों की नींव इंसानियत पर टिकेगी, या यह ‘इज्जत का बाज़ार’ सदैव मुनाफ़े की राह देखेगा? और क्या अगली पीढ़ी इस सिक्के के दो पहलुओं को बदल पाएगी?
#इज्जत इंसान की नहीं… पैसों की होती है।”
डॉ० मनीषा भारद्वाज
ब्याड़ा (पालमपुर)
हिमाचल प्रदेश ।
Dr Manisha Bhardwaj