हमारा -परिवार – संगीता श्रीवास्तव

  ” तुम हमारे घर के मामलों में दखल मत दो , यह ‘हमारा परिवार’ है मेरा नहीं।” झल्लाते हुए मधुरिमा ने अपनी सहेली निकिता से कहा। “मुझे कैसे क्या करना है मैं जानती हूं। आज बाबू जी होते तो शायद…….

 उन्होंने मरने से पहले मुझसे कहा था ,”बहु मेरे बाद बड़ी बहू होने के नाते तुम्हारी जिम्मेवारी बनती है कि इस घर की बगिया को कभी मुरझाने ना दोगी। अपने प्यार से इस बगिया को सींचते रहना एक बात और बता दूं कि  मैंने कभी बेटा- बेटी मैं फर्क नहीं किया। हालांकि जगजाहिर है कि लड़की शादी के बाद ससुराल की हो जाती है, फिर भी, जब वह बाप के घर आए तो उसे यह ना लगे कि मेरा बाप नहीं है तो मेरी कोई अहमियत नहीं। तुम तो भली-भांति जानती हो , मोहिनी सब की कितनी लाडली है। तुम्हारे आने से वह मां की कमी भूल गई है। मेरा बेटा ,तुम्हारा पति एक नेक दिल इंसान है पर उसमें बचपना और अल्हड़पन है, उसे भी तुम्हें अच्छे से संभालना है।”

कह कर मधुरिमा जोर-जोर से रोने लगी। उसकी सहेली सारी बातें सुन उससे क्षमा मांगी ।

 ‌‌ मधुरिमा के ससुर एक अच्छे ओहदे पर कार्यरत थे। सासू मां मधुरिमा की शादी से पहले ही नहीं रही थी। मधुरिमा के आने से सारा घर फिर से चहकने लगा था। ससूर जी भी अब पूर्ण रूप से संतुष्ट थे कि सासू मां की कमी तो पूरा नहीं कर सकती लेकिन मां की तरह बखूबी अपने जिम्मेदारियों का निर्वाह कर रही।ननद मोहिनी तो मधुरिमा से लड़ना-झगड़ना, रूठना ,प्यार करना सब कुछ करती थी। चूंकि मां की तरह मानती भी थी।

मधुरिमा  सबसे बड़ी बहू। इनके पति मधुकर बैंक में कार्यरत थे। दूसरी बहू सुरभि, जिसकी शादी ससुर जी ने ही की थी, संजोग बस मधुरिमा की तरह सौम्य और संस्कारी थी। दोनों घर को बहुत अच्छे से चलाती थीं। छोटा देवर अभी पढ़ाई कर रहा था और घर की लाडली ननद मोहिनी, बहुत ही चंचल और सारे घर में बच्चों की तरह धमाचौकड़ी करती थी। बहुत ही सुंदर थी। बड़े भाई की शादी के समय वह दसवीं में पढ़ती थी। मां के चले जाने से मोहिनी बहुत ही शांत हो गई थी लेकिन मधुरिमा के आने से घर में फिर से हंसी-खुशी का माहौल हो गया था। मधुरिमा थी ही वैसी।वह अपने मायके की बहुत दुलारी बेटी और बहन थी। बहुत ही संस्कारी। रिश्तेदारों में दूर -दूर तक इसके मधुरता की चर्चा होती थी। सभी कहते थे कि अपनी सास की तरह मधुरिमा इस घर में बहू बनकर आ गई। ससूर जी बहुओं से बहुत खुश थे। लोगों से कहते थे -“मेरी बहुओं को नजर ना लगे।”




    सब कुछ सही चल रहा था लेकिन एक सुबह अचानक से ससूर जी की तबीयत बिगड़ी।लाख प्रयास के बावजूद दूसरे दिन स्वर्ग सिधार गए। मधुरिमा पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा। मधुरिमा ससूर के चले जाने से खुद को एकदम से अधूरा महसूस कर रही थी क्योंकि कुछ भी ससूर जी से पूछे बिना नहीं करती। समय अपनी गति से चलता रहा……. जैसे -तैसे घर संभला।

मधुरिमा को एक बेटी और सुरभि को एक बेटा । दोनों बच्चे मधुरिमा के ईर्द-गिर्द, हर छोटे-बड़े कामों के लिए उसे ही परेशान करते थे । सुरभि निश्चिंत थी की दीदी हैं हीं, तो मुझे क्या सोचना! मधुरिमा ने ही सारे घर को अपने ऊपर ‌ओढ़ लिया था।

छोटे देवर की शादी उनके पसंद की लड़की से कर दी गई। सास-ससुर के नहीं रहने पर , मधुरिमा को लगता था कि कहीं कुछ भी, मुझसे कमी ना रह जाए । कहते हैं ना, सब-कुछ ठीक रहने पर भी घर में कोई शख्स ऐसा आ जाता है कि सब-कुछ तहस-नहस हो जाता है। कुछ ऐसी ही थी छोटे देवर की ‌पत्नी -‘सारंगी’ ।एकदम से नाम के विपरित। वह सबसे अलग -थलग रहती थी और एकदम मनमौजी ।देवर ऐसी पत्नी पाकर बहुत परेशान रहते थे। घर के सभी सदस्य उनकी मनोदशा को समझते थे।समझदार होते हुए भी पत्नी के आगे …….।

 समय अपनी रफ्तार से चलता रहा। मोहिनी पढ़ाई पूरी कर बैंक में नौकरी करने लगी। अब इसकी शादी को लेकर मधुरिमा चिंतित थी कि कोई अच्छा सा लड़का मिल जाए तो इसके हाथ पीले कर दूं।

पढ़ाई के दरमियान ही मोहिनी और उसके साथ पढ़ने वाले कुशाग्र में प्यार के अंकुर फूट पड़े थे,पर‌‌ इसकी‌ भनक घर वालों को नहीं थी।




       ‌एक दिन जेठानी -देवरानी को शरारत सूझी और मोहिनी को बैठा छेड़ने लगीं। बातों-बातों में उसने कुशाग्र के साथ अपने ‌प्यार के बारे में बताया और शादी के लिए भी अपनी मंशा जाहिर की। दूसरे दिन इस बात को घर में भाईयों के बीच रखी गई। हालांकि सभी अपने छोटे भाई -बहू के रिश्ते से डरे हुए थे। इसलिए सबकी राय हुई कि पहले कुशाग्र से संतुष्ट हो लें। भगवान की कृपा से कुशाग्र बहुत ही सज्जन निकला। मोहिनी और कुशाग्र के परिवार वाले मिलकर इनके रिश्ते को फाइनल किए और आठवें महीने बाद शादी की तारीख भी तय कर दी।

मधुरिमा के पैर तो धरती पर नहीं थे। एक-एक करके तैयारियों में जुटी थी। उसकी देवरानी सुरभि भी हर कामों में उसका साथ देती।छोटी देवरानी सारंगी को  कोई मतलब नहीं था।

एक दिन ननद मोहिनी ने अपनी भाभी से कहा,”भाभी तुम कितना करती‌ हो, तुमने कभी मां की कमी नहीं होने दी।” दोनों भावविभोर हो लिपटकर रोने लगीं। तभी सुरभि आई, कहा -“तू ससुराल जाएगी!!!”

जैसे ही उसने कहा, तीनों एक दूसरे से लिपट आंखों से प्रेम की गंगा बहाने लगे।

देखते-देखते शादी का दिन भी करीब आ गया। मधुरिमा के पति और देवर निश्चिंत थे कि वह सब संभाल लेगी। सभी कार्य हो गए थे,बस जेवर का‌ काम बाकी था।




   ‌ एक बार ससूर जी ने मधुरिमा से कहा था-“तुम्हारी सासू मां के जो गहने हैं, तुम सभी आपस में बांट लेना।”मधुरिमा ने सोचा , क्यूं न मां के गहने मोहिनी को दे दिया जाए। यह बात उसने अपने पति और देवरों को बताया। सभी खुशी -खुशी इस बात से सहमत हो गए।उन सबकी बातों को सुन,छोटी देवरानी वहां पहुंच तेज आवाज में कहा -“क्यों सासू मां के जेवरों  को ननद को दिलायेगा ,इसपर हमारा हक है।”वह उत्तेजित हो अनाप-शनाप बोलने लगी।पूरा घर गमगीन हो गया। पैर पटकते हुए अपने कमरे में आ गई। उसके पति खामोश,कुछ ना बोल पा रहे थे। सभी उनकी मनोदशा , विवशता को समझ रहे थे। घर में सन्नाटा पसरा हुआ था। कुछ देर बाद ‌सन्नाटे को तोड़ते हुए मधुरिमा  निर्णय पर पहुंची । उसने कहा -“अगर यह बात है तो अपने हिस्से का जेवर मैं मोहिनी को दे रही हूं।” तभी दूसरी बहू, सुरभि ने आगे आकर कहा,”मेरे हिस्से का भी।”

मधुरिमा ने कहा, “ठीक है । सारंगी ‌के हिस्से का जेवर उसे दे दिया जाए। भले ही जेवर बंट जाए पर ‘हमारा परिवार ‘

ना बंटे।”

शादी का घर खचाखच भरा था।सब रश्में-रिवाज हो रहे थे।

अंत में विदाई का समय आया। मधुरिमा का हाल ऐसा था जैसे जिगर के टुकड़े को जबरदस्ती दूर कर रही हो।

जाते वक्त मधुरिमा ने कहा,”यह ‘हमारा घर’ है। तुम जब चाहो , हमारा  दरवाजा हमेशा खुला रहेगा।”

#परिवार 

स्वरचित, अप्रकाशित

संगीता श्रीवास्तव

उत्तर प्रदेश, लखनऊ

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