हम बड़े हैं, छोटो से क्यों सीखे? – रोनिता कुंडु : Moral Stories in Hindi

सुनो कल्पना! वह जो कल गोंद के लड्डू बनाए थे ना? उसे पूरा रख देना सूटकेस में, भावना को इसकी अभी सख्त ज़रूरत है, मुझे तो पता ही है तुम्हारी चटोरी आदत, कुछ ना कुछ रख ही लोगी, आशा जी ने अपनी बड़ी बहू कल्पना से कहा 

आशा जी यह सब कह ही रही होती है कि तभी बाहर दरवाजे से आवाज़ आई अरी आशा बहन घर पर हो या नहीं? 

आशा जी अंदर से आते हुए बोली, हां रेखा बहन घर पर ही हूं आती हूं…

रेखा जी:  सुना है तुम अपनी छोटी बहू, बेटे और पोते के पास जा रही हो? तो कितने दिनों तक रहने का इरादा है?

आशा जी:  कितने दिनों तक? मैं तो अब वहीं रहने का सोच रही हूं, अब बुढ़ापे में इंसान को क्या चाहिए? पोते के साथ खेलते हुए बीते, छोटी बहू की वजह से पोते का मुंह तो दिख गया, वरना बड़ी का तो तुम्हें पता ही है, दो लड़कियां जनकर मानो खज़ाना ही पा लिया, कितनी बार कहा है एक बेटा कर ले, पर हर बार आदित्य की कमाई का बहाना बनाकर

इस बात को टाल देती है और घर में कमी अलग से लगी रहती है। अपनी दवाई का भी छोटे बेटे अनुज को ही बोलती हूं, इनके तो अपने ही खर्च पूरे नहीं होते, मेरी क्या ही पूरी करेंगे? इसलिए सोचा अब अनुज के पास ही रहूं और भावना को भी अभी मेरी ज़रूरत है, अभी तो उसकी मां है उसके पास, पर वह भी बेटी के घर कब तक रहेंगी? 

रेखा जी:  हां सही है तुम्हारा, सुना है अनुज अच्छा कमाता है!

आशा जी:  हां बहुत बड़ी कंपनी में काम करता है, कार, खुद का फ्लैट सब कर लिया है इस उम्र में मेरे बच्चे ने और एक आदित्य है पता नहीं ऐसा कौन सा काम करता है? जहां पूरा-पूरा दिन खटने के बाद भी अपने घर के खर्च उठाए नहीं जाते, मुझे तो अनुज हमेशा से कहता है कि उसके पास चली जाऊं, पर मेरी ही मत मारी गई थी।

यह सब दूर खड़ी कल्पना भी सुन लेती है और वह मन ही मन सोचती है, क्या एक मां भी ऐसी बातें कर सकती है? अपने ही बेटों को उनकी कमाई की तराजू पर तोल सकती है, पर वह इस बात को यही दबा देती है, वह नहीं चाहती थी कि यह सारी बातें आदित्य को बता कर उसको दुखी करें, अगले दिन ही आशा जी की ट्रेन थी अनुज के वहां जाने के लिए,

अनुज ने एसी फर्स्ट क्लास की टिकट करवाई थी अपनी मां के लिए, आशा जी को स्टेशन छोड़ने सभी जाते हैं, जहां वह ट्रेन में चढ़ती हुई कल्पना और आदित्य को कहती है देख तेरे भाई को कितनी परवाह है मेरी? इतनी गर्मी में मुझे परेशानी ना हो इसलिए एसी फर्स्ट क्लास का टिकट करवाया और वहां स्टेशन पर अपनी कार से भी लेने आएगा।

चलो बुढ़ापे का असली मज़ा लेने का शायद वक्त आ गया है। यह भले ही कुछ शब्द उनके जुबान से निकली थी, पर किसी तीर की तरह आदित्य और कल्पना के दिल को भेद कर गई। पर उन दोनों ने खुशी-खुशी आशा जी को विदा किया और वापस घर आ गए। वहां अगले दिन आशा जी अनुज के शहर पहुंची। स्टेशन पर उतरकर उसने अनुज को चहकते हुए फोन किया और कहा, कहां है बेटा तू? मैं तो पहुंच गई। 

अनुज: मां! आप एक काम करो एक टैक्सी लेकर मेरे बताएं पते पर आ जाओ। या फिर टैक्सी वाले को ही फोन पकड़ा देना मैं उसे ही पता बता दूंगा। 

आशा जी:  बेटा तू नहीं आया? यह कैसी बातें कर रहा है? इस शहर में मैं पहली बार आई हूं और तू ऐसे ही किसी टैक्सी वाले के भरोसे मुझे छोड़ रहा है? तुझे तो पता ही था ना कि मैं आने वाली हूं, फिर तू क्यों नहीं आया मुझे लेने?

अनुज:  मां! मैं यहां कोई खाली नहीं बैठा हूं, काम आ गया अचानक इसलिए आ नहीं पाया। अब आप मेरा टाइम बर्बाद ना करके घर आ जाओ। यह कहकर अनुज फोन रख देता है। 

इधर आशा जी बेचारी पसीने से तर बतर कभी प्लेटफार्म से बाहर निकलने का रास्ता पूछती तो कभी अपने सामान को लेकर थक कर बैठ जाती। खैर किसी तरह वह प्लेटफार्म से निकल कर टैक्सी स्टैंड तक पूछते पूछते पहुंची। फिर अनुज को कॉल कर ड्राइवर को थमाया। अनुज ने ड्राइवर को घर का पता बताया और तुरंत फोन रख दिया। अनुज के फोन रखते ही ड्राइवर ने बोला आंटी पता तो काफी दूर है। ₹600 लगेंगे। अनुज ने ड्राइवर से बात कर तुरंत फोन रख दिया।

उसने इतना भी ज़रूरी नहीं समझा कि एक बार मां से उनकी हालत ही पूछ ले। उधर से निकलते वक्त आदित्य ने कुछ पैसे दिए थे और कहा था रास्ते में ज़रूरत पड़ सकती है। तब आशा जी ने कहा था थोड़े पैसे है मेरे पास बाकी अनुज देख लेगा, पर फिर भी आदित्य के जिद पर वह रख लेती है और आज उसे वह काम आ गया। आशा जी फिर अनुज के घर पहुंची।

सोसाइटी के दरबान से अनुज का घर पूछा तो पता चला वह आठवीं मंजिल पर रहता है और लिफ्ट के ज़रिए जाना पड़ेगा। उसने फिर अनुज को फोन किया, बेटा मैं तेरे फ्लैट के नीचे खड़ी हूं पर दरबान कहता है लिफ्ट से जाना पड़ेगा। बेटा बहू को कह ना के नीचे आए, मुझे कहां चलाना आता है यह लिफ्ट लिफ्ट?

अनुज:  ऑफ ओह मां.. कितना परेशान करती हो? दरबान को फोन दो ज़रा 

आशा जी घबराते हुए फोन दरबान को देती है, अनुज दरबान को आशा जी को उसके फ्लैट तक छोड़कर आने को कहता है और फिर आशा जी अंतत: इतनी परेशानियों का सामना करते हुए अनुज के घर पहुंच जाती है। उन्हें देखते ही भावना उनके पैर छूकर अंदर बिठाती है। फिर अंदर से भावना की मां भी आकर वहीं बैठ जाती है। आशा जी को पानी देने के बाद भावना आशा जी से पूछता है, मम्मी जी, यहां आने में कोई परेशानी तो नहीं हुई ना? उनको ज़रूरी काम आ गया था इसलिए जा नहीं पाए।

आशा जी:  हां थोड़ी परेशानी तो हुई, वह क्या है ना? नया शहर है ना? वैसे मेरा लड्डू किधर है? अरे उसके लिए तो ऐसी कई परेशानियां हंसकर सह सकती हूं मैं? भावना? लेकर आओ ना उसे,

भावना:  मम्मी जी! आप पहले ज़रा नहा धो लीजिए, आर्यन सो रहा है तब तक वह भी उठ जाएगा। अब तो उसे आपके साथ ही रहना है देख लीजिएगा जी भरकर तब।

अगले दिन भावना की मां चली जाती है, तो आशा जी देखती हैं अनुज ही उन्हें स्टेशन छोड़ने गया। उनके सारे सामान को खुद ही कार की डिक्की में डाल रहा है। यहां मां से एक बार भी नहीं पूछा मां कैसी रही आपकी यात्रा? या ना आने पर कोई अफसोस ही जताया, यह सब देखकर आशा जी को काफी बुरा लगा, पर उन्हें कहां पता था कि आगे और क्या होने वाला था? भावना और अनुज आर्यन को आशा जी के भरोसे छोड़ कभी फिल्म देखने तो कभी घूमने चले जाते हैं। पहले कुछ दिन तो भावना उनके लिए खाना भी बनाती थी। धीरे-धीरे यह काम भी आशा जी के नाम हो गया। ना अनुज के पास ना भावना के पास समय था आशा जी के साथ समय बिताने का। कभी जो आर्यन को संभालने में कोई काम नहीं कर पाती तो उन्हें ताने दिए जाते। जो खाना बनाने में आर्यन को संभालने में कोई चूक हो जाती तो उसे पर भी ताने मिलते। एक दिन की बात है अनुज ने कहा मां हम शादी पर जा रहे हैं, तो आप अपना खाना बना लेना और आर्यन का भी ध्यान रखना। 

आशा जी:  बेटा जब से यहां आई हूं मैं बस इसी चारदीवारी में कैद हूं। हमें भी ले चल शादी पर। मैं आर्यन को वहां संभाली रहूंगी। इससे हमारा भी मन बहल जाएगा। 

भावना:  देखा मैं ना कहती थी यह यहां ऐश करने आई है, भैया के पास तो ना ढंग का खाना ना ढंग का पहनावा मिलता था। इसलिए सोचा यहां सब मिलेगा अब इनको बाहर का खाना है, वह तो सीधे-सीधे कह नहीं पा रही तो बाहर टहलने का बहाना ही बना रही है। मम्मी जी, आज आपको एक बात साफ-साफ बता देती हूं कि आपको यहां आर्यन के लिए बुलाया है, क्योंकि मेरी मम्मी को जाना था, तो आप यहां अपना काम कीजिए और चुपचाप रहिए। 

अनुज:  और मां आपके खर्च कुछ कम नहीं है, तो यह सब फ्री में थोड़े ही ना होता है? सोचिए कि आपका उन्ही खर्चों का यह हिसाब है आर्यन का देखभाल करना। अनुज और भावना की बातें सुनकर आशा जी के आंखों के आगे अंधेरा छा गया और वह अपने किए हुए हर एक शब्दों के प्रहार जो उन्होंने आदित्य और कल्पना पर किया था याद करके पछताने लगी। शायद यह उसी का फल था। अपने हीरे जैसे बेटे को छोड़कर उन्होंने सबसे बड़ी गलती की थी। आदित्य भले ही कम कमाता है पर अपनी मां को प्यार और सम्मान देने में कोई कमी नहीं करता। पर फिर भी मैंने पैसों की तराजू में उसे तोला, उन्होंने फिर आदित्य को फोन कर कहा, बेटा अपनी मां को माफ कर दे और एक जनरल डब्बे का ही टिकट करा दे मेरे लिए। मैं अब यहां एक पल भी नहीं रहना चाहती। यह कहकर उन्होंने रोते-रोते सारी बातें बता दी और कहां बेटा अपमान की बिरयानी रोज़ खाने से अच्छा है सम्मान की सूखी रोटी ही खाया जाए। अगले दिन अपना बैग लिए जब आशा जी निकल रही थी तब अनुज और भावना उनसे पूछते हैं, कहां जा रही हो आप? 

आशा जी:  बेटा आई तो थी यहां पोते के साथ अपना बुढ़ापा बिताने, पर यहां आकर पता चला कि उसकी दादी को नहीं उसकी आया को बुलाया गया था। इसलिए अब मैं वहीं वापस जा रही हूं जहां मेरा बेटा बहू और पोतिया रहती है। कोई मालिक नहीं। 

अनुज:  हां हां जाओ! वैसे भी आपका यहां मुझे पता था जब आपका यहां पर काम नहीं होगा, आपके मन के मुताबिक, तो आप यहां रहोगी भी नहीं। पर एक बात सुन लो जितना सुख आपको यहां मिलता ना वह भैया कभी नहीं दे सकते, बस बदले में करना ही क्या था आर्यन की देखभाल?

भावना:  यह आप क्या बातें कर रहे हो? यह तो बस फ्री मैं ऐश करने आई थी, 

आशा जी:  हां सही कहा और मुझे यहां आकर ही पता चला कि मैंने अपने लिए कोई नौकरी कर ली है, जिसके तानाशाह मालिक तुम दोनों हो, पर मैं तो यहां अपना परिवार समझ कर आई थी और फिर आशा जी लिफ्ट से खुद ही नीचे गई और खुद ही टैक्सी दरवान से बुलवाकर पहुंच गई स्टेशन और वहां से अपने शहर के स्टेशन, जहां उनका बड़ा बेटा और बहू उनके राह तक रहे थे। शायद आज उन्हें समझ आ गया था कि भले ही पैसा सारी चीज़े खरीद ले, पर प्यार सम्मान और परिवार नहीं खरीद सकता।

दोस्तों, इस कहानी से मैं यह संदेश देना चाहती हूं कि कभी-कभी हमारे बड़े भी गलत चीजों का साथ देते हैं, पर उनसे बहस कर हम उन्हें कभी नहीं समझा सकते तो, बेहतर है हम उन्हें चलने वाले हालातो के अनुसार छोड़ दे, फिर जो वह सीखेंगे शायद वह आपके बार-बार चीखने पर भी ना सीख पाए। क्योंकि उन्हें लगता है वह बड़े हैं और उन्हें हर चीज़ का ज्ञान है, छोटो से सीखने पर उनके मान को भी तो ठेस पहुंचती है ना? 

धन्यवाद 

रोनिता कुंडु

#सम्मान की सूखी रोटी

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