अरे ऊर्जा!! तुम यहां कैसे? और यह क्या तुम तो बिल्कुल बदल गई हो। कितनी स्मार्ट लग रही हो!! एक सांस में बोल गई मैं।
ऊर्जा,”माही दीदी!! फिर इधर-उधर देख सहज होते हुए,”बताइए इस कार्यालय में कैसे आना हुआ?”
माही,”(कागज दिखाते हुए)वो मैं अपने स्वयं सहायता समूह के लिए, महिला विकास मंत्रालय द्वारा चलाई जा रही एक वैत्तिक स्कीम के बारे में अपना स्टेटस पता करने आई थी।”
ऊर्जा,”आप एक काम कीजिए यह कागज मुझे दे दीजिए। अभी लंच का समय हो रहा है तो चलिए बाहर कैंटीन में चाय पीकर आते हैं।”
माही (कैंटीन में पहुंचते ही),”अब बताओ अनुज कैसा है? वो कैसे बदल गया? बच्चे कैसे हैं? और तुम यहां अपने देहाती रूप से एकदम बदले हुए मॉडर्न अवतार में?कैसे ?कब आई?
ऊर्जा,”अरे दीदी एक साथ में ही सब पूछ जाएंगी क्या? कैंटीन वाले से चाय लेकर हुए मुझे पकड़ाकर बोली।”
माही,”तो पूछूं भी नहीं क्या? मेरी सडी़ गली से मुंह बनाकर रखने वाली ,लाडली सी, प्यारी सी सहेली और रिश्ते में भाभी आज इतनी खुश मिली है इतने सालों बाद अनजाने शहर में।”
ऊर्जा,”रूआंसी होकर, अनुज जी मुझे छोड़ कर चले गए।
माही, ” माफ करना।”
ऊर्जा,” माफी कैसी दीदी, भगवान को यही मंजूर था। और आप तो जानती हैं मैं कितनी खुश थी, उस शादी से।अब कम से कम कमाकर तो खा रही हूँ, पहले तो वरना सिर्फ मार ही तो खाती थी।”
माही कुछ सोचते हुए मन ही मन, “ठीक ही तो कह रही है। कितना बुरा सुलूक करता था अनुज, मेरी दूर की मौसी का बेटा उसके साथ।”
ऊर्जा,” ये चले गए।मैने तो बमुश्किल दसवीं कर रखी थी तो फिर ये क्लर्क थे तो इन्हीं के ऑफिस में मुझे चपरासी की नौकरी मिली।पहली बार गांव से बाहर निकली तो देखा कि दुनिया कितनी आगे बढ़ रही है। घर खर्च तो निकल जाता था पर सुबह सात बजे घर का सब काम करके निकलती और शाम सात बजे ही घर घुसती। पर कहते हैं न, हमारा बुरा वक्त कभी कभी हमें नई दिशा दे जाता है तो बेटी बारहवीं में थी तो उसके साथ जागती तो थी ही सो मैने भी ओपन से परीक्षा दे दी। पास हुई तो पहली बार लगा कि मैं भी कुछ कर सकती हूँ और फिर लगन लग गई , बच्चों ने हौंसला बढ़ाया तो बी.ए भी कर ली ।किस्मत थी कि की उसी समय महिला बाल विकास निगम में डिस्ट्रिक्ट प्रोजेक्ट ऑफिसर की पोस्ट निकली और विधवा कोटे से सिलेक्शन हो गया।”
माही,”बहुत अच्छा लगा, आज तुम्हें खुश देखकर। बेटी क्या कर रही है?
ऊर्जा,” दीदी, तैयारी कर रही है।उसकी शादी जल्दी नहीं करूंगी।पहले वो अपने पांव पर खड़ी हो, ताकि मेरी तरह पांव न पीटने पड़ें।”
माही, “ऊर्जा!! तुमने तो सही में अपना नाम सही साबित कर दिया।वैसे एक बात बताओ तुम पच्चीस की उम्र में ज्यादा खुश थी या अब चालीस में ?”
ऊर्जा,” दीदी खुलकर सच बोलूंगी आपसे, बीस में शादी हुई, इक्कीस में मां बनी। घर का चूल्हा चौकी से रात को पति की सेवा तक में कोई कसर नहीं छोड़ी। फिर भी न सास के तानों में कमी आई , न पति की पिटाई में।पेट भरने को रोटी ही खाती थी बस। नाम का श्रृंगार करती थी पति होने पर। कैसे खुश होती मैं। आज चालीस पार हूं,अपने फैसले खुद लेती हूँ। मन का खाती हूँ, मन का पहनती हूँ। अपना और बच्चों के आज और कल का सोचती हूँ ।आप बताओ कब ज़्यादा खुश थी?
माही,” मुस्कुरा कर, सीख गई हो तुम तो ऊर्जा।अब कह भी दो और मुंह भी न खोलो।”
ऊर्जा,”आप ही से सीखा है दीदी, बुरे वक्त को नई दिशा देकर अपना बना लो।”
माही, ” मैं सच में बहुत खुश हूँ तुम्हारे लिए।”
ऊर्जा,” चलो दीदी, लंच खत्म हो गया। आपका काम भी कर देते हैं। और शुक्रिया मुझे भाभी, ननद या किसी और नज़रिए से न देखकर सिर्फ़ इंसानी नज़र से देखने के लिए।”
(और चल दी दोनों, अपनी अपनी मंजिलों के सफर पर।)
लेखिका
ऋतु यादव
रेवाड़ी, हरियाणा