हाँ…एक नया आगाज़ मैंने भी किया – संगीता त्रिपाठी

मठरी बनाने के लिये जैसे ही मैदे में पानी डाला घंटी की टुनटुन बजी कौन होगा सोचते मैंने आटा सने हाथों से दरवाजा खोला देखा पड़ोसी वर्मा जी और उनकी श्रीमती खड़ी थी। मैं अपने आटा सने हाथों को देख शर्मिंदा हो गई। एक मिनट भाभी मैं आई। अरे कोई बात नहीं हम जल्दी में है और कई घरों में जाना है। कह एक गिफ्ट बढ़ा “हैप्पी दिवाली” कह दोनों बाहर हो गये। “अरे भाभी ऐसे कैसे चले जायेंगे और दिवाली तो दो दिन बाद है।अंदर तो आइये।चाय पी कर जाइएगा।”

“हाँ दिवाली तो दो दिन बाद है पर इतने लोगों के घर जा कर गिफ्ट देना होता है समय कम पड़ने लगता है।” चाय पीने फिर कभी आऊंगी बहुत जगह जाना है हाथ हिला कर वे लोग चले गये। मैं हाथ में गिफ्ट पकडे ठगी सी खड़ी रह गई। कुछ समझ में नहीं आया ये कैसा दिवाली की शुभकामना।

मैं इस शहर में नई आई थी।  यहाँ मेरी पहली दिवाली थी।दीपेश इकलौते बेटे है तो हम दिवाली सास-ससुर के साथ मनाते थे। इसबार हम नहीं जा पा रहे थे तो कल वे लोग यहाँ आ रहे मैं उसी तैयारी में व्यस्त थी।

शाम जब दीपेश आये तो मैं पड़ोसी वर्मा जी प्रकरण बता रही थी तभी दुबारा घंटी बज उठी दरवाजा खोला तो ऊपर के फ्लैट वाले अंकल-आंटी थे। “हैप्पी दिवाली “बोल एक बड़ा डिब्बा मुझे पकड़ा बोले चलता हूँ और जगह जाना है। ऐसे कैसे चले जायेंगे अंकल बैठिये चाय पी कर जाइएगा। ना.. ना बेटा बहुत लोगों के घर जाना है कह खिसक लिये। मैं परेशान हो गई क्योंकि पुराने शहर में लोग दिवाली वाले दिन आते थे बैठते थे शुभकामनाये देते थे पर उपहार की प्रथा नहीं थी।




कल धनतेरस है और आज वर्मा जी और अंकल जैसे चार-पांच लोग उपहार दे गये और दरवाजे से ही लौट गये। नये शहर की ये नई आबो-हवा मुझे बिल्कुल रास नहीं आई। दिवाली तक हमारे घर का एक कोना उपहारों से भर गया। मिठाई के डब्बे हल्दीराम बीकानेर के गिफ्ट वाले डिब्बे गिफ्ट आईटम। देख-देख मेरी धड़कन तेज हो जा रही। उपहारों से भरा घर हमारी शांति छीन लिया था।सासु माँ ने सुझाया ये डिब्बे तुम भी उपहार में दे आओ। मैंने मना कर दिया। क्योंकि मैं इस तरह के आगाज़  नहीं चाहती थी। सारे डिब्बे ले पति के साथ पास के झोपड़- पट्टी में जा सब घरों में बाँट आई उनके खिले चेहरे देख मन खुश हो गया।किसी के चेहरे पर मुस्कुराहट की रोशनी बिखेर पाई वहीं दिवाली है। कम से कम इन लोगों में कृत्रिमता तो नहीं है।

सोसाइटी में बहुत समझाने पर भी गिफ्ट का आदान-प्रदान बंद नहीं हुआ। सबका कहना था इसी बहाने हम सब एक-दूसरे के घर हो आते है।और ये तो पुरानी प्रथा है।मैं बोल नहीं पाई दरवाजे पर ही विश कर गिफ्ट पकड़ना ये कैसी प्रथा है।जहाँ किसी को भी किसी के घर बैठने का समय नहीं सिर्फ एक औपचरिकता निभाने की कोशिश किसको करीब लाएगी।आज के भागते समय के दौर में लोगों के पास समय मानवीय संवेदना वैसे ही कम होती जा रही। दिखावे की अंधी दौड़ में शामिल लोगों की भीड़ में अपने को बचाना आसान नहीं है पर कोशिश की जा सकती है।

सखियों आप क्या कहती हो त्यौहार पर एक दूसरे के साथ समय बिताना अच्छा है या उपहार का अदान-प्रदान। मैंने उपहार में मिठाई या गिफ्ट पैकेट्स ना देकर सबके घर जा कर समय जरूर बिताया। कुछ ने मुझे सिरफिरा किसीने घमंडी तो किसी ने कुछ और कहा पर मैं अपने फैसले पर अडिग रही। आप भी कम से कम कुछ उन घरों को रोशन करें जो आर्थिक अभाव की वजह से खुशियाँ नहीं मना पा रहे है।

संगीता त्रिपाठी

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