गुनाह – स्मिता सिंह चौहान 

पहले गा के दिखा या नाच के तब नेग दूंगा दिवाली का” दुकानदार निशा से बोला।

“अरे सेठ, अपनी पूरी जिंदगी काट दी इस बाजार में। हम तो नाच गा के ही खाते हैं उम्र भर। हमें कौन सा कोई काम देता है जो हम भी तरीके से खाएंगे?” निशा बोली।

“क्या बात? बड़े बड़े डायलाग मारने लगी है। हम तो यूँ ही मर जाते तुझ पर” बड़े ही ओछे तरीके से वह दुकानदार बोला।

“सेठ टाइम खोटी ना कर, तबीयत ठीक नहीं है मेरी। अभी पूरा बाजार घूमना है। तू 200 रुपए से ज्यादा देता है नहीं। टाइम की मगजमारी कर देता है” निशा बोली।

“ये ले आज 250 दूंगा। नाचना तो पड़ेगा। “दुकानदार फिर बोला।

“रकीब मार ढोलक में थाप, डांस ही देखके ही देगा ये। काहे बात के बड़े लोग, तुमसे तो हम किन्नर अच्छे। कोरोना काल में सब की कमाई की लगी पड़ी है सोचके जिसने जो दिया दिवाली के त्यौहार के नाम का वही पा के खुश हो रहे है। लेकिन तू ठहरा मर्द जात, पहले आँखे सेक ले अपनी तभी निकलेंगे तेरे हाथ से पैसे। “कहते हुए निशा ने नाचना शुरू किया। थोड़ी ही देर में वह थक गयी और दुकानदार जो पैसे घूमा रहा था उसे लेकर ताली बजाते हुए आगे बड़ी।

अरुणा बहुत देर से उसी दुकान में ये सब तमाशा देख सुन रही थी। तभी जैसे उसे कुछ याद आया, अपने पर्स से कुछ पैसे निकालते हुए निशा के पीछे दौड़ी तो देखा की निशा दुकान से कुछ दूर एक गली में मुड़ गयी।

वह भी आवाज़ लगते हुए पीछे गयी “सुनिए, सुनिए, रुकिए “लेकिन निशा को अरुणा की आवाज़ जैसे सुनाई ही नहीं दी और वह दोनों गली में मुड़ गए थे। स्नेहा भी उस गली की ओर चली गयी तभी देखा एक पैड़ी पर बैठ कर वह बहुत ज़ोर से सांस ले रही है।

“अरे क्या हुआ इन्हें ?”अपने पर्स से पानी की बोतल उसकी तरफ बड़ाई।

“अरे कुछ ना दीदी, तबीयत ठीक ना है। डायबिटीज़ है बीपी है, और भी ना जाने कितने रोग है।और सबसे बडा रोग तो हम लेके पैदा हुए हैं, किन्नर का ठप्पा । अब उम्र हो गयी है लेकिन पेट के लिए बाहर निकलना पड़ता है। एक ज़माना था जब आस पास निशा की बधाईयाॅ और नाच मशहूर था। हम तो कुदरत के मारे है, ऊपर से ये कोरोना ने पेट पर लात मार रखी है। अभी वो कम्बखत दुकान वाला मुआ नचवा दिया इसे, अब शरीर साथ ना देता इसका “साथ में आया ढोलकवला रकीब बोला।


पानी पीकर थोड़ा सा सुस्ताते हुए बोली “भगवान तुझ पर मेहर करे दीदी। हम पर लोग बोलके भी नहीं तरस खाते, तू पानी पिला रही है। “निशा अपने सख्त अंदाज़ में बोली।

” वो उस दुकान में, मैं भी खड़ी थी। लेकिन आपकी बहस हो गयी, उसी चक्कर में भूल गयी। मैं दिवाली का नेग देने आयी थी तुम्हारे पीछे। ये लो। “500 रुपए बढ़ाते हुए बोली।

“तुम्हे दवा की जरूरत है तो मैं वह मेडिकल शॉप से दिलवा सकती हूँ।कोई काम क्यों नहीं कर लेती आजकल तुम्हारे लिए भी गवर्मेन्ट  बहुत कुछ कर रही है। अपना ध्यान रखो। “स्नेहा उसको सलाह देते हुए बोली।

“तरे बच्चे जीवे, परिवार खुश रहे, तूने बिना कहे मुझे नेग दिया, ऊपरवाला तेरी झोली भरे। 55 साल की हूँ मैं, जब होश संभाला तबसे नाचना गाना ही सीखा। अब कितने दिन के है ?कट ही जाएगी ज़िन्दगी । बस अब शरीर साथ नहीं देता दीदी। “निशा बोली।

अकस्मात् स्नेहा के मन में एक सवाल के प्रति जिज्ञासा पैदा हुई उसने बोला “बुरा ना मानो तो एक बात पूछू ?मन ना करे तो जवाब मत देना। “

“पूछो, पहले फिर डिसाइड करूंगी। “धीमे से मुस्कुराते हुए बोली।

“किन्नरों के अलावा जहां तुमने जन्म लिया वह परिवार भी तो याद आता होगा। मालूम है तुम्हे, की कौन है तुम्हारे माँ बाप ?या तुम्हे इस बारे में बताया नहीं जाता।  अब जमाना बहुत बदल गया है क्या पता उम्र के इस पड़ाव में तुम्हारा दर्द देखकर तुम्हे कुछ मदद कर दे। अगर मन दुखे तो जवाब मत दो। पता नहीं पूछने का मन किया तो पूछ लिया। “स्नेहा कुछ असमंजस की स्थिति से रूबरू होते हुए उनसे बोली।

“अब पत्थर से तो जन्म नहीं लिया, आये तो हम भी माँ की कोख से है ।”एक लम्बी गहरी सास लेते हुए बोली “मैं ११ साल की थी कहते है जब मुझे मेरे घरवालों ने किन्नरों को सौपा। कई लोग बहुत छोटे में भी सौंप देते है। शहर के बहुत प्रतिष्ठित परिवार में जन्म हुआ था मेरा। घर की पहली संतान थी 11 साल तक माँ की ममता जगी रही मेरे लिए ।फिर दूसरा बच्चा हुआ मुझ से तीन साल छोटा। तब से मैं भारी लगने लगी।एक दिन मुझे चाँदनी मौसी (किन्नर) को सौंप दिया, बस इतना याद है ।

तीन दिन खूब रोई थी । फिर उसी किन्नर समाज में धीमे धीमे रम गयी। सब भूल गयी एक बार पूछा था जो मुझे लेकर आयी थी मौसी , उनसे अपने घर का पता। तब 18 साल की थी, उन्होंने बताया तो मिलने भी गयी लेकिन मेरी ही माँ ने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया। मैं उनकी मजबूरी समझ गयी की इस समाज से मेरे लिए लड़ने की हिम्मत उन में नहीं रही होगी। लेकिन एक बात मुझे आज तक नहीं समझ आयी की उन्होंने मेरी मजबूरी क्यों नही समझी कि इसमें मेरी क्या गलती थी ?

मुझे भगवान ने ऐसे ही बना के भेजा। आदमी और औरत का रूप भी उसने ही बनाया और मेरा भी ,लेकिन मेरे रूप का इतना तिरस्कार क्यों ?एक माँ जिसने मुझे भी ९ महीने में जनम दिया, कुदरती चीज़े दर्द, ममता, सब उसने मेरे लिए भी बराबर महसूस किया होगा ?अगर उस दिन वह एक बार मुझे पहचान लेती तो क्या जाता?मैं वहाँ रहने नहीं गयी थी, मैं तो अपने माँ बाप को देखना भर चाहती थी।क्या दिल के कीसी कोनें में प्यार का ना सही ,एक टुकड़ा बंजर ही सही मेरे लिए इतना भी नहीं था उनके पास।बारिश भी बंजर जमीं के लिये पक्षपात नहीं करती,वो तो मां थी ।वो ऐसा कैसा कर सकती है।”


बोलते हुये निशा का गला सूख रहा था और आंखे नमी लिये थी,कुछ अजीब संयोग था ।फिर अचानक अपने को संभालते हुये ,निशा की तरफ देखते हुये बोली”हमको जमाना कठोर बोलता है, बद्तमीज़ बोलता है। आप बताओ जन्म लेने से लेकर मरने तक जो तिरस्कार, शोषण, सामाजिक दबाव, मानसिक शोषण हमें मिलता है, जैसे हम इंसान ही नहीं है। तो बताओ दी आप क्या कोमलता से व्यव्हार करते?अगर हम कठोर ना हो और हमारी बद्दुआ का खौफ ना हो

शायद इससे भी बुरे हालात हो हमारे। सबके परिवारों के लिए दुआ, बधाईयाॅ देते हुए अपने परिवार की याद तो आती ही है ना। हमें भगवान ने ऐसी सजा क्यों दी जो गुनाह हमनें किया ही नहीं यह समझ नहीं आया आजतक। मैं ही नहीं हर किन्नर रोज़ शायद अपने से यही सवाल करता होगा ?”कहते हुए उसकी आँखें भर आयी। स्नेहा उसकी बातें सुनके जड़वत सी खड़ी रही। पहली बार किसी किन्नर के आँखों मैं आंसू देखकर वह अंदर तक जैसे हिल गयी।

तभी निशा ने उसके सर पे हाथ फेरते हुए अपने अंदाज़ मैं उसे दुआए देकर 11 रुपए उसके हाथ पर रखते हुए बोली “ये ले मेरे तरफ से दिवाली का शगुन। अपने घरवाले के पर्स मैं अलग से रखना। परमात्मा खुशियों से उसकी कमाई मे दिन दुगुनी रात चौगनी बरकत दे। तू सब को देनेवाली बने। “

स्नेहा को उसकी दुआएं अपने दिए हुए 500 रुपये से कही अधिक मूलयवान लग रही थी। तभी निशा ताली बजाते हुए उस गली की दूसरी दुकान मे बढ गयी “रंगमहल मे आज बधाई बाजे । “स्नेहा के कानो मे निशा की आवाज़ जैसे गूँज रही थी “जो गुनाह हमने किया ही नहीं उसकी सजा क्यों ?”

दोस्तों, हमें प्रकृति की किसी भी रचना के प्रति राय तब बनानी चाहिए जब उसके पीछे के  संघर्ष से हम वाकिफ हो। हम कई समुदायों के प्रति यह सोचते है की ये लोग ऐसे ही होते है, या उनके पास कोई इमोशन नहीं होता।ये तो श्रापित है , लेकिन परमात्मा ने तो बिना दिल और दिमाग के साथ किसी को इस संसार मे भेजा ही नहीं। आजकल किन्नरों के उत्थान के लिये कई योजनाएं, समानता देने की बातें,उनको सामान्य समझने की गुजारिश,ये सब बातें कही जाती है। लेकिन जरूरत है पहले हम अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण मे बदलाव लाये। इस पृथ्वी मे जो भी परमात्मा प्रदत है वो उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना है।

3 thoughts on “गुनाह – स्मिता सिंह चौहान ”

  1. बहुत सुंदर रचना
    आपने बहुत ही मार्मिक विषय चुना
    मेरे भी यही विचार हैं
    समाज के लोगों को ही किन्नरों के प्रति अपनी सोच बदलनी होगी

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    • Kya soch h aapki kyu kinner kya aasman se paida hue h nikle to ma ki kohk se hi h us ma ka dil rota ni apne bache k liye babaji se aisa bnaya h to us bache ki ya ma ki kaha galti h samaj k thekdaro ko samjhane ki zaurat h hum 21sadi mein h soch badlo

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