अरे जल्दी जल्दी हाथ चला कम्मो, तीन घंटे में तूने इतनी सी मिर्चें ही कूटी है, और तूं रानो , तीन दिन से मेथी
सुखाने के काम में लगी है,अभी भी कुछ कुछ गीली सी लग रही है, कोई काम पूरा नहीं हो रहा। अभी तो हल्दी कूटनी
है, गरम मसालें तैयार करने है, और भी न जाने क्या क्या बाँधना है। छोटे मालिक के आने में सिरफ एक हफ़्ता ही
तो बचा है, न जाने ये सारे काम सिरे चढ़ेंगे भी या नहीं। सुमित्रा ताई पूरी हवेल में घूम घूम कर काम का जायज़ा भी
लेती जा रही थी, और बड़बड़ाती भी जा रही थी। दोपहर होते होते आख़िर वो थक कर आंगन में बिछी चारपाई पर
बैठ कर दो घड़ी सुस्ताने लगी तो रेशमा चाय बना कर ले आई। सबको चाय देकर सुमित्रा ताई को भी चाय का गिलास
पकड़ाया और ख़ुद भी पास बैठकर सुड़क सुड़क कर चाय पीने लगी। चाय खत्म होते ही सुमित्रा ताई झट से उठने को
हुई तो रेशमा ने हल्के से उसे बाँह से पकड़ कर वापिस चारपाई पर बिठा लिया और प्यार से उसके खुरदरे हाथों को
सहलाने लगी। ' थोड़ी देर आराम कर लो ताई, सब हो जाएगा, चिंता क्यों कर रही हो'?
' अरे चिंता न करूँ तो और क्या करू' ताई रेशमा का हाथ झटकते हुए बोली। ' कितना कुछ तैयार
करना है, छोटे मालिक और सारे परिवार के लिए, तुझे नहीं पता, तूं तो बाद में यहाँ आई है। परदेस में रह कर भी वो
वतन को नहीं भूले। बीस साल से अमरीका में रह रहे है, पर हर साल यहाँ अपने देश अपने गाँव जरूर आते हैं। कई
बार बहूजी और बच्चे न भी आ पाए, तो भी छोटे मालिक विराज तो आए ही आए। और इस बार तो हमें उनका और
भी ज़्यादा ध्यान रखना है। पहले माँजी सब संभाल लेती थी, अब सब हमारे जिम्मे है। बाहर रह कर भी वो जितना हो
सके खाने का समान यहाँ से लेकर जाते है, और ख़ास तौर पर मसालें। उनका कहना है कि हमारे देश जैसे मसाले
कहीं भी नहीं मिलते। परदेस में रह कर भी जब रसोई से भारतीय मसालों की महक उठती है तो लगता है कि अपनी
ही हवेली में खाना पक रहा है। और तो और जितना समय रहते है, हर रोज नए नए पकवान घर में बनते। पकवानों
के नाम से ही उसे माँजी की याद आ हो गई।आँखे नम हो उठी तो मुँह दूसरी तरफ फेर लिया।
घुटनों में दर्द के बावजूद भी माँजी सारा खाना अपनी देखरेख में पकवाती। रसोई घर में ही मूढ़े पर
बैठी रहती। सुमित्रा ताई अपनी ही धुन में बोले जा रही थी। रेशमा तो कब की वहाँ से जा चुकी थी। रसोई घर में
कितना काम पड़ा था करने को। वैसे भी ये सब बातें वो कई बार सुन चुकी है। रेशमा पिछले आठ महीनों से हवेली में
काम कर रही थी। वो मालिकों में से किसी से भी नहीं मिली, लेकिन सुमित्रा ताई से इतना कुछ सुन चुकी है कि उन
सब के बारे में वो जान गई है । सुमित्रा ताई मालिकों की कोई रिशतेदार नहीं बल्कि बहुत पुरानी नौकरानी है। क़रीब
तीस पैंतीस साल पहले वो शादी के बाद पति के साथ किसी दूसरे राज्य से यहाँ आई।यहाँ पर उसके पति के कुछ दूर
के रिशतेदार और जानकार पहले से ही थे। दो तीन साल उसके पति ने शहर में मेहनत मज़दूरी की और ताई ने भी
घरों में साफ सफाई का काम किया , लेकिन फिर उन्हें गाँव की इस हवेली के जिमीदार के घर काम करने का मौका
मिला। ताई के पति को खेतीबाड़ी का काम आता था, बस एक बार जो मौका मिला तो वो यहीं के हो गए। सावित्री घर
के काम करती और उसका पति संता खेतों का काम संभालता। काफी ज़मीन थी, बड़ी हवेली थी तो जाहिर है कि नौकर
चाकरों की फ़ौज तो होनी ही थी।
सावित्री और संता की मेहनत और इमानदारी ने मालिकों के मन में अपनी अलग ही जगह बना ली।
जल्दी ही उन्हें हवेली के एक कोने में रहने की अच्छी जगह मिल गई। पता ही नहीं चला कब वो घर के सदस्य
समान ही हो गए। दिन रात काम में लगे रहते, मालिक ( जिंमिदार )भी बड़े दयालु ओर हमदर्द। वही रह कर सावित्री
ने तीन बच्चों को जन्म दिया। दो बेटे और एक बेटी। सबकी पढाई लिखाई यहाँ तक कि शादिंया भी हो गई। संता गांव
में भी पैसे भेजता रहा। इधर मालिक के एक ही बेटा था। उच्च शिक्षा प्राप्त करने जो अमेरिका गया तो वहीं का ही हो
गया। शादी भी वहीं पर हो गई, पर परिवार भारतीय ही था। ज़मींदार साहब भी अब बूढ़े हो चले। नौकर चाकरों से
काम लेना भी कहाँ आसान था। कुछ ज़मीन बेच कर विराट को अमेरिका में सब सुख सुविधाएँ जुटा दी और विराज
को भी कहाँ कमी थी। पढ लिख कर वहाँ अपना बिजनैस चालू कर दिया था। मालिक मालकिन दो बार बेटे के पास
गए पर वहाँ उनका दिल न लगता। कुछ साल पहले दिल के दौरे से मालिक चल बसे तो माँजी अकेली रह गई।
विराज तो हर साल ही आता था। उसने बहुत चाहा कि माँजी चल कर वहीं रहे, मगर माँजी ने साफ
इन्कार कर दिया। मालिक के बाद तो वो कभी अमेरिका गई ही नहीं। यूं तो सावित्री और संता पहले भी घर के मैंबर
के समान थे, लेकिन मालिक के जाने के बाद तो माँजी को उनहीं का ही सहारा था। उनका एक बेटा अच्छी नौकरी
पर लगकर किसी शहर में रहने लगा और बेटी की शादी हो गई। छोटा बेटा भी पढ लिख गया था, लेकिन माँजी के
कहने पर वो उनहीं का ही काम संभालता। धन संबधी सारे काम उसके जिम्मे थे। एक तरह से वो पुराने जमाने का
मुनीम और नए जमाने का सी. ए. था। शादी के बाद वो तो अलग मकान में रहता था जबकि उसके माता पिता हवेली
में रहते। दस बारह कमरों की हवेली और रहने वाली सिरफ माँजी। कभी कभार ही कोई रिशतेदार आता। माँजी ने
सावित्री को बताया था कि जब वो ब्याह कर आई तो कितनी भरी पूरी थी हवेली। उसके पति चार भाई , दो बहने ,
सास ससुर यहाँ तक कि ददिया सास भी थी। धीरे धीरे सब बिखर गए। अपना अपना हिस्सा लेकर कोई कहीं तो कोई
कहीं बस गया। लेकिन विराज के पिताजी यानि कि जिमिंदार साहब को गाँव से बहुत प्यार था।वो सबसे बड़े भी थे,
और उनके पुरखे न जाने कब से वहीं पर रह रहे थे।
मालिक के होते हवेली में चहल पहल रहती थी। वो राजनीति से दूर थे, लेकिन गाँव वालों
के लिए मुखिया ही थे। लोग अपनी समस्याऐं लेकर अक्सर उनके पास आते थे। वो सभी की भरसक मदद करने की
कोशिश करते और मालकिन भी हमेशा उनका साथ देती। दीवाली और होली पर ख़ास रौनक़ होती। दोनों ही त्यौहार
हवेली में ख़ास चाव से मनाए जाते। काफी मेहमान आते, सबको तोहफे दिए जाते। हवेली में काम करने वाले सभी
कर्मचारियों को त्यौहारों का इंतजार रहता। पहले पहल तो विराज दोनों त्यौहारों पर आता, परतुं शादी के बाद दो बच्चे,
उनका स्कूल, अपना काम , तो वो सिरफ होली पर ही आते। एक तो उनहें होली बहुत पंसद थी, दूसरा मौसम बहुत
बढ़िया होता। उन दिनों तो हवेली में रौनक़ ही रौनक़ होती। बीस दिन या महीना तो वो रहते ही रहते। मालिक के बाद
बहुत कुछ बदल गया। सब रौनक़ें खत्म हो गई। चार कमरे ही खुले रखे थे, बाकी सब पर ताला लगा रहता। सब की
सफ़ाई करनी भी कौनसी आसान थी। लेकिन जब विराज और उसका परिवार आता तो सारे कमरे खोल दिए जाते।
उस समय कुछ रिशतेदारों का भी आना जाना लगा रहता।पहले वाली बात तो नहीं थी, लेकिन मालकिन की पूरी
कोशिश रहती कि विराज और बच्चों को भरपूर खुशी मिले।
चार साल बाद मालकिन भी चल बसी। दीवाली के थोड़े समय बाद की ही बात रही होगी। एकदम से ही
अटैक हो गया। मजबूरी वश उस समय विराज अकेला ही आ पाया। सब लोग दीवाली पर कितने खुश थे, लेकिन होनी
को कौन टाल सकता है और फिर मौत तो अटल है। विराज को जल्दी ही वापिस जाना था, तो सारा कारोबार एक बार
संता के हवाले ही था। वैसे तो माँजी के होते भी सब वही देखता था, लेकिन माँजी को सब लेन देन ,ज़मीन , कारोबार
के बारे में पता था। चांस कुछ ऐसा बना कि वो होली पर नहीं आ सके। वैसे भी माँजी को गुज़रे अभी कुछ महीने ही
हुए थे, तो होली भी किसने मनानी थी। संता और उसके बेटे द्वारा सारी जानकारी उन्हें मिलती रहती। अब जबसे
विराज के आने की खबर मिली तो सबके चेहरे पर खुशी थी, लेकिन अंदर ही अंदर एक डर भी था कि कहीं वो अपनी
ज़मीन जायदाद बेच ही न जाए। काफी लोगों का रोज़गार उनसे जुड़ा था। जबसे विराज के आने की खबर सुनी सावित्री
ताई के तो पाँव ज़मीन पर ही नहीं पड़ रहे थे, पहले की तरह ही सारी तैयारियाँ कर रही थी।
माँ – बाप तो अब रहे नहीं। पता नहीं छोटे मालिक अब क्या करेगें। क्या पता सब कुछ बेच कर
फिर कभी यहाँ न आए। हवेली और ज़मीन वगैरह पर काम करने वाले कारिंदों के मन में यही डर समाया था।
निशचित समय पर विराज बाबू, उन्की पत्नी और दोनों बच्चे गाँव पहुँच गए। पहले की तरह ही सब कुछ था, मगर जो
कमी थी वो तो थी। कुछ किया भी नहीं जा सकता था। होली से एक दिन पहले एक मीटिंग रखी गई। सब धड़कते
दिल से पहुँचें कि न जाने आगे क्या होगा। सबको अपना भविष्य ख़तरे में लग रहा था। दरअसल अंसमज में तो
विराज और उसकी पत्नी विदुषी भी थे। माता पिता के होते भारत आने का चाव रहता था, जब माँजी थी तब भी
ठीक था। विदुषी के मायके में से तो कोई भी यहाँ नहीं था। पहली बार उन्हें हवेली इतनी सूनी लगी, लेकिन जो चले
गए,उनके लिए तो सिरफ दुआ ही की जा सकती है, लेकिन जो ज़िंदा है, उन्हें तो सब कुछ चाहिये। विराज के पास भी
कोई कमी नहीं थी। अपनी मातृ- भूमि से उसे भी बहुत प्यार था। जब सब इकट्ठा हुए तो स्वागत इत्यादि के बाद
विराज ने कहा कि किसी को चिंता करने की ज़रूरत नहीं , सब कुछ वैसे ही चलेगा, जैसे चल रहा है। एक ट्रस्ट बना
दिया जाएगा, जिसकी देखरेख में सब होगा। मैं आप सभी से भी पहले की तरह मेहनत, लगन, और वफ़ादारी की
उम्मीद रखता हूँ। जब भी समय मिला , हम आते जाते रहेगें। कल हवेली में होली पहले की तरह ही धूमधाम से
मनाई जाएगी। तालियों की गड़गड़ाहट से हवेली गूँज उठी। सब के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। सावित्री ताई
सबको कल होली की तैयारी करने और तरह तरह के पकवान बनाने के बारे में बता रही थी, विशेषकर घर के बने
ताजा मावे की बनी केसर वाली गुजिया जो कि विराज और बच्चों को बहुत पंसद थी। आख़िर फिर से ख़ुशियों भरी
होली आ ही गई!
विमला गुगलानी