एक रात ऐसी भी – श्रद्धा निगम

आस्था हड़बड़ा कर तेज़ कदमो से रेलवे प्लेटफॉर्म की तरफ भागी। ट्रैन आ चुकी थी,राजीव पर मन ही मन गुस्सा हो रही थी।हमेशा ही ऐसा होता है, लेटलतीफी..आज तो उसे केवल जाना था,गाड़ी भी कम समय के लिए रुकती थी।बहरहाल किसी तरह अपने कूपे में चढ़ी, राजीव ने सामान रखा,और ट्रेन चल दी।रात के 11 बजे थे।स्लीपर   में रिज़र्वेशन था,लोअर बर्थ की सीट थी।उसकी सीट पर कोई चादर ओढ़ कर सोया हुआ था , अपना सूटकेस सीट के नीचे रखा और सोने वाले को आवाज़ दी।बन्दा टस से मस नही हुआ।मन मे सोचा -पता नही लोग अपनी सीट छोड़ कर दूसरे की सीट में क्यो सो जाते है।

तभी टीटीआई आ गए। सीट में लेटे व्यक्ति को थपकी देकर उठाया।महाशय आप अपने ऊपर वाली सीट पर जाए।वो व्यक्ति हड़बड़ा कर अपनी चादर समेटते हुए उठा।

मेरी नज़र उस पर गयी,चेहरा धुंधली सी रोशनी पर भी जाना पहचाना लगा।कैसे भूल सकती थी उसे,9-10 साल बाद अचानक इस तरह वो मिल जाएगा,उसे सपनो में भी ख्याल नही था।उसने भी एक नज़र मुझ पर डाली और संयत शब्दो मे “माफ़ कीजिये”कह कर कुछ पलों में ही ऊपर चढ़ गया,वही आवाज़…उसका सारा शरीर झुँन्न हो गया।जैसे हाथ पैरों में जान ही न हो।किसी तरह    चादर ओढ़ कर सोने का प्रयास किया लेकिन आंखों से नींद उड़ चुकी थी।बहुत उलझन के बाद आस्था ने तय किया ,आज इतने साल बाद ऐसा संयोग हुआ ही है तो,वो संकोच में इस मौके को नही गंवा सकती…सीट से उठकर फिर ऊपर की बर्थ में लेटे निशांत की चादर को धीरे से खींचा, तो वो उठ कर बैठ गया,इशारे से उसने नीचे आने के लिये कहा …उतर कर  मुस्कुरा कर उसने पूछा-कैसी हो.??

ठीक हूँ..छोटा सा उत्तर देकर आस्था ने पूछा और आप.??

निशांत ने.अपनी निगाहे उसकी निगाहों पर गड़ा कर पूछा …मैं बहुत बढ़िया…मज़े से ज़िंदगी गुज़र रही है।

सुनकर चिढ़ तो हुई..कि मेरी कौन सी मज़े में नही बीत रही?लेकिन वो जानती थीकी निशांत,बोझिल माहौल को  हमेशा उसे चिढ़ाकर हल्का कर देते थे।

फिर कहा- यही खड़े खड़े ही बात करोगी या कही बैठ कर बात करे।

उसने कहा-आपकीं बर्थ में चले?



चढ़ पाओगी?मोटी हो गई हो –उन्होंने फिर चिढ़ाया ..आस्था ने फर्जी गुस्से में देखा.

दोनों ऊपर चढ़ कर आराम से ऊपर बैठ गए फ निशांत- -हां –शुरू हो जाओ…कैसी कट रही है?पति महोदय से लड़ती तो नही…”बेचारा” तुम्हारी बाते सुन-सुन कर  तो उसके कान पक गए होंगे…

.हवा में उड़ती हल्की फुल्की बातो को सुनकर भी आस्था का मन हल्का न हुआ।जी चाहा कि एक बार ज़ोर -ज़ोर से रो ले।

उनकी बातो का कोई जवाब नही था आस्था के पास…अपने हाथों से अपनी इच्छाओं का गला घोंटा था उसने,सब कुछ अच्छा होते हुए भी  हिम्मत नही की ,…निशांत ने तब उसे बहुत समझाया था,मेरे घर वाले मान गए है तो तुम्हारे घर वाले भी मान जायेगे….समझाओ तुम और नही तो मुझे आने दो ..तुम्हारे घर वालो से बात करने…अब समय बदल रहा है…भगवान भी उसकी सहायता करते है जो स्वयम भी कुछ प्रयास करता है..

.आस्था के सामने उस समय की तस्वीरें आंखों के सामने से आ जा रही थी।वाचाल आस्था के मुंह मे जैसे जुबान नही थी और शांत- संयत निशांत उसे सहज बनाने की कोशिश में कुछ बाते करता जा रहा था।

धीरे धीरे एक के बाद एक स्टेशन छूटते जा रहे थे..वो भी अब काफी सहज हो गयी थी।अपनी ससुराल,पति , उनके परिवार और  उस समय की स्थितियो के बारे में  बातें हो रही थी।फिर तो हंसते- बात करते रात कटती जा रही थी।

अचानक निशांत ने पूछा- कुछ खाना लायी हो क्या?भूख लग गई बात करते -करते..

“हां” करेला और पूड़ी ,अचार

खिलाओ —



दोनो ने साथ मे खाना खाया ।खाते समय निशांत ने हंसते हुए कहा

–सीख गई तुम खाना बनाना?पति जी रगड़ के काम कराते होंगे?तब तो तुम बडी अलाल थी…कुछ मीठा है क्या?..

—हाँ ..

.लड्डू खा कर कहा -ये तो बहुत अच्छे है..100 फीसदी ये तुमने नही बनाये…ज़ोर से वो खिलखिला कर हंस पडी…उसे हंसता हुआ देख कर निशांत उसके होठों पर उँगलियां रख कर —शश्श …सब उठ जायेगे..

फिर एक टक देखते रहे…ऐसे ही हंसती रहो…ज़िंदगी मे जो समय बीत जाता है न वो पलट कर नही आता..पर आगे का समय खुशनुमा बनाना हमारा काम है।

…फिर घड़ी देखा –अरे 3 बज रहे है।समय का पता ही नही चला …तुम बोलती बहुत हो…चलो अब सोते है।तुम भी आराम करो..

–और हाँ तुम्हारा स्टेशन पहले आएगा  बजे..मुझे उठा लेना..सामान भी उतार दूंगा…

–अच्छा – कह कर मैंने उन्हें मिठास से देखा तो हल्की चपत गाल में लगा कर कहा कि —जाओ..

अपनी सीट में लेट कर  आस्था यही सोचते रही कि जिंदगी भी कैसे अजब खेल रचती है,जो कभी सोचा भी न हो,वो सब दिखा देती है।उसकी आँखों मे नींद नही थी।मीठी यादों में खोए रही..और आज की ये रात भी मीठी याद में शामिल हो जाएगी…शायद कभी न भूलने वाली रात होगी…

उसका स्टेशन आने वाला था।ऊपर की बर्थ में निशांत सो रहे थे,एक बार सोचा उठाऊं,पर हिम्मत न पड़ी….दोबारा वो उन्हें छोड़ कर नही जा सकती..वो इतनी मजबूत नही…

नीचे से अपना सूटकेस निकाला,दरवाजे तक जाते -जाते एक बार फिर मुड़कर देखा…स्टेशन आ चुका था..वो अपनी मंज़िल पर पहुंच गई थी….प्लेटफार्म से ट्रेन अगले पड़ाव की ओर चल दी…

श्रद्धा निगम

बाँदा उप्र

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