प्रीतो एक गिलास चाय लाना
अभी लाती हूँ माँजी
बिंबोली एक घंटे से चाय का इंतजार कर रही थी. लेकिन प्रीतो के पास भी वही रटा रटाया उत्तर था.वो भी
क्या करे. सुबह का समय किसी को स्कूल जाना तो किसी को आफिस. किसी का रूमाल ग़ायब तो किसी को टाई नहीं
मिल रही. एक हाथ नाश्ता बनाने में तो दूसरा सब को सामान पकड़ाने में.बूढ़ी बिंबोली की आवाज़ भला कौन सुनता.
सब के जाने के बाद आखिर बेचारी बिंबोली को चाय नसीब हो ही गई. सर्दी के मौसम में हर किसी का
मन उठते ही चाय पीने को करता है. ख़ास तौर पे अदरक वाली चाय . मगर बिंबोली की किस्मत कुछ अलग थी.
माँजी को स्टील के गिलास में चाय देकर प्रीतो भी अपनी चाय कप में लेकर पास ही बैठ कर पीने लगी.
काम का तो ढेर लगा था, लेकिन प्रीतो भी सब को भेजकर पाँच दस मिंट सुस्ता कर चाय पी कर फिर से काम पर
लग जाती थी.
प्रीतो ने कई बार माँजी से पूछा कि वो हमेशा गिलास में ही क्यों चाय पीती है, कप या मग में क्यों
नहीं.लेकिन माँजी सिर्फ़ मुस्करा कर रह जाती, या फिर कहती, जा अपना काम कर, बहुत काम पड़ा है, कभी फ़ुरसत
में बताऊँगी.
नौकरानी प्रीतो घर के काम के साथ साथ जी जान से अठतरह वर्षीय माँजी की सेवा करती थी. घर में और
किसी के पास तो समय था नहीं. छुट्टी वाले दिन भी सब अपने में व्यस्त रहते. माँजी बीमार नहीं थी पर उम्र का
तक़ाज़ा था. अपना नित्यकर्म वो ख़ुद संभालती थी.और तो और किताबें पढ़ने की बहुत शौक़ीन .मोटे शीशे का चश्मा
चढ़ा कर वो पढ़ती , तभी तो समय का पता न चलता . इस उम्र मे भी उनकी सेहत ठीक थी, मगर काम नहीं कर
पाती थी.यूं तो प्रीतो सारा कम कर देती थी, लेकिन उनकी इच्छा होती थी बहू के हाथ की बनी चाय पीने की. बहू तो
बाद मे आई , शुरू से ही उनके नसीब में किसी अपने के हाथ की बनी चाय पीनी नहीं लिखी थी.
देखा जाए तो इतनी सी बात , सोचा जाए तो बहुत बड़ी , इच्छा तो फिर इच्छा ही है,
छोटी हो या बड़ी . माँजी को किसी तरह की कोई कमी नहीं थी, पैसों की तो बिलकुल भी नहीं. अपनी पैंशन के साथ
साथ पति की फ़ैमिली पेंशन भी नियमित उनके खाते में आ जाती थी, लेकिन एक कसक उनके मन में शुरू से
रही.माँजी अकसर पुरानी यादों में खो जाती।
बिंबों , एक कप चाय लाना
माँ , सुबह से तीन कप चाय आप पी चुके हो
एक कप और बना दोगी तो मर न जाओगी
पर माँ , मुझे कालिज भी तो जाना है
अरे तूं कौनसा पढ़ कर कलक्टर लग जाएगी, घर की बाकी औरतों की तरह घर गृहस्थी ही तो सभांलनी है
बिंबों ने मां की बात की और कोई ध्यान न दिया और जल्दी जल्दी एक और कप चाय का बना कर माँ के आगे रख
दिया. फटाफट साईकल निकाली और कालिज की और चल दी.
घर में किसी को बिंबों की पढ़ाई से कोई मतलब नहीं था. सात बहन भाईयों में बिंबों सब से बड़ी .सारे
घर के कामों में उसे हाथ बँटाना पड़ता. ये वो जमाना था जब लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने का रिवाज नहीं था. आठ दस
जमात पास कर ली, चिट्ठी पत्री लिख पढ़ ली, बस इतना ही बहुत था. माँ का बस चलता तो बिंबों को कभी कालिज
न जाने देती, लेकिन उसके पिताजी को पढ़ाई का शौक़ था.वो इस छोटे से शहर में प्राईमरी टीचर थे. उस जमाने में
आठ- दस बच्चे होना आम बात थी.
बिंबों जहां कालिज जाती थी, वहीं सबसे छोटा गुल्लू उन्हीं के स्कूल में पहली कक्षा में
पढ़ता था. बाकी सभी बच्चे भी स्कूल जाते थे. बिंबों से दो साल छोटी सोनी को पढ़ाई का कोई शौक़ नही था. तीन
साल लगा कर बड़ी मुशकिल से दसवीं पास की थी. अब सिलाई सीख रही थी. बाकी बच्चे भी पढ़ रहे थे.उन दिनों
बच्चों पर पढ़ाई का कोई बोझ नहीं होता था, जो जितना पढ़ ले ठीक है.
बड़ी होने के नाते घर का काफी काम बिंबों के ज़िम्मे ही होता. जैसे तैसे पढ़ाई करके बिंबों भी
सरकारी स्कूल में अध्यापिका लग गई. जल्द ही उसकी शादी हो गई. वैसे ते सब ठीक था, लेकिन यहाँ भी बिंबों सबसे
बड़ी बहू बनी. दो ननदें और दो देवर उससे छोटे थे. सास अकसर बीमार रहती, दिल की मरीज़ भी थी. एक देवर
नौकरी करता , बाकी दोनों पढ़ते थे. ससुर की दुकान थी सुबह उठ कर सबके लिए चाय बनाना बिंबों का ही काम था.
सुबह क्या शाम को, जब भी कोई मेहमान आए, जब भी किसी का मन चाहे, बिंबों को ही आवाज़ दी जाती.
बिंबों काम चोर नहीं थी, सिर्फ़ उसका मन होता कि कभी कोई उसके हाथ में भी बिस्तर पर बैठे बैठे
चाय का प्याला थमा दे .ननदों को काम से कोई मतलब नहीं था.सास बीमार थी. शादी के बाद देवरों ने अलग गृहस्थी
बसा ली. तब तक बिंबों के दो बेटे पैदा हो चुके थे. ननदें भी शादी करके अपने घर चल गई. जब भी आती सिरफ
हुकुम चलाती और मौज मस्ती करती.
बात मायके ससुराल तक ही नहीं, बिंबो को याद है जब वो ननिहाल जाती थी तो वहाँ भी
वो सबसे बड़ी थी, क्योंकि उसकी माँ अपने आठ बहन भाईयों में सबसे बड़ी थी. लोग नानके जा कर मज़े करते है
लेकिन बिंबो को वहां भी आराम नहीं था. माँ और नानी ख़ूब बातें करती और बिंबों काम के साथ साथ कई बार चाय
बनाती. और पापा भी घर में सबसे बड़े थे, तो बिंबों अपने कज़नस में भी सबसे बड़ी थी.उसे तो हर जगह ही काम
करना पड़ता.
उस जमाने में घरों में कामवालियां भी कम ही रखी जाती थी, और मध्यम वर्गीय परिवार के लिए ये
मुशकिल भी था. पता नहीं बिंबों को हर जगह चाय बनाने का काम ही क्यों मिल जाता. दो वजह हो सकती है, या तो
वो चाय बहुत स्वाद बनाती है, या फिर उसे ये काम आसान समझ कर सौंप दिया जाता है.बिंबो को ग़ुस्सा आता उन
अंग्रेज़ों पर जिन्होने भारतीयों को चाय पीने की आदत डाल दी.वैसे चाय पीना पंसद तो बिंबो को भी बहुत था, लेकिन
कोई और बना कर दे. कितना मजा आता होगा न उस चाय पीने में जब आप कुर्सी पर बैठ कर टाँगें मेज पर रखे और
कोई बढ़िया सी चाय कप प्लेट में ट्रे में रख कर आपके लिए लाए.
लेकिन ऐसा नसीब कँहा बिंबो का।एक बार तो हद ही हो गई.उसकी शादी के एक साल बाद उसकी एक कज़न की
शादी थी.खाना बनाने के लिए तो बाहर कुक थे लेकिन चाय का काम घर की रसोई में ही चलता. वैसे तो दो तीन मेड
थी , लेकिन ढेरों काम थे। मासी ने बड़े प्यार से कहा बिंबों बेटा , बस तेरी एक ही डयूटी है, घर के मेहमानों की चाय
का जिम्मा तेरा है, देखना कोई नाराज़ न हो जाए ये नहीं कि बाहर चाय का इंतज़ाम नहीं था. बाहर स्टील के छोटे
से ड्रम में पड़ी पड़ी चाय ठंडी हो जाती लेकिन सब चाय पीने की इच्छा लेकर रसोई में ही आते. गरमा गरम चाय की
फ़रमाइश बिंबों से ही करते. देखा जाए तो इतनी छोटी सी बात के लिए मना भी तो नहीं किया जा सकता.
सिरफ इतना ही नहीं, चाय के भी कितने रूप, चीनी कितनी हो, किसी को शुगर फरी चाहिए तो किसी को
बिलकुल फीकी चाय चाहिए. दूध पत्ती का ध्यान अलग से रखो.अभी तो शुक्र है, यहाँ पर किसी को ग्रीन टी वाले
चोंचलो का पता नहीं, नहीं तो मुसीबत और भी बढ़ती.लगातार तीन दिन तक यही चलता रहा।बिंबों ढ़ग से तैयार भी
नहीं हो पाती थी. उसने सोच लिया कि आगे से वो किसी न किसी तरह से इन झंझटों से दूर ही रहेगी.
समय अपनी गति से चलता रहा. बिंबों की नौकरी गाँव में थी. घर से आठ दस किलोमीटर ही था.
तब तक मोपेड का अविष्कार हो चुका था. औरतों को आने जाने की कुछ तो सुविधा हो गई थी.बिंबो ने भी अपने लिए
मोपेड ख़रीद ली थी। उस छोटे से स्कूल में चार पाँच टीचर और थोड़े से बच्चे. कोई सेवादार नहीं. सफाई से लेकर पानी
भरना, स्कूल बंद करना, खोलना, और भी अंदर बाहर के काम सब टीचरों के ज़िम्मे. अगर ये कहा जाए कि बच्चों के
ज़िम्मे. बिंबो को यह देख कर बहुत दु:ख होता . बेचारे बच्चे पढ़ने आए या काम करने. बाकी कामों के साथ साथ
अध्यापको की रोटी सब्ज़ी भी वही गरम करते, और चाय तो बनानी ही थी.
किसी को कहना तो मुशकिल था, लेकिन यहाँ भी बिंबो दो बार सबके लिए चाय बना देती. उसके साथी
कहते, छोड़ो , बच्चों से बनवा लो लेकिन बिंबो का मन न मानता. छोटी छोटी लडकियां कितने अरमानों से स्कूल
आती थी, गावं में बहुत सारी तो आ भी नहीं पाती, कम से कम जो आती है, वो कुछ तो सीखे. वैसे भी पता नहीं कब
उनका आना घर वाले बंद करवा .बिंबों को बच्चों से बहुत स्नेह रहता, लडकियों से विशेष तौर पर. कुछ इसलिए कि
उसकी अपनी बेटी नहीं थी.
समय कितनी तेज़ी से भागता है, पता ही नहीं चलता.मायके ससुराल में सब अपनी गृहस्थी में व्यस्त.उसके
भी दोनों बेटे बड़े हो गए.ख़ूब पढ लिख गए.सासू माँ भी उपर चली गई. बिंबो की हालत वही की वही. कहीं से भी थक
हार कर आती, चाय पिलाना तो दूर कोई पानी भी न पूछता.घर में तीनों मर्द , और हमारे समाज में घर का काम मर्द
तो कम ही काम करते है . ऐसा नहीं कि बिंबो के पति काम करना नहीं चाहते थे, लेकिन उन्हें काम करना आता ही
नहीं था, सीखने की कभी कोशिश ही नहीं की.
कभी बीमारी में चाय बनाई भी तो ऐसी कि कोई पी न सके. एक बार बीमारी की हालत में जब
वो बिंबों के लिए चाय बनाने लगे तो बिंबो ने कहा कि चाय में थोड़ी अजवायन डाल देना.जनाब ने ज़ीरा डालकर चाय
बना दी. उसके बाद तो बिंबो की कभी हिम्मत ही नहीं हुई. अब तक घर में पार्ट टाईम नौकरानी का इंतज़ाम तो हो
गया था, जो घर के अन्य कामों के साथ साथ उसे चाय भी पिला देती.लेकिन बिंबों को मजा न आता. कभी दूध पत्ती
का अनुपात ग़लत हो जाता तो कभी चीनी ही चीनी होती. कभी लाते लाते ठंडी कर देती तो कभी कप उसकी पंसद का
न होता.बहुत ज्यादा भरा कप भी उसे पंसद नहीं था और चाय के उपर अगर ज़रा सी भी मलाई आ जाती तो भी बिंबो
का मूड खराब हो जाता.
कभी कभी उसे लगता कि कहीं वो ही तो ग़लत नहीं, या उसकी उम्मीदें कुछ ज़्यादा
है.शायद उसे अपनी बनी चाय का फोबिया हो गया. अपनी और दूसरे की बनी चीज में कुछ तो अंतर होता है.लेकिन
ऐसा नहीं.कई बार बाहर घूमते हुए उसे कई जगह पर बहुत ही बढ़िया चाय पीने को मिली, लेकिन रोज़ रोज़ तो बाहर
नहीं जाया जाता.
तीस साल की उम्र में बड़े बेटे की शादी हुई, बिंबो ने तो कई बार कहा लेकिन वो माना ही नहीं. लड़की
उसके साथ ही काम करती थी, सुंदर सलोनी पढ़ी लिखी बहु घर आ गई .कुछ दिन तो मेहमान नवाजी में निकल
गए.धीरे धीरे रूटीन सामान्य होने लगा .दोनों ईकटठे आफिस जाते, आकर अपने कमरे में बंद हो जाते.घर के कामों से
कोई मतलब ही नहीं.छुट्टी वाले दिन घूमना फिरना.दोस्तों संग ख़ूब हँसी ठिठोली लेकिन सास ससुर से कोई मतलब
नहीं.छोटे बेटे की पोस्टिंग पहले से ही दूसरे शहर में थी.घर के काम के लिए सुबह से रात तक मेड थी.
दोनों सुबह हल्का सा ब्रेड बटर या ऐसा कुछ नाश्ता अपने लिए बनाते और चले जाते.बिंबो और
उसका पति सुबह जल्दी चाय पी लेते थे. दोनों ने कभी भी माँ बाप से नहीं पूछा कि वो भी चाय पीऐगें.उनके लिए
शायद ये मामूली सी बात थी.लंच आफिस में लेते और रात का खाना भी बहुत कम घर पर खाते.अकसर बाहर से ही
आर्डर पर मँगवा लेते.एक दो बार उनसे पूछा भी लेकिन पिज़्ज़ा बर्गर नूडल्स या ऐसा ही कुछ फ़ास्ट फ़ूड न तो उन्हें
पंसद था और न ही उन्हें हज़म होता था.चार साल बीत गए. घर में एक नन्ही परी भी आ गई थी. हँसी खुशी समय
निकल रहा था, लेकिन बिंबो अपनी चाय ख़ुद बनाती.
छोटे बेटे की भी शादी हो गई. उसकी नौकरी दूसरे शहर मे थी. दोनों नौकरी पर चले जाते.दो चार बार
बिंबो और उसका पति वहाँ गए लेकिन दिल नहीं लगता था. काम वाली अपने समय पर आती और चली जाती.बहू तो
बमुश्किल काम की बात करती और बेटा एक दो बार हाल पूछ कर चला जाता. मेहमान से बन कर रह जाते दोनो.
इससे तो अपना घर ही भला, और नहीं तो अड़ोस पड़ोस से तो मेल जोल था.
दो साल पहले पति भी बिंबो का साथ छोड़ गए. बिना किसी पर बोझ बने दो चार दिन की बीमारी
में ही चल बसे. बिंबो की दुनिया तो जैसे वीरान हो गई. सब कुछ होते हुए भी वो निंतात अकेला महसूस करती . बिंबो
अकसर सोचती कि उसमें ही कमी रही होगी.वो सबके काम करती रही लेकिन अपने लिए किसी से एक कप चाय भी
न बनवा सकी. हां एक कसक जरूर थी, शायद बेटी होती तो कभी पूछती, उनकी पंसद पहचानती. लेकिन ये हुआ नहीं.
अब बिंबो को कोई चाहत नहीं थी. मगर जीने के लिए खाना पीना भी जरूरी है. जैसा प्रीतो देती है, वो
चुपचाप खा लेती है. लेकिन जिंदगी से उनहें गिला जरूर है, सिर्फ एक कप चाय ही तो मागीं थी अपनी पंसद की बाकी
तो जो दिया वो मुक़द्दर ने अपने आप दिया.इसलिए अब वो स्टील के गिलास में चाय पीती रहेगी. न कप देखेगी न
चाहत रहेगी
विमला गुगलानी.