दूसरी पारी का वह पहला दिन (भाग 1) – नरेश वर्मा 

सोचा था कि आज देर से सोकर उठूँगा क्योंकि यह एक बंधन मुक्त सुबह होगी ।किंतु शरीर जो इतने वर्षों से चली आ रही दिनचर्या का अभ्यस्त रहा था उसने नियत समय सुबह के साढ़े पाँच बजे आँखें खोल दीं।अब शरीर का भी क्या दोष ,उस बेचारे को तो नहीं पता था कि इस सुबह से विगत का रूटीन बदलने वाला है ।मस्तिष्क को तो ज्ञात है किंतु शरीर को अभ्यस्त होने में समय लगेगा ।मज़े की बात तो यह है कि पत्नी जिसे आज न तो सुबह के नौ से पहले टिफ़िन तैयार करना है और न ही सुबह साढ़े आठ तक नाश्ते को टेबल तक पहुँचाना है , वह भी पाँच बजे बिस्तर छोड़ चुकी थी ।

 मार्च की आज पहली तारीख़ है ।सर्दी बैसे तो विदा हो चुकी है पर उसका गुलाबी पन प्रात: की हवाओं में बरकरार है।ड्राइंग रूम के फ्लावर बेस में सजा फूलों का बुके याद दिला रहा था कि इन शाख़ से कटे फूलों की तरह सरकारी दफ़्तर से तुम्हारा नाता भी कट चुका है ।बुके और चंद मालाएँ विदा समारोह के साक्ष्य रूप में विद्यमान हैं ।किंतु वह खुश हैं पैंतीस वर्षों की ग़ुलामी से आज़ाद होने पर।बच्चे सैटल हो गए स्वयं का आशियाना बन गया ,बस अब और क्या चाहिए ।

 आज़ादी के पहले दिन, देर तक सोने का प्लान तो फ़्लॉप हो चुका था ।मैंने पत्नी को देखा और पत्नी ने मुझे ।दोनों के होंठों पर एक बेबस सी मुस्कान घिरी हुई थी ।अचानक कविता (पत्नी) ने मुख मुद्रा से बेबसी को छिटकते हुए कहा-“ जाइये तैयार हो जाइए   आज हम लंबी मॉर्निंग वॉक पर चल रहे हैं ।”

 मेरे लंबे विवाहित जीवन के अनुभव ने सिखाया है कि पत्नियाँ जीवन में ज़्यादा व्यवहारिक एवं दुनियादार होती हैं।अंत: सुबह की सैर के प्रस्ताव को न मानने का कोई कारण नहीं था ।मेरे तैयार होने से पूर्व ही कविता रेडी हो चुकी थी ।

 फाल्गुन का महीना ढलान पर था ।मौसम में हल्की गुलाबी ठंड का अहसास भर रह गया था।पतझड़ के कारण सड़क के दोनों ओर सूखे पीले पत्ते बिछे हुए थे ।वृक्षों पर नई नवेली कोमल पत्तियाँ झाँकने लगी थीं।सुनसान शांत सड़क पर हम जैसे ,इक्का-  दुक्का सैर के शौक़ीनों के अतिरिक्त प्रकृति अपने ऊर्जावान स्वरूप में विस्तारित थी।पक्षियों की चहचहाहट प्रकृति के नीरव मंच पर जैसे कोई राग छेड़ रही थी ।मैं सोच रहा था कि जीवन की भागमभाग में हमने अब तक प्रकृति की इस मनोहारी छवि को कितना मिस किया।




 बिना किसी गंतव्य के हम चलते जा रहे थे कि अचानक कविता ने कहा-“आप से एक महीने पहले रिटायर हुए B-17 वाले गुप्ता जी ने कोई प्राइवेट नौकरी कर ली है ।उनकी पत्नी का कहना है कि स्वयं को व्यस्त रखने के लिए गुप्ता जी ने यह नौकरी की है ।”

  “ अपने समय को दूसरे के पास बंधक रखना और उसके एवज़ में कुछ धन प्राप्त करना , यही है नौकरी की परिभाषा ।सिर्फ़ इतना भर ही नहीं है , इसमें मान-सम्मान और मानसिक शांति को भी गिरवी रखना होता है।मैंने इतने वर्षों नौकरी की है किंतु तब वो जीवन की आवश्यकता थी।अब जब वह प्राथमिकताएँ नहीं रहीं तो अपने समय को बंधक रखने का औचित्य नहीं बनता।अब मेरे समय पर मेरा अधिकार है ।”-मैंने उत्तर देते कहा ।

 “ किंतु गुप्ता जी की पत्नी का कहना है कि उन्होंने पैसे के लिए नहीं बल्कि स्वयं को व्यस्त रखने को यह नौकरी की है।”- कविता ने कहा।

  “ अपनी स्वतंत्रता को बंधक रखकर ही क्या व्यस्तता पाना एकमात्र विकल्प है ।हमने जीवन भर समाज से इतना कुछ लिया तो क्या समाज को इसका अल्पांश भी लौटाना हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता ।दूसरों के लिए करने को इतना कुछ है कि दिनभर का समय कम पड़ जायेगा।”

 हम लंबा रास्ता तय कर आए थे।सड़क के मोड़ पर लाल फूलों के गुच्छों से लदा टेसू का पेड़ था और उसी के साथ एक चौड़ी कच्ची पगडंडी एक गाँव की ओर मुड़ती थी ।हम दोनों इस मोड़ पर आकर रुक गए थे ।




 “ आज के लिए इतनी सैर काफ़ी है , हमें अब लौटना चाहिए ।”- मैंने कहा

 “ देखिए सामने कच्चे पक्के घरों का हरियाली भरा गाँव है ।मैंने आज तलक कोई गाँव नहीं देखा , क्यों न हम कुछ देर के लिए इस गाँव में चलें।”- कविता ने हुलसते हुए प्रस्ताव रखा।

 “ अनजान लोगों के बीच अचानक यों जाना क्या ठीक है ? “- मैंने शंका प्रकट की ।

 अगला भाग

दूसरी पारी का वह पहला दिन (भाग 2) – नरेश वर्मा 

लेखक-नरेश वर्मा                                                                                                                         (मौलिक रचना)

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