दूसरी पारी का वह पहला दिन (भाग 2) – नरेश वर्मा 

“ अनजान लोग भी जीवन में कभी-कभी जान पहचान वालों से ज़्यादा अज़ीज़ बन जाते हैं ।याद है जब आपका स्कूटर सड़क पर ख़राब हो गया था , तो एक अनजान लड़के ने आप की मदद की थी और बाद में वही अनजान लड़का गौरव आपका इतना घनिष्ठ हो गया कि आप उसे छोटा भाई मानने लगे ।”- कविता ने मुस्कुराते हुए कहा ।

  लंबे विवाद में फँसने से बेहतर मैंने कविता के प्रस्ताव को मानने में ही भलाई समझी ।इससे पहले गाँवों को हमने मौखिक रूप से दो माध्यमों से ही जाना था।पहला समाचार पत्र और दूसरा सिनेमा ।समाचार पत्र बतलाता रहा कि कितने किसानों ने आत्महत्या की।यदि आत्महत्या से नहीं मरा तो बाढ़, लू या ठंड के प्रकोप से मरा होगा।अकाल मरना जहाँ लोगों कि नियति हो उसे गाँव कहते हैं ।वहीं दूसरी ओर फिल्मी गाँव में एक गबरू जवान होता है जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ते हुए नाचता-गाता और ढफली बजाता है ।गाँव की छोकरियाँ लिपस्टिक और आई शैडो लगाये , रंगीन लहंगों में ढफली की धुन पर पायल खनकाती हैं।छोकरियाँ जब नाच-गाना नहीं करतीं तो नाममात्र के कपड़ों में गाँव के तालाब में अठखेलियाँ करती हैं ।

 किंतु इस गाँव में प्रवेश करने के बाद न तो हमें कहीं किसी तालाब के दर्शन हुए और न ही पायल खनकाते रंगीन लहंगे ।गाँव में रंगीन लहंगे भले ही नहीं थे पर विभिन्न रंगों के फूलों का अभाव नहीं था ।हमारी कल्पना से कहीं ज़्यादा सुंदर और साफ़-सुथरे घर थे।खड़ंजा लगी सड़क पर चलते हुए हम गाँव के अंदर आ गये थे।शहरी लिबास में दो अजनबियों को गाँव के बीच देखकर लोग हमें कौतुक से देख रहे थे ।जहाँ हम खड़े थे वहीं दाँयी ओर एक पक्का मकान था जिसके बरामदे में एक बुढ़िया परात में कुछ बीन रही थी।बुढ़िया ने हमें देखा , उसकी नज़रों में हमें कौतुकी कम आत्मीयता ज़्यादा नज़र आई।उसने पूछा-“ बेटा किसे खोज रहे हो ?” मैंने उत्तर में मुस्कुराते हुए कहा-“ अम्मा आपकी बहु (कविता की ओर इशारा करते) ने कभी कोई गाँव नहीं देखा तो उसे आपका गाँव दिखलाने लाया हूँ ।”

 बुढ़िया सुन कर ज़ोर से हँसी फिर उसने कविता को गहरी नज़रों से परखते हुए कहा-“ बहुरिया को देखकर लगता है कि लंबी चलाई से थक गई है , तनिक बैठ कर सुस्ता लो। गाँव बाद में देख लेना।बुढ़िया ने घर के अंदर आवाज़ देते हुए कहा-“ शन्नो बाहर आकर दो मूढ़े रख जा ,शहर से बेटा -बहु आये हैं ।(एक अजनबी मुलाक़ात ,रिश्तों की डोर में बँधने लगी थी)।

 शन्नो नाम वाली २३-२४ साल की लड़की मूढ़े लेकर बाहर आई।लड़की का रंग ज़रूर हल्का साँवला था पर नाक-नक़्श में आकर्षक सलोना पन था।माँग का सिंदूर बता रहा था कि लड़की शादीशुदा है ।शन्नो ने हमें कौतूहल से देखा और प्रणाम करने के पश्चात अंदर जा ही रही थी कि अम्मा ने टोकते हुए कहा-“ अरे पाहुनों को बैठाने भर से बात न बनेगी , जा गर्मागर्म चाय बना ला और साथ में मठरी ले आ।”




  कविता जो अब तक एक तमाशबीन की भूमिका में थी ,उसने प्रतिवाद करते कहा-“ अम्मा जी आप चाय की तकलीफ़ न करें ,हम तो आपके गाँव में बस यों ही टहलने चले आये थे ।”

 “सुनो बहुरिया , न कोई किसी का खाता है और न कोई किसी को खिलाता है ।सब करने कराने वाला तो वह (आकाश की ओर इशारा करते हुए) है ।आराम से बैठो और गाँव की गुड़ अदरक की गर्मागर्म चाय की चुस्की लो।और हम तो कहें कि …वह क्या कहे हैं सहर में लनच-वनच , दोपहर में वह भी कर के जाओ।”

 मैंने कनखियों से कविता को निहारा ।उसे अब अनजान मेज़बान से उलझन होने लगी थी ।औपचारिकताओं का अभ्यस्त मन बग़ैर लाग लपेट वाले स्नेह को झेल नहीं पा रहा था ।इस से पहले कि कविता उठने का कोई बहाना ढूँढती , शन्नो स्टील के गिलासों में चाय और मठरियाँ ले आई ।

 चाय निःसंदेह बहुत अलग स्वाद की थी , अदरक की ख़ुशबू से महक रही थी ।घर के घी में तली मठरियाँ भी ख़स्ता थीं।चाय के घूँट के साथ ही कविता की झिझक भी कम हो गई थी ।निःस्वार्थ प्रेम में तो शबरी के झूठे बेर भी मीठे थे और यह तो अदरक की महक भरी चाय थी।

  चाय का घूँट भरती कविता की नज़र दरवाज़े के कोने पर खड़ी शन्नो पर पड़ी ।प्रणाम करने के अतिरिक्त शन्नो अब तक कुछ न बोली थी।

शन्नो की ओर देखते हुए कविता ने अम्मा से पूछा-“ अम्मा जी , आपकी बहु क्या चाय नहीं पीती ? “

  “ कौन शन्नो… वह हमारी बहु नहीं हमारी बिटिया है।”-अम्मा ने गहरी साँस भरते कहा ।

  “ तो आजकल आपकी बिटिया मायके आई हुई है ।पर घर में कोई नाती-नातिन नहीं दिख रहा….शादी के बाद कोई बच्चा ? “- कविता ने जिज्ञासा प्रगट करते पूछा ।

  अम्मा कुछ क्षण मौन रहीं … कहें या न कहें की दुबिधा में सामने रखी परात में पड़े दाल के दानों को बीनने लगीं।शन्नो झटके से घर के अंदर चली गई ।कविता समझ गई कि स्थितियाँ सामान्य नहीं हैं ।प्रश्न को टालते ,उठने का उपक्रम करते हुए कविता ने कहा-“ अम्मा अब हमें चलना होगा, आपसे मिलकर आपकी ज़ायक़ेदार चाय पीकर बड़ा आनंद मिला ।थोड़ा शन्नो को बुला दीजिए उस से मिलकर जाऊँगी ।”




 झिझकते हुए शन्नो बाहर आई ।उसके गालों पर पड़े निशान बता रहे थे कि अंदर जाकर वह रोई थी ।कविता ने शन्नो के हाथ थामकर कहा-“ बिटिया आने से पहले हम कुछ लाये नहीं क्योंकि हमें नहीं पता था कि हमें यहाँ आना है।यह हमारी ओर से है , अपने लिए कुछ ख़रीद लेना।”- कविता ने पाँच सौ का एक नोट देते हुए कहा ।

 “ आंटी आप हमारे घर आईं ।हमें भी अच्छा लगा।किंतु बुरा न मानियेगा, आपके रुपए देने से हमें लग रहा है जैसे आप चाय-नाश्ते का बिल चुका रही हैं ।-शन्नो ने रुखाई से कहा ।

 कविता सन्न रह गई।वह कुछ कहती इस से पहले अम्मा ने शन्नो को झिड़कते हुए कहा-“पागल लड़की किसी के प्रेम से दिये उपहार का अपमान करते तुझे शर्म न आई।” अम्मा ने पुनः कविता से मुख़ातिब होते हुए कहा-“ बहुरिया इसकी बात का बुरा न मानना ।इसे ज़िंदगी में कभी प्यार न मिला इसी कारण इसमें कड़वाहट भर गई है ।यह बेचारी दुखी है , इसे माफ़ कर देना।”

 घर के साथ लगे नीम की शाखाओं पर धूम घिर आई थी ।मैं उठ खड़ा हुआ और कविता से भी चलने को कहा।किंतु कविता उठी नहीं, उसने कहा-“ कुछ पल पहले तक इस घर में , हम ख़ुशियों के साथी थे तो क्या दुख सुन कर हम चले जायें । हमें कुछ देर रुकना चाहिए ।” कविता उठी और अम्मा के नज़दीक बैठ कर राज़दार अंदाज में बोली-“ अम्मा वैसे तो हम इस परिवार के लिए अजनबी हैं किंतु यदि आप हम पर भरोसा करें तो आप शन्नो की समस्या हम से साझा कर सकती हैं ।शायद कहीं कोई रास्ता खुल जाए।”

 अम्मा ने उस कमरे को जिसमें शन्नो तेज़ी से घुस गई थी ,देखते हुए कहा -“बहुरिया अब तुमसे क्या छुपाना ,हम औरतों की वही पुरानी कहानी है।शन्नो का आदमी हद दर्जे का शराबी है ।नशे में मारता- पीटता था।बात अगर इतने तक ही रहती तो किसी तरह निभा लेते।किंतु हद तो तब हो गई जब वह घर में दूसरी औरत ले आया।शन्नो क्या करती…. छोड़ आई अपने घर संसार को।ऐसे में क्या करें और क्या न करें कुछ समझ नहीं आता।”

 शन्नो की कहानी सुन कर कविता सोच में पड़ गई ।किंतु रास्ते कभी बंद नहीं होते ,कहीं कोई पगडंडी अवश्य होती है ।उसी पगडंडी की तलाश में कविता शन्नो से मुख़ातिब थी।

  “ बेटी कहाँ तक पढ़ाई की है ?”

  “ आठवीं तक।”

  “ मौक़ा मिले तो आगे पढ़ने की इच्छा है ?”

  “ पढ़ना तो चाहती हूँ पर इस उम्र में शर्म आती है किसी स्कूल में जाने पर।और फिर कौन स्कूल मुझ जैसी को दाख़िला देगा ।”

   “ शन्नो आजकल स्कूल के अतिरिक्त और बहुत से विकल्प हैं।ओपन स्कूल हैं जहां घर बैठे तुम पढ़ाई कर सकती हो , हर छह महीने में परीक्षा होती है।इसके साथ महिला सशक्तिकरण केन्द्र हैं , कौशल विकास और उद्यमशीलता केन्द्र है।यदि अपने में जज़्बा पैदा करो तो बहुत कुछ है करने को।पर तुम चिंता मत करो अब यह मेरी ज़िम्मेदारी है ।सब खोज-बीन करके हम दो दिन बाद फिर आयेंगे , गुड़ और अदरक की चाय पीने ।तुम तैयार रहना।”

   मोड़ पर लाल फूलों के गुच्छों वाला टेसू का पेड़ वैसे ही खड़ा था पर सूर्य की रोशनी से फूलों के लाल रंगों में अब ग़ज़ब की चमक थी।सुबह की सैर के अनजान रास्तों पर चलते हुए हमें भी एक पगडंडी मिल गई थी ।हमें अब ज्ञात था कि रिटायरमेंट के बाद हमें क्या करना है ………..।

                                          ****समाप्त****              

                               

लेखक-नरेश वर्मा                                                                                                                         (मौलिक रचना)

6 thoughts on “दूसरी पारी का वह पहला दिन (भाग 2) – नरेश वर्मा ”

  1. अद्भुत, मर्मस्पर्शी, सत्यपरक और जीवंत संदेश देती कहानी । कथाकार श्री नरेश वर्मा जी का हार्दिक अभिनंदन ।

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  2. बहुत अच्छी कहानी थी l विषय भी हमसे related hai. हम दोनों भी (मैं और मेरे पति) इसी उहापोह मे हैं कि क्या करे retirement ke baad. काश कोई खुशी का जरिया मिल जाएl

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  3. पहले भाग के साथ मैंने दूसरे भाग को भी जल्दी से पढ़ डाला, कहानी थी इतनी रोचक और उसमें प्रेरणा का पुट इसे मार्मिक लेकिन शानदार बना गया।

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