दुनियालाल – पूनम वर्मा

दुनियालाल ! हाँ ! इसी नाम से जानते थे हम उन्हें । नाम लेते ही एक विकराल-सी छवि स्मृति पटल पर उभरने लगती है । यह छवि धूमिल होकर भी यदा-कदा मेरी स्मृति के गलियारे में चक्कर लगा ही जाती है । लंबी-चौड़ी काया, कपड़े काले या शायद मटमैले-से ढीले-ढाले और कंधे से टखने तक ढकने वाले, कंधे पर झूलती लटें, गेहुँआ रंग, आभायुक्त मुखमंडल, चौड़ा ललाट जिसपर प्राकृतिक रूप से  तीन धारियां बनी हुई,

बड़ी-बड़ी लाल-लाल आँखें, हल्की-सी दाढ़ी और अधरों पर बौद्ध मुस्कान । मस्त-मलंग-सा था वह । पता नही कौन था, कहाँ से आया था लेकिन  उसमें कुछ खास बात जरूर थी जो लगभग चार दशकों के उपरांत भी उसकी स्मृति मेरे मानस पटल से ओझल नहीं हो पाती।

मैं बचपन में प्रायः अपने दादाजी के साथ उनके मित्र के गाँव जाया करती थी । दादाजी के मित्र एक ठाकुरबाड़ी के महंत थे। पास ही उनका दालान भी था । हमलोग दालान में ही बैठते । संध्या आरती के समय ठाकुरबाड़ी जाते । वहीं हमें दुनियालाल के दर्शन होते । मैं तब बहुत छोटी थी, अतः उनकी काया देखकर डर जाती । 



वे मुझे “महोखा” कहकर बुलाते और मैं दादाजी के पीछे छुप जाती । ठाकुरबाड़ी में जब कीर्तन होता तब वे ऐसे मस्त होकर गाते जैसे उनकी आवाज़ सीधे भगवान तक पहुँच रही हो । गाते समय वे अपने सुध-बुध खोकर ऐसे झूम उठते थे और उनके कन्धों पर लटें ऐसे अटखेल करतीं मानो स्वयं भगवान शिव उनके संगीत पाश में बंधकर नटराज रूप में अवतरित हुए हों। उस समय उनके मुखमंडल की आभा उनके ईश्वरीय अवतार का प्रमाण देती थीं ।

कभी-कभी सोचती हूँ क्या संत कबीर, कृष्ण भक्त सूरदास, मीरा आदि ऐसे ही भक्त रहे होंगे ?

खैर !  बहुत दिन बीत गए । पढ़ाई के कारण अब गाँव आना-जाना कम हो गया था । बहुत दिनों बाद एक दिन दादाजी गाँव से आए तो पता चला दुनियालाल  अब इस दुनिया में नहीं रहे । पता नहीं मेरा उनसे क्या  नाता था मैं बिल्कुल भावुक हुई जा रही थी । उनकी स्मृतियाँ मेरे मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने लगीं । उनका रूप, उनकी भाव-भंगिमा, उनके गीत-संगीत मेरे चारों ओर चक्कर लगाने लगे ।

मैं दुनियालाल की मृत्यु की सूचना से स्तब्ध थी । हाल ही में मैंने कबीर के बारे में पढ़ा था । कहते हैं जब कबीर की मृत्यु हुई तो उनका पार्थिव शरीर फूलों में परिवर्तित हो गया था । मुझे लग रहा था आज फिर एक सूफी संत की आत्मा  का मिलन परमात्मा से हो रहा था ।

मेरी आँखों के सामने उनकी छोटी-सी कुटिया उभरने लगी जिसमें वे बैठे थे ।  यह कुटिया इतनी छोटी थी कि उसमें बैठा ही जा सकता था । हाँ, यही थी दुनियालाल की दुनिया । झूल जैसे कपड़ों में, काली कमली ओढ़े, अपनी लटों से चेहरे को ढके हुए, एक हाथ में चिलम और दूसरे हाथ से आग के गोले उठाकर चिलम में डाल रहे थे । अलाव से धुआँ उठ रहा था ।



धीरे-धीरे धुआँ घना हो रहा था । मैं दूर होती जा रही थी । उनकी छवि धूमिल होती जा रही थी । धीरे-धीरे धुआँ और घना हो गया और फूलों में परिवर्तित हो गया।

पूनम वर्मा

राँची, झारखण्ड ।

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